हैदराबाद में शहरी चुनाव के अखाड़े में भाजपा ने क्यों झोंके राष्ट्रीय स्तर के नेता?

नेटवर्क18 क्रिएटिव
Hyderabad civic elections: हैदराबाद को 'नवाब निज़ाम कल्चर' से आज़ाद करने, यहां 'मिनी इंडिया' बनाने जैसे दावे गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) ने किए. जानिए कैसे हैदराबाद मेयर चुनाव क्यों इतना बड़ा हो गया है, कैसे भाजपा ने यहां हिंदुत्व (Hindutva) की लहर उठाई है.
- News18India
- Last Updated: November 30, 2020, 10:11 AM IST
ग्रेटर हैदराबाद नगरीय निकाय चुनावों (GHMC Election) को भाजपा ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है. लेकिन क्यों? इस चुनाव में भाजपा के लिए क्या दांव पर लगा हुआ है और क्यों? 1 दिसंबर को हैदराबाद में स्थानीय चुनाव (Municipal Corporation Election) होने जा रहे हैं और इसके लिए स्मृति ईरानी (Smriti Irani) से लेकर जेपी नड्डा और योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) से लेकर अमित शाह भाजपा के तमाम दिग्गज रैलियां कर रहे हैं. यही नहीं रैलियों में बेहद आक्रामक तेवरों के साथ भाषण और बयान दिए जा रहे हैं. यह पूरा माजरा क्या है?
हैदराबाद शहर में स्थानीय चुनावों के दौरान माहौल ऐसा बना हुआ है, जैसे विधानसभा या लोकसभा चुनाव हो. महराष्ट्र के पूर्व सीएम देवेंद्र फड़नवीस, बेंगलूरु के युवा सांसद तेजस्वी सूर्या जैसे चेहरों के बाद भाजपा ने कोई कसर न छोड़ते हुए योगी और शाह जैसे राष्ट्रीय स्तर के स्टार चेहरों को भी हैदराबाद रैलियों में उतार दिया. आखिर हैदराबाद में ऐसा कौन सा खज़ाना गड़ा है, जिसके बगैर भाजपा को चैन नहीं? आइए जानें कि क्या है ये सियासी गणित.
ये भी पढ़ें :- एक देश-एक चुनाव : शुरूआत यहीं से हुई, फिर कैसे पटरी से उतरी गाड़ी?
'आज शहर तो कल सूबा जीतेंगे'केंद्र सरकार में गृह राज्य मंत्री किशन रेड्डी कह चुके हैं कि हैदराबाद में भाजपा की रणनीति साफ है : 'पहले शहर जीता जाए, उसके बाद विधानसभा चुनाव'. लेकिन, बात इतनी सी और इतनी सीधी नहीं है. 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए मैड नेशन' किताब के लेखक श्रीराम कर्री की मानें तो दुबक्का लोकसभा सीट पर हुए कांटे की टक्कर वाले उपचुनाव में भाजपा जीती, तो उसकी महत्वाकांक्षा बढ़ गई है.

अब भाजपा देख रही है कि दक्षिण भारत में कर्नाटक के बाद तेलंगाना में उसकी सरकार बनने का ख़्वाब कैसे पूरा हो सकता है. फिलहाल में के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी यहां सत्ता पर काबिज़ है और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम यहां प्रभाव वाली क्षेत्रीय पार्टी है. भाजपा का यह भी दावा है कि टीआरएस और एमआईएम के बीच एक सांठगांठ है और कुर्सी इसी मिलीभगत से बंधी है, जिसका खात्मा करना ज़रूरी है. लेकिन शब्दों के पीछे कहानी और भी है.
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क्या सीधी टक्कर ओवैसी से है?
2023 के अंत तक तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होंगे. एक तो इसके लिए भरसक तैयारी के तौर पर हैदराबाद के शहरी चुनावों को भाजपा ने अहम बना लिया है. दूसरा अहम कारण है ओवैसी और उनकी पार्टी का बढ़ता प्रभुत्व. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के चलते भाजपा ओवैसी के खिलाफ बौखलाई हुई है. जानकार यह भी कह रहे हैं कि हाल में बिहार चुनाव में भी ओवैसी के 5 विधायक बनने को भी भाजपा ने एक तरह से सेंधमारी समझ लिया है.
हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी की मौजूदगी से नुकसान महागठबंधन को होना बताया गया है, लेकिन भाजपा ने इसे एक निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है. ओवैसी की मुस्लिम बहुल पार्टी महाराष्ट्र, बंगाल और बिहार में फैलती हुई दिख रही है और भाजपा को यह गवारा नहीं है.

क्या कह रहे हैं रैलियों के तेवर?
भाजपा ने किस तरह आक्रामक रवैया इख्तियार किया है, इसकी बानगी भी देखिए. भाजपा के नेताओं की रैलियों ने इस चुनाव को सीधे 'हिंदू बनाम मुस्लिम' की जंग बना दिया है. भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्या ने दो बातें प्रमुख रूप से दोहराईं :
ओवैसी को एक वोट देने का मतलब है कि आपने जिन्ना को एक वोट दिया... चूंकि लोग हैदराबाद में ओवैसी को वोट देते हैं इसलिए वो बिहार तक चुनाव लड़ पाते हैं. ओवैसी को हैदराबाद की ज़मीन पर हराना ज़रूरी है.
यही नहीं, सूर्या और भाजपा ने ओवैसी की पार्टी के संबंध ओसामा बिन लादेन के साथ तक बताए. हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर किए जाने के पीछे हैदराबाद में 'मुस्लिम शासन' से पहले के 'हिंदू वैभव' को फिर कायम करना कारण बताया गया. 'हैदराबाद पर सर्जिकल स्ट्राइक' जैसे जुमले भाजपा के आला नेताओं ने इस तरह रचे कि यह चुनाव जैसे हिंदुत्व की लड़ाई हो.
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कैसे बन गया है प्रतिष्ठा का सवाल?
एक तरफ, बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत शहरी चुनाव में झोंक दी है क्योंकि उसके मौजूदा और भविष्य के इरादे साफ हैं, तो दूसरी तरफ, केसीआर की टीआरएस ने दावा कर दिया है कि भले ही भाजपा पूरा दम लगा ले, लेकिन राज्य में पार्टी की पैठ बरकरार रहेगी. केटी रामाराव ने कह दिया कि टीआरएस यहां 150 में से 100 वोट जीतेगी. गौरतलब है कि कोरोना की मार और पिछले दिनों हैदराबाद में आई बाढ़ इस बार चुनाव के नतीजे तय करने में प्रमुख मुद्दे रहेंगे.
वहीं, इस चुनाव में भाजपा, टीआरएस के साथ ही कांग्रेस ने भी शहर को मुफ्त पेयजल देने का बड़ा वादा किया है, तो भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव की तरह यहां भी मुफ्त वैक्सीन दिए जाने की घोषणा की है. अब स्थिति यह है कि शहरी चुनाव के नतीजे तो 4 दिसंबर को आएंगे, लेकिन ओपिनियन पोल्स कह रहे हैं कि टीआरएस सबसे ज़्यादा 85 सीटें जीत जाएगी और भाजपा को 30 फीसदी वोट मिल सकते हैं.
और हैदराबाद का गणित क्या है?
ग्रेटर हैदराबाद के दायरे में 24 विधानसभा सीटें आती हैं, जो कि पूरे तेलंगाना का करीब 20 फीसदी हिस्सा है. इस दायरे में चार लोकसभा सीटें हैं, जिनके दायरे में 24 सेगमेंट हैं. 24 में से 7 पर 2019 लोकसभा चुनाव में यहां भाजपा का दबदबा रहा था. सिकंदराबाद में भाजपा की पकड़ है लेकिन बाकी जगहों पर उसे तेलुगु देशम पार्टी के साथ पर निर्भर रहना होता है.
