विदेश नीति के मामले में अमरिका और जर्मनी (US Germany) के संबंध चुनौतीपूर्ण दिखाई देते हैं.(तस्वीर: Wikimedia Commons)
रूस यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) को शुरू हुए एक साल का समय होने जा रहा है. ऐसे में पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को नैतिक समर्थन (Support to Ukraine) तो खुल कर दिया है, लेकिन सैन्य समर्थन देने में संयम बरतने का काम किया है और रूस को व्यापक युद्ध छेड़ने का मौका देने का अवसर नहीं देने पर जोर दिया है. लेकिन पिछले कुछ समय से यूक्रेन को इन देशों से टैंक और मिसाइल की आपूर्ति पर बहस ