जानिए कितना बड़ा गुनाह है देशद्रोह, कितने साल की हो सकती है सजा

बेंगलुरु की एक स्टूडेंट एक्टिविस्ट पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ है
बेंगलुरु की एक स्टूडेंट एक्टिविस्ट अमूल्या (Amulya) के खिलाफ देशद्रोह (Sedition) का मुकदमा दर्ज हुआ है. उसने एक मंच से पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए थे..
- News18Hindi
- Last Updated: February 21, 2020, 10:04 AM IST
बेंगलुरु पुलिस (Bengaluru Police) ने गुरुवार को एक स्टूडेंट एक्टिविस्ट के खिलाफ देशद्रोह (Sedition) का मुकदमा दर्ज किया है. नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ हो रहे एआईएमआईएम (AIMIM) नेता असदुद्दीन ओवैसी की एक रैली में अमूल्या लिओना (Amulya Leona) नाम की एक लड़की ने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए थे.
अमूल्या लिओना बेंगलुरु कॉलेज की स्टूडेंट है. बेंगलुरु के फ्रीडम पार्क में एआईएमआईएम ने सीएए के खिलाफ एक रैली आयोजित की थी. अमूल्या लिओना इस रैली में मंच पर चढ़ गई और माइक लेकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने लगी.
हालांकि कुछ नारे लगाने के बाद ही आयोजकों ने उससे माइक छीन लिया और उसे मंच से उतार दिया गया. इसके बाद असदुद्दीन ओवैसी ने इस पर सफाई भी दी. उन्होंने मंच से ऐलान किया कि अमूल्या का उनकी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है और उसका मंच से इस तरह के नारे लगाना गलत है. इसके तुरंत बाद अमूल्या को बेंगलुरु पुलिस ने अपनी हिरासत में ले लिया और उस पर देशद्रोह की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है.
क्या है देशद्रोह का कानूनदेशद्रोह का कानून अंग्रेजों के जमाने में बनाया गया कानून है, इस पर वक्त-वक्त पर बहस होती रही है. कई बार इस कानून को लेकर सवाल उठाए गए हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इसे शामिल किया था. कांग्रेस ने वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वो इस कानून को वापस ले लेंगे.
इंडियन पीनल कोड की 124ए के तहत देशद्रोह को पारिभाषित किया गया है. इसके मुताबिक किसी तरह के लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों के जरिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है. आईपीसी की धारा 124ए असंतोष को विश्वासघात और घृणा को भी शामिल करता है.
ये धारा ये भी कहती है कि अगर किसी बयान के जरिए सरकार या सरकार के उठाए गए किसी कदम का विरोध होता है तो वो देशद्रोह के दायरे में नहीं आएगा, जब तक कि उस बयान से किसी तरह की घृणा, नफरत या असंतोष का वातावरण नहीं बनता. किसी प्रशासनिक कदम का विरोध भी देशद्रोह के दायरे में तब तक नहीं आता है, जब तक इससे घृणा या नफरत का वातावरण नहीं पैदा होता.
देशद्रोह के कानून में क्या है सजा का प्रावधान
आजादी के बाद देशद्रोह के कानून के अंतर्गत सजा पाने के मामले कम ही हैं. ज्यादातर मामलों में देशद्रोह का आरोप साबित नहीं हो पाता. हालांकि देशद्रोह का कानून सख्त है. इस कानून में किसी को गिरफ्तार करने के लिए वारंट की जरूरत नहीं पड़ती. इसमें आरोपी पीड़ित पक्ष के साथ किसी तरह का समझौता नहीं कर सकता. देशद्रोह का कानून गैरजमानती अपराध के दायरे में आता है. इस कानून के तहत देशद्रोह का आरोप सिद्ध होने पर 3 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है. इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है.
देशद्रोह के मुकदमे में आरोपी को अपना पासपोर्ट सरेंडर करना पड़ता है. वो किसी तरह की सरकारी नौकरी नहीं कर सकता है. आरोपी को बार-बार कोर्ट के सामने हाजिर होना पड़ता है.
