डॉ. भीमराव अंबेडकर (illustration shutterstock)
अंबेडकर हिंदू धर्म (Hinduism) छोड़कर बौद्ध क्यों बने? दरअसल ये बात समझने के लिए राजनेता और समाज सुधारक डॉ. भीमराव अंबेडकर के 1935 के एक भाषण पर निगाह डालनी होगी. ये उनका बहुत आक्रामक भाषण था. तब अंबेडकर ने पहली बार ज़बरदस्त भाषण देकर नीची समझी जाने वाली जातियों को आंदोलित किया था. उनका यही भाषण इसके करीब 20 साल बाद हकीकत में बदल गया. तब डॉ. अंबेडकर ने अकेले नहीं बल्कि 3.85 लाख अनुयायियों के साथ हिंदू छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया.
इस भाषण में पूरे समाज की पीड़ा और भावना इस कदर छुपी थी कि एक ऐतिहासिक घटना का जन्म होना ही था. देखें उस यादगार भाषण के ये अंश :
महात्मा गांधी थे पूरी तरह असहमत
इस भाषण ने जहां अंबेडकर को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित कर दिया बल्कि कई नेता भी उनके विरोध में आ गए. देश की 20 फीसदी से ज़्यादा आबादी को भड़काने के आरोप अंबेडकर पर लगने लगे. जिस पर उन्होंने यही कहा, ‘जो शोषित हैं, उनके लिए धर्म को नियति का नहीं बल्कि चुनाव का विषय मानना चाहिए’. ये बातें जब महात्मा गांधी तक पहुंचीं तो उन्होंने इस बात से ऐतराज़ किया.
गांधीजी ने तब इस बारे में क्या कहा था
गांधी ने कहा था ‘धर्म न तो कोई मकान है और न ही कोई चोगा, जिसे उतारा या बदला जा सकता है. यह किसी भी व्यक्ति के साथ उसके शरीर से भी ज़्यादा जुड़ा हुआ है’. गांधी का विचार था कि समाज सुधार के रास्ते और सोच बदलने के रास्ते चुनना बेहतर था, धर्म परिवर्तन नहीं. लेकिन, अंबेडकर कट्टर जातिवादी हो चुके और पिछड़ों का हर तरह से शोषण कर रहे हिंदू धर्म से इस कदर आजिज़ आ चुके थे कि उनकी नज़र में समानता के लिए धर्म बदलना ही सही रास्ता था.
हिंदू धर्म छोड़ने और बौद्ध होने के बीच 20 साल
‘मैं हिंदू धर्म में पैदा ज़रूर हुआ, लेकिन हिंदू रहते हुए मरूंगा नहीं.’ 1935 में ही अंबेडकर ने इस वक्तव्य के साथ हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा कर दी थी. लेकिन, औपचारिक तौर पर कोई अन्य धर्म उस वक्त नहीं अपनाया था. अंबेडकर समझते थे कि यह सिर्फ उनके धर्मांतरण की नहीं बल्कि एक पूरे समाज की बात थी इसलिए उन्होंने सभी धर्मों के इतिहास को समझने और कई लेख लिखकर शोषित समाज को जाग्रत व आंदोलित करने का इरादा किया.
धीरे-धीरे बनी अंबेडकर की बौद्ध थ्योरी
साल 1940 में अपने अध्ययन के आधार पर अंबेडकर ने “द अनटचेबल्स” में लिखा कि भारत में जिन्हें अछूत कहा जाता है, वो मूल रूप से बौद्ध धर्म के अनुयायी थे. ब्राह्मणों ने इसी कारण उनसे नफरत पाली. इस थ्योरी के बाद अंबेडकर ने 1944 में मद्रास में एक भाषण में कहा और साबित किया कि बौद्ध धर्म सबसे ज़्यादा वैज्ञानिक और तर्क आधारित धर्म है. कुल मिलाकर बौद्ध धर्म के प्रति अंबेडकर का झुकाव और विश्वास बढ़ता रहा. आज़ादी के बाद संविधान सभा के प्रमुख बनने के बाद बौद्ध धर्म से जुड़े चिह्न अंबेडकर ने ही चुने थे.
फिर हुआ ऐतिहासिक धर्म परिवर्तन
14 अक्टूबर 1956 को नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में अंबेडकर ने विधिवत बौद्ध धर्म स्वीकार किया. इसी दिन महाराष्ट्र के चंद्रपुर में अंबेडकर ने सामूहिक धर्म परिवर्तन का एक कार्यक्रम भी किया और अपने अनुयायियों को 22 शपथ दिलवाईं, जिनका सार था कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद किसी हिंदू देवी-देवता और उनकी पूजा में विश्वास नहीं किया जाएगा. हिंदू धर्म के कर्मकांड नहीं होंगे और ब्राह्मणों से किसी किस्म की कोई पूजा अर्चना नहीं करवाई जाएगी. इसके अलावा समानता और नैतिकता को अपनाने संबंधी कसमें भी थीं.
धर्म परिवर्तन और उसके बाद
अंबेडकर के धर्म परिवर्तन को असल में दलित बौद्ध आंदोलन के नाम से इतिहास में दर्ज किया गया, जिसके मुताबिक अंबेडकर के रास्ते पर लाखों लोग हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध बने थे. लेकिन, 6 दिसंबर 1956 को अंबेडकर की मृत्यु के बाद यह आंदोलन धीमा पड़ता चला गया. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में करीब 84 लाख बौद्ध हैं, जिनमें से करीब 60 लाख महाराष्ट्र में हैं और ये महाराष्ट्र की आबादी के 6 फीसदी हैं. जबकि देश की आबादी में बौद्धों की आबादी 1 फीसदी से भी कम है.
अंबेडकर ने फिर ताउम्र बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का पालन किया. वो चाहते थे कि देश से ऊंच-नीच और छूआछूत खत्म हो जाए. हालांकि इस मामले में देश में काफी सुधार भी हुआ लेकिन अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है.
स्रोत : बी आर अंबेडकर एंड बुद्धिज़्म इन इंडिया (PDF) : ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, ट्राइसिकल.कॉम, सेंसस2011.को.इन
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