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अस्ल में, हैदराबाद के दायरे में तेदेपा और कांग्रेस की पकड़ कमज़ोर होने का फायदा भाजपा को मिला है. और इसके लिए कुछ हद तक टीआरएस की कमज़ोरी भी ज़िम्मेदार मानी जाती है. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को यहां 19 सीटें मिलीं, लेकिन अब कांग्रेस के सिर्फ 6 विधायक रह गए हैं. ज़्यादातर विधायक दल बदलकर टीआरएस में चले गए. कुल मिलाकर, यह एक कीमती ज़मीन है, जहां कब्ज़ा करने के कई दावेदार हैं.
हैदराबाद शहर में स्थानीय चुनावों के दौरान माहौल ऐसा बना हुआ है, जैसे विधानसभा या लोकसभा चुनाव हो. महराष्ट्र के पूर्व सीएम देवेंद्र फड़नवीस, बेंगलूरु के युवा सांसद तेजस्वी सूर्या जैसे चेहरों के बाद भाजपा ने कोई कसर न छोड़ते हुए योगी और शाह जैसे राष्ट्रीय स्तर के स्टार चेहरों को भी हैदराबाद रैलियों में उतार दिया. आखिर हैदराबाद में ऐसा कौन सा खज़ाना गड़ा है, जिसके बगैर भाजपा को चैन नहीं? आइए जानें कि क्या है ये सियासी गणित.
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'आज शहर तो कल सूबा जीतेंगे'केंद्र सरकार में गृह राज्य मंत्री किशन रेड्डी कह चुके हैं कि हैदराबाद में भाजपा की रणनीति साफ है : 'पहले शहर जीता जाए, उसके बाद विधानसभा चुनाव'. लेकिन, बात इतनी सी और इतनी सीधी नहीं है. 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए मैड नेशन' किताब के लेखक श्रीराम कर्री की मानें तो दुबक्का लोकसभा सीट पर हुए कांटे की टक्कर वाले उपचुनाव में भाजपा जीती, तो उसकी महत्वाकांक्षा बढ़ गई है.

नेटवर्क 18 क्रिएटिव
अब भाजपा देख रही है कि दक्षिण भारत में कर्नाटक के बाद तेलंगाना में उसकी सरकार बनने का ख़्वाब कैसे पूरा हो सकता है. फिलहाल में के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी यहां सत्ता पर काबिज़ है और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम यहां प्रभाव वाली क्षेत्रीय पार्टी है. भाजपा का यह भी दावा है कि टीआरएस और एमआईएम के बीच एक सांठगांठ है और कुर्सी इसी मिलीभगत से बंधी है, जिसका खात्मा करना ज़रूरी है. लेकिन शब्दों के पीछे कहानी और भी है.
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क्या सीधी टक्कर ओवैसी से है?
2023 के अंत तक तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होंगे. एक तो इसके लिए भरसक तैयारी के तौर पर हैदराबाद के शहरी चुनावों को भाजपा ने अहम बना लिया है. दूसरा अहम कारण है ओवैसी और उनकी पार्टी का बढ़ता प्रभुत्व. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के चलते भाजपा ओवैसी के खिलाफ बौखलाई हुई है. जानकार यह भी कह रहे हैं कि हाल में बिहार चुनाव में भी ओवैसी के 5 विधायक बनने को भी भाजपा ने एक तरह से सेंधमारी समझ लिया है.
हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी की मौजूदगी से नुकसान महागठबंधन को होना बताया गया है, लेकिन भाजपा ने इसे एक निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है. ओवैसी की मुस्लिम बहुल पार्टी महाराष्ट्र, बंगाल और बिहार में फैलती हुई दिख रही है और भाजपा को यह गवारा नहीं है.

