जिस समय भगत सिंह को अंग्रेज सरकार ने लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दी, उस समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस ट्रेन से कलकत्ता से कराची जा रहे थे. उन्होंने इस बारे में गांधीजी से पहले भी बात की थी. उन्होंने इस फांसी और गांधीजी की भूमिका पर क्या लिखा.
सुभाष चंद्र बोस जब तक भारत में रहे, वह भारत की राजनीतिक, सामाजिक हालात के साथ स्वतंत्रता संग्राम के बारे में लगातार लिखते रहते थे. उनके ये संस्मरण उनकी आत्मकथा के बाद लिख गए. उसमें उन्होंने 1931 के गांधी-इर्विन पैक्ट और भगत सिंह के फांसी और इससे उपजे हालात के बारे में भी लिखा.
“नेताजी संपूर्ण वांग्मय” के खंड दो में सुभाष चंद्र बोस की अप्रकाशित आत्मकथा के वो अंश हैं, जिसके बारे में उन्होंने 1935 से 1942 तक लिखा था. इसी में उन्होंने लिखा, ” कराची के 1931 के अधिवेशन से पहले मैं मुंबई जाकर गांधीजी से मिला. लंबी बातचीत हुई. खासकर लार्ड इर्विन के साथ कांग्रेस के हुए पैक्ट की. उस बातचीत में गांधी ने मुझे आश्वासन दिया कि वो उन लोगों की माफी के लिए पूरी कोशिश करेंगे, जो पैक्ट से बाहर रह गए हैं. इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा और अपनी पूरी क्षमता के साथ करूंगा.”
गांधीजी पर जोर डाला गया कि भगत सिंह के प्राण बचाएं
सुभाष ने लिखा, “मुंबई से दिल्ली महात्मा गांधी और सुभाष एक ही ट्रेन से दिल्ली रवाना हुए. दिल्ली पहुंचते ही खबर मिली कि सरकार ने लाहौर षडयंत्र के सरदार भगत सिंह और उनके दो साथियों को फांसी पर चढ़ाने का फैसला कर लिया है. महात्माजी पर जोर डाला गया कि इन युवकों के प्राण बचाने का प्रयत्न करें. ये स्वीकार करना चाहिए कि उन्होंने इसके लिए अधिक से अधिक कोशिश की.”
सुभाष ने क्या सुझाव गांधीजी को दिया
सुभाष ने आगे लिखा, “इस अवसर मैने उन्हें सुझाव दिया कि अगर जरूरी हो तो वो इसी आधार पर वायसराय से समझौता तोड़ दें, क्योंकि ये फांसी देना यद्यपि दिल्ली पैक्ट के विपरीत भले नहीं हो लेकिन उसकी भावना के खिलाफ तो जरूर है. लेकिन महात्माजी क्रांतिकारी कैदियों से किसी भी प्रकार का नाता जोड़ना नहीं चाहते थे, इस कारण वो इतना आगे बढ़ने को तैयार नहीं थे. इस बात से बहुत अंतर पड़ गया कि वायसराय ने समझ लिया कि इस आधार पर महात्माजी पैक्ट को नहीं तोड़ेंगे.”
इर्विन के रुख से लगा था कि फांसी टल जाएगी
बकौल सुभाष, “उसी समय लार्ड इर्विन ने महात्माजी को बताया कि मुझे तीनों बंदियों की फांसी की सजा रद्द करने के लिए बहुत से लोगों के हस्ताक्षरों सहित अर्जी मिली है. फिलहाल मैं इस फांसी की सजा को स्थगित किए दे रहा हूं और फिर इस मामले पर गंभीरता से विचार करूंगा. इससे अधिक मुझपर इस बारे में और दबाव नहीं डाला जाए. महात्माजी और हरेक को इस समय यही लगा कि फांसी रुक गई है और अब लगता है कि ये नहीं दी जाएगी. इससे देशभर खुशी की लहर दौड़ गई.”
जब नेताजी को ये दुखद जानकारी मिली
सुभाष ने आगे लिखा, “इसके 10 दिन बाद कराची में कांग्रेस अधिवेशन होने वाला था. आमतौर पर सभी को आशा बंध गई थी कि फांसी नहीं दी जाएगी. लेकिन जब 25 मार्च को हमें कलकत्ता से कराची जाते समय ये समाचार मिला कि पिछली रात फांसी दे दी गई तो हमारे दुख और आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. पंजाब में बड़ी दर्दनाक खबरें फैली हुईं थीं कि किस प्रकार उनके शवों को ठिकाने लगा दिया गया. सारा देश शोक और वेदना में डूब गया. भगत सिंह उस समय युवकों में नई जागृति के प्रतीक बन गए.”
गांधीजी का विरोध हुआ
“इसका असर कराची के कांग्रेस अधिवेशन पर पड़ा. माहौल शोक संतप्त था. जब महात्माजी कराची के पास ट्रेन से उतरे तो उनके खिलाफ प्रदर्शन किया गया. उन्हें काले फूल और काली मालाओं से स्वागत किया गया. नवयुवकों के बहुत बड़े वर्ग में उस समय ये धारणा थी कि महात्माजी ने भगत सिंह और उनके साथियों के उद्देश्यों के साथ धोखा किया है.”
कांग्रेस अधिवेशन में क्या हुआ
सुभाष लिखते हैं, “कांग्रेस के उस अधिवेशन में जो अन्य प्रस्ताव स्वीकार किए गए, उसमें सरदार भगत सिंह और उनके साथियों के साहस और बलिदान की तारीफ की गई. साथ ही सभी प्रकार के हिंसात्मक कार्यों की निंदा की गई. भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह को भी मंच पर लाया गया और कांग्रेस नेताओं के समर्थन में उनसे भाषण कराया गया.”
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