कितना पुराना है देशद्रोह का कानून
ये अंग्रेजों के वक्त का बना कानून है. 1870 के पहले ये इंडियन पीनल कोड में नहीं था. 1860 में अंग्रेजी हुकूमत ने पहली बार इसको लेकर मसौदा तैयार किया. इसके 10 साल बाद यानी 1870 में इसे भारतीय कानून संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए की शक्ल दे दी गई. अंग्रेजों ने ये कानून ब्रिटिश शासन का विरोध करने वाली जनता के लिए बनाई थी. ताकि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह को कुचला जाए और विद्रोहियों को तुरंत जेल में डाल दिया जाए.
पहली बार कब दर्ज हुआ देशद्रोह का मुकदमा
आईपीसी की धारा 124ए के तहत पहला मुकदमा 1891 में दर्ज किया गया. उस वक्त एक अखबार बंगोबासी के प्रकाशन को लेकर केस दर्ज किया गया था. अखबार के एडिटर पर आरोप लगाया गया था कि उसने एक लेख में एज ऑफ कंसेट बिल की आलोचना की थी. इस मुकदमे में ज्यूरी किसी एक फैसले पर नहीं पहुंच पाई. अखबार का एडिटर जमानत पर रिहा हो गया. एक माफीनामे के बाद उसपर लगाए आरोप वापस ले लिए गए.
1897 में बालगंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया. ब्रिटिश हुकूमत ने बालगंगाधर तिलक पर आरोप लगाया था कि उनके भाषण की वजह से पुणे में दो अंग्रेज अफसरों की हत्या कर दी गई. तिलक ने अपने भाषण में शिवाजी द्वारा अफजल खान के मारे जाने का जिक्र किया था. हालांकि एक साल बाद तिलक को जेल से रिहा कर दिया गया. तिलक को एक बार फिर देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया. इस बार उनके अखबार केसरी में छपे किसी आर्टिकल का मामला था. तिलक को छह साल जेल में बिताने पड़े.
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस परिभाषा में बदलाव किया गया. अब नए कानून के तहत सिर्फ सरकार के खिलाफ असंतोष जाहिर करने को देशद्रोह नहीं माना जा सकता बल्कि उसी स्थिति में इसे देशद्रोह माना जाएगा जब इस असंतोष में हिंसा भड़काने और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने की भी अपील शामिल हो.
देशद्रोह कानून के मामले में बिहार के केदारनाथ सिंह का मामला काफी अहम रहा. 1962 में बिहार सरकार ने इनपर देशद्रोही भाषण देने के मामले में केस दर्ज किया था. इसपर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी. राज्य सरकार मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जहां कोर्ट ने कहा कि देशद्रोह के मामले में ऐसे भाषणों पर तभी सजा हो सकती है जब इससे किसी भी तरह की हिंसा हो या असंतोष बढ़े.
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अमूल्या लिओना बेंगलुरु कॉलेज की स्टूडेंट है. बेंगलुरु के फ्रीडम पार्क में एआईएमआईएम ने सीएए के खिलाफ एक रैली आयोजित की थी. अमूल्या लिओना इस रैली में मंच पर चढ़ गई और माइक लेकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने लगी.
हालांकि कुछ नारे लगाने के बाद ही आयोजकों ने उससे माइक छीन लिया और उसे मंच से उतार दिया गया. इसके बाद असदुद्दीन ओवैसी ने इस पर सफाई भी दी. उन्होंने मंच से ऐलान किया कि अमूल्या का उनकी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है और उसका मंच से इस तरह के नारे लगाना गलत है. इसके तुरंत बाद अमूल्या को बेंगलुरु पुलिस ने अपनी हिरासत में ले लिया और उस पर देशद्रोह की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है.
क्या है देशद्रोह का कानूनदेशद्रोह का कानून अंग्रेजों के जमाने में बनाया गया कानून है, इस पर वक्त-वक्त पर बहस होती रही है. कई बार इस कानून को लेकर सवाल उठाए गए हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इसे शामिल किया था. कांग्रेस ने वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वो इस कानून को वापस ले लेंगे.
इंडियन पीनल कोड की 124ए के तहत देशद्रोह को पारिभाषित किया गया है. इसके मुताबिक किसी तरह के लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों के जरिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है. आईपीसी की धारा 124ए असंतोष को विश्वासघात और घृणा को भी शामिल करता है.