हैदराबाद चुनाव के दौरान भाजपा ने ओवैसी के खिलाफ नैरेटिव तैयार किया.
क्या कह रहे हैं रैलियों के तेवर?
भाजपा ने किस तरह आक्रामक रवैया इख्तियार किया है, इसकी बानगी भी देखिए. भाजपा के नेताओं की रैलियों ने इस चुनाव को सीधे 'हिंदू बनाम मुस्लिम' की जंग बना दिया है. भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्या ने दो बातें प्रमुख रूप से दोहराईं :

यही नहीं, सूर्या और भाजपा ने ओवैसी की पार्टी के संबंध ओसामा बिन लादेन के साथ तक बताए. हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर किए जाने के पीछे हैदराबाद में 'मुस्लिम शासन' से पहले के 'हिंदू वैभव' को फिर कायम करना कारण बताया गया. 'हैदराबाद पर सर्जिकल स्ट्राइक' जैसे जुमले भाजपा के आला नेताओं ने इस तरह रचे कि यह चुनाव जैसे हिंदुत्व की लड़ाई हो.
ये भी पढ़ें :- क्या है भागमती की कहानी और सच्चाई, जिसे योगी ने हैदराबाद में फिर छेड़ा
कैसे बन गया है प्रतिष्ठा का सवाल?
एक तरफ, बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत शहरी चुनाव में झोंक दी है क्योंकि उसके मौजूदा और भविष्य के इरादे साफ हैं, तो दूसरी तरफ, केसीआर की टीआरएस ने दावा कर दिया है कि भले ही भाजपा पूरा दम लगा ले, लेकिन राज्य में पार्टी की पैठ बरकरार रहेगी. केटी रामाराव ने कह दिया कि टीआरएस यहां 150 में से 100 वोट जीतेगी. गौरतलब है कि कोरोना की मार और पिछले दिनों हैदराबाद में आई बाढ़ इस बार चुनाव के नतीजे तय करने में प्रमुख मुद्दे रहेंगे.
वहीं, इस चुनाव में भाजपा, टीआरएस के साथ ही कांग्रेस ने भी शहर को मुफ्त पेयजल देने का बड़ा वादा किया है, तो भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव की तरह यहां भी मुफ्त वैक्सीन दिए जाने की घोषणा की है. अब स्थिति यह है कि शहरी चुनाव के नतीजे तो 4 दिसंबर को आएंगे, लेकिन ओपिनियन पोल्स कह रहे हैं कि टीआरएस सबसे ज़्यादा 85 सीटें जीत जाएगी और भाजपा को 30 फीसदी वोट मिल सकते हैं.
और हैदराबाद का गणित क्या है?
ग्रेटर हैदराबाद के दायरे में 24 विधानसभा सीटें आती हैं, जो कि पूरे तेलंगाना का करीब 20 फीसदी हिस्सा है. इस दायरे में चार लोकसभा सीटें हैं, जिनके दायरे में 24 सेगमेंट हैं. 24 में से 7 पर 2019 लोकसभा चुनाव में यहां भाजपा का दबदबा रहा था. सिकंदराबाद में भाजपा की पकड़ है लेकिन बाकी जगहों पर उसे तेलुगु देशम पार्टी के साथ पर निर्भर रहना होता है.
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अस्ल में, हैदराबाद के दायरे में तेदेपा और कांग्रेस की पकड़ कमज़ोर होने का फायदा भाजपा को मिला है. और इसके लिए कुछ हद तक टीआरएस की कमज़ोरी भी ज़िम्मेदार मानी जाती है. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को यहां 19 सीटें मिलीं, लेकिन अब कांग्रेस के सिर्फ 6 विधायक रह गए हैं. ज़्यादातर विधायक दल बदलकर टीआरएस में चले गए. कुल मिलाकर, यह एक कीमती ज़मीन है, जहां कब्ज़ा करने के कई दावेदार हैं.