स्मार्ट फोन (Smart Phone) की अनियमित व्यस्तता ने हमारी नींद पर सबसे ज्यादा बुरा असर डाला है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
सन् 1879 में थामस अल्वा एडीसन ने लाइट बल्ब का अविष्कार करके सूरज की अनुपस्थिति में दुनिया को उसका विकल्प उपलब्ध कराकर जीवन में एक क्रान्ति सी ला दी. अपने भवन को बिजली के इन रौशन बल्बों से सजाने के बाद न्यूयार्क के एक पाँच सितारा होटल ने अखबारों में यह विज्ञापन दिया था कि ‘यहां आप रात में भी दिन का अनुभव कर सकते हैं.‘ और अब; जबकि दुनिया के लगभग हर हाथ में मोबाइल फोन (Mobile Phones) आ गये हैं, दिन और रात का यह अंतर पूरी तरह खत्म हो चुका है. यह क्रमशः प्रकृति के स्वाभाविक चक्र (Natural Cycle of Day and Night) में किया गया अब तक का सबसे बड़ा और खतरनाक हस्तक्षेप बनता जा रहा है, क्योंकि इसके नकारात्मक प्रभाव से हर कोई ग्रसित होता जा रहा है.
सोशल मीडिया में उलझते लोग
आज लगभग 90% किशोरों के पास तथा 70% वयस्कों के हाथ सोशल मीडिया में उलझे हुए हैं. इनमें से लगभग 45% लोग ऐसे होते हैं, जो इस पर हमेशा मौजूद मिलेंगे. सन् 2012 में जहां एक व्यक्ति औसतन डेढ़ घंटे इसका उपयोग करता था, अब वह बढ़कर ढाई घंटे हो गया है. जिस प्रकार जीवन की गतिविधियां धीरे-धीरे डिजिटल केन्द्रित होती जा रही है, घन्टों का यह औसत बढ़ते ही जाना है.
सोशल मीडिया से आए बदलाव
निश्चित तौर पर इस सोशल मीडिया ने हमारे जीवन को सरल, सहज और सुविधाजनक बनाने का बहुत बड़ा काम किया है. लेकिन इस सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में इसने मनुष्य के स्वास्थ्य के सामने; विशेषकर मन संबंधी विकारों की अनेक चुनौतियां भी प्रस्तुत की हैं. इनमें सबसे बड़ी चुनौती है – नींद के घंटों में कमी का होना, उसके समय का विस्थापन, नींद में व्यवधान, जिनके आगे चलकर डिप्रेशन और डाइमेंशिया जैसी खतरनाक बीमारियों का रूप लेने की आशंका बढ़ जाती है.
जीवन की आंतरिक लय
हमारे जीवन का एक आंतरिक लय होता है, जो प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर चलता तथा अनिद्रा आदि है. इसी कारण हमें एक निश्चित समय में भूख और नींद का एहसास होता है. इस स्वाभाविक एहसास के साथ प्रकृति के चौबीस घंटों का स्वरूप काम करता है. उदाहरण के लिए प्रकृति में जब सूर्य का प्रकाश कम होते-होते अंततः खत्म हो जाता है, तब हमारे दिमाग से अपने आप ही मेलाटोनीन नामक हार्मोन निकलने लगता है. इसके प्रभाव से हमारी एलर्टनेस कम होने लगती है. अब दिमाग हमारे शरीर को संकेत देने लगता है कि ‘सब कुछ छोड़-छाड़कर सोने की तैयारी करो.‘
सोशल मीडिया के अनुभव
सोशल मीडिया के उपयोग का अनुभव हम सबके पास है, और थोड़े-बहुत अंतर से लगभग एक जैसा ही है. हम रात में फोन पर बात करते हैं. वाट्सएप चेटिंग करते हैं. यू ट्यूब देखते हैं. ई मेल चेक करते हैं. न्यूज सुनते हैं. गेम खेलते हैं. और भी न जाने किन-किन एप का उपयोग करते हैं. और ऐसा हम केवल दिन में ही नहीं करते, बल्कि रात में भी करते हैं. रात में शायद सबसे ज्यादा करते हैं. सोचते हैं कि सोने से पहले तो एक बार मोबाइल चेक कर ही लें. यह सबके जीवन का एक अनिवार्य नियम सा बन गया है.
मोबाइल का हार्मोन से संबंध
आपने ध्यान दिया होगा कि मोबाइल से निकलने वाले प्रकाशों में सबसे अधिक मात्रा नीले रंग के प्रकाश की होती है. यह नीला प्रकाश हमारे मेलाटोटीन नामक हार्मोंस के स्तर को प्रभावित करता है. इस प्रकाश को देखकर दिमाग इसे दिन का प्रकाश समझने लगता है. इससे मेलाटोटीन का निकलना कम हो जाता है, जो हमें नींद देता था. अब हमारा दिमाग सतर्क होने लगता है.
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नींद पर होता है असर
इसका परिणाम यह होता है कि बिस्तर पर जाने के बाद भी नींद आने में अधिक समय लगता है. नींद भी गहरी और अच्छी नहीं आती. हमारे आंतरिक लय के बिगड़ जाने के कारण इसके आने और खुलने का समय भी गड़बडा जाता है. नींद पूरी नहीं होने के कारण जब हम सुबह उठते हैं, तब हल्का और प्रसन्नता महसूस नहीं करते. मन चिड़चिड़ाहट से भरा रहता है. शरीर में सुस्ती रहती है. दिमाग भी खोया-खोया सा रहता है. और जब यही सब कुछ लम्बे समय तक चलता रहता है, तो व्यक्ति धीरे-धीरे डिप्रेशन का शिकार होने लगता है. भूलने की आवृत्ति बढ़ने लगती है. रक्तचाप में वृद्धि होने लगती है. ठीक से भूख न लगने का बुरा प्रभाव सम्पूर्ण स्वास्थ्य पर पड़ता है.
पीछे रह जाने का डर
इन सबको हम इसलिए आमंत्रित करते हैं, क्योंकि हमने अपनी नींद से हमें रिपेयर करने के अधिकार को छीन लिया है. आजकल एक शब्द खूब चल रहा है – FOMO Fear of Missing Out . यानी कि कहीं ऐसा न हो कि मैं पीछे रह जाऊं. इसलिए हम न केवल फोन पर प्राप्त संदेशों के तुरंत उत्तर देना चाहते हैं, बल्कि दूसरों से भी यह उम्मीद करते हैं कि वे भी तुरंत उत्तर देंगे. इस भय ने हमारे मन को अनावश्यक चिंता और तनाव से भर दिया है.
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अब जरूरी है कि
सोने से पहले यदि हम कोई दुखद वीडियो देख लेते हैं, या फिर कुछ विचारप्रधान तथ्य देख-सुन लेते हैं, तो ये सीधे हमारी नींद में दखल देते हैं. हमारा दिमाग इनमें उलझ जाता है. इसलिए मनोवैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों का कहना है कि सोने के कम से कम दो घंटे पहले स्वयं को इस सोशल मीडिया से अलग रखने की कोशिश करनी चाहिए. कम से कम पन्द्रह मिनट पहले तो इससे पूरी तरह अलग हो ही जाना चाहिए. बेहतर होगा कि अपने मोबाइल को बेडरूम से बाहर रखकर ही सोयें, ताकि जब रात में नींद खुले, तो अपनी आँखों को मोबाइल के स्क्रीन से निकलने वाले नीले रंग के प्रकाश से बचा सकें.
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