ये धारा ये भी कहती है कि अगर किसी बयान के जरिए सरकार या सरकार के उठाए गए किसी कदम का विरोध होता है तो वो देशद्रोह के दायरे में नहीं आएगा, जब तक कि उस बयान से किसी तरह की घृणा, नफरत या असंतोष का वातावरण नहीं बनता. किसी प्रशासनिक कदम का विरोध भी देशद्रोह के दायरे में तब तक नहीं आता है, जब तक इससे घृणा या नफरत का वातावरण नहीं पैदा होता.
देशद्रोह के कानून में क्या है सजा का प्रावधान
आजादी के बाद देशद्रोह के कानून के अंतर्गत सजा पाने के मामले कम ही हैं. ज्यादातर मामलों में देशद्रोह का आरोप साबित नहीं हो पाता. हालांकि देशद्रोह का कानून सख्त है. इस कानून में किसी को गिरफ्तार करने के लिए वारंट की जरूरत नहीं पड़ती. इसमें आरोपी पीड़ित पक्ष के साथ किसी तरह का समझौता नहीं कर सकता. देशद्रोह का कानून गैरजमानती अपराध के दायरे में आता है. इस कानून के तहत देशद्रोह का आरोप सिद्ध होने पर 3 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है. इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है.
देशद्रोह के मुकदमे में आरोपी को अपना पासपोर्ट सरेंडर करना पड़ता है. वो किसी तरह की सरकारी नौकरी नहीं कर सकता है. आरोपी को बार-बार कोर्ट के सामने हाजिर होना पड़ता है.
कितना पुराना है देशद्रोह का कानून
ये अंग्रेजों के वक्त का बना कानून है. 1870 के पहले ये इंडियन पीनल कोड में नहीं था. 1860 में अंग्रेजी हुकूमत ने पहली बार इसको लेकर मसौदा तैयार किया. इसके 10 साल बाद यानी 1870 में इसे भारतीय कानून संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए की शक्ल दे दी गई. अंग्रेजों ने ये कानून ब्रिटिश शासन का विरोध करने वाली जनता के लिए बनाई थी. ताकि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह को कुचला जाए और विद्रोहियों को तुरंत जेल में डाल दिया जाए.
पहली बार कब दर्ज हुआ देशद्रोह का मुकदमा
आईपीसी की धारा 124ए के तहत पहला मुकदमा 1891 में दर्ज किया गया. उस वक्त एक अखबार बंगोबासी के प्रकाशन को लेकर केस दर्ज किया गया था. अखबार के एडिटर पर आरोप लगाया गया था कि उसने एक लेख में एज ऑफ कंसेट बिल की आलोचना की थी. इस मुकदमे में ज्यूरी किसी एक फैसले पर नहीं पहुंच पाई. अखबार का एडिटर जमानत पर रिहा हो गया. एक माफीनामे के बाद उसपर लगाए आरोप वापस ले लिए गए.
1897 में बालगंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया. ब्रिटिश हुकूमत ने बालगंगाधर तिलक पर आरोप लगाया था कि उनके भाषण की वजह से पुणे में दो अंग्रेज अफसरों की हत्या कर दी गई. तिलक ने अपने भाषण में शिवाजी द्वारा अफजल खान के मारे जाने का जिक्र किया था. हालांकि एक साल बाद तिलक को जेल से रिहा कर दिया गया. तिलक को एक बार फिर देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया. इस बार उनके अखबार केसरी में छपे किसी आर्टिकल का मामला था. तिलक को छह साल जेल में बिताने पड़े.
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस परिभाषा में बदलाव किया गया. अब नए कानून के तहत सिर्फ सरकार के खिलाफ असंतोष जाहिर करने को देशद्रोह नहीं माना जा सकता बल्कि उसी स्थिति में इसे देशद्रोह माना जाएगा जब इस असंतोष में हिंसा भड़काने और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने की भी अपील शामिल हो.
देशद्रोह कानून के मामले में बिहार के केदारनाथ सिंह का मामला काफी अहम रहा. 1962 में बिहार सरकार ने इनपर देशद्रोही भाषण देने के मामले में केस दर्ज किया था. इसपर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी. राज्य सरकार मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जहां कोर्ट ने कहा कि देशद्रोह के मामले में ऐसे भाषणों पर तभी सजा हो सकती है जब इससे किसी भी तरह की हिंसा हो या असंतोष बढ़े.
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