कोरोना वायरस की वैक्सीन (coronavirus vaccine) सालभर के भीतर बनकर तैयार है और फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) के पास मंजूरी के लिए जा चुका. वहीं इससे पहले साल 1918 में स्पेनिश फ्लू (Spanish flu) के आने पर उसका टीका बनने में लगभग 27 साल लग गए. पोलियो वायरस के लिए भी वैज्ञानिकों ने साल 1935 में कोशिश शुरू की लेकिन 1953 में टीका आ सका. तब क्या वजह है, जो कोविड-19 वैक्सीन इतनी जल्दी बन सकी. जानिए.
इससे पहले सारे ही टीकों के लिए शुरू से काम करना पड़ा. पोलियो और स्पेनिश फ्लू दोनों में ही पहले ये समझना पड़ा कि बीमारी का कारण क्या है. काफी वक्त बाद इनके लिए जिम्मेदार वायरसों का पता लगा. इसके बाद कमजोर या मृत वायरस को लेकर इंसानी शरीर में एंटीबॉडी बनाने की तैयारी चली. हालांकि इसमें भी कई बाधाएं आईं. जैसे 2.5 मिलियन बच्चे जो पोलियो का टीका लेते हैं, उनमें से एक बच्चा टीकाकरण के कारण भी पोलियो संक्रमित हो सकता है.

मॉड्यूलर वैक्सीन का कंसेप्ट ज्यादा पुराना नहीं है लेकिन बेहद असरदार है- सांकेतिक फोटो (moneycontrol)
दूसरी तरफ नई वैक्सीन हैं. इसकी प्रकिया आसान है. लैब में एक वायरस, जो काफी कमजोर हो, तैयार होता है. या फिर ये किया जाता है कि वायरस के आरएनए लेकर लैब में उसे खास प्रक्रिया से गुजारा जाता है. इसे शरीर में डालने पर बीमार होने का डर नहीं रहता है. मॉड्यूलर वैक्सीन का कंसेप्ट ज्यादा पुराना नहीं है लेकिन बेहद असरदार है.
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ऑक्सफोर्ड वैक्सीन इसी मॉड्यूलर वैक्सीन का उदाहरण है. बीबीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे इसी तर्ज पर लैब में कोई नुकसान न करने वाला वायरस तैयार किया गया और फिर चिकनगुनिया, जीका, मर्स और यहां तक कि प्रोस्टेट कैंसर की वैक्सीन भी तैयार हुई.
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साल 2019 के दिसंबर में चीन के वुहान में पहली बार कोरोना वायरस की बात पता चली. 10 जनवरी को चीन के वैज्ञानिकों ने वायरस की जेनेटिक संरचना का पता लगा लिया और पेपर में आ गया. इसके बाद से ही दुनियाभर के वैज्ञानिक कोड के आधार पर वैक्सीन तैयार करने में जुट गए. ऑक्सफोर्ड वैक्सीन तो केवल 3 ही महीनों के भीतर तैयार हो गई और 23 अप्रैल से इसका ह्यूमन ट्रायल भी शुरू हो गया.

चीन के वैज्ञानिकों ने वायरस की जेनेटिक संरचना का पता लगा लिया और पेपर में आ गया- सांकेतिक फोटो (Pixabay)
वैक्सीन तैयार करने में दिखाई दे रहा समय भी वैक्सीन बनाने से ज्यादा प्रशासनिक प्रक्रिया और पेपर वर्क में लगा. तैयारी की मंजूरी लेना, फंड जुटाना और मैन्युफैक्चरिंग के लिए कंपनियों से बात करने वाला हिस्सा ज्यादा बड़ा है, जो दिखाई नहीं देता है. स्पेनिश फ्लू जैसी वैक्सीन तैयार करने के दौरान भी ये समय लगा, लेकिन तब किसी को कुछ खास पता नहीं था और वैज्ञानिक निर्माण के दौरान लगातार रिजेक्शन झेल रहे थे. इस बार कोरोना महामारी के कारण तेजी से आगे जाती अर्थव्यवस्था चरमराई और पेपर वर्क को आनन-फानन मंजूरी मिल गई.
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ऑक्सफोर्ड वैक्सीन के अलावा दो और टीके मंजूरी के लिए जा चुके हैं. ये हैं फाइजर और मॉडर्ना की वैक्सीन्स. इनमें असल वायरस का कोई इस्तेमाल ही नहीं हुआ, बल्कि सिंथेटिक मैसेंजर RNA बनाया गया. ये एकदम नया तरीका है, जिसमें प्राकृतिक तौर पर शरीर की कोशिकाएं प्रोटीन लेने की जो प्रक्रिया अपनाती हैं, उसपर भरोसा किया गया. इससे टीका लगने पर शरीर वायरस के संपर्क में आए बिना ही एंटीबॉडी बना लेता है.

कम वक्त में हजारों लोगों पर टीके का क्या साइड इफेक्ट हो रहा है, ये पता लगाना आसान नहीं- सांकेतिक फोटो (pixnio)
अब वैक्सीन बनने में कम समय लग तो रहा है लेकिन इसमें भी कई मुश्किलें हो सकती हैं. जैसे ह्यूमन ट्रायल के हर चरण में लगभग दो महीने लगे. इतने कम वक्त में हजारों लोगों पर टीके का क्या साइड इफेक्ट हो रहा है, ये पता लगाना आसान नहीं. साथ ही लांग टर्म इफेक्ट भी हो सकता है, जिसके बारे में इतनी जल्दी सोचा भी नहीं जा सकता.
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एक समस्या ये भी है कि वैक्सीन तैयार होने और मंजूरी मिलने के बाद ह्यूमन ट्रायल के दौरान प्लासिबो इफेक्ट (जिसमें दवा नहीं दी जाती, बल्कि कुदरती तौर पर शरीर के लड़ने का इंतजार किया जाता है) पर रहने वाले लोग भी टीका लगाए जाने की मांग कर सकते हैं. इससे वैक्सीन कितना असरदार है, ये पता नहीं चलेगा.
एक समस्या ये भी है कि जब पहले से ही कई वैक्सीन बाजार में आ जाएंगी तो नई वैक्सीन के ट्रायल में लोग शामिल नहीं होना चाहेंगे. इससे ये भी हो सकता है कि बेहतर वैक्सीन के ह्यूमन ट्रायल में बेवजह समय लगे, जबकि कम कारगर टीका लोग पहले से आने के कारण हाथोंहाथ लें.
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FIRST PUBLISHED : December 08, 2020, 06:21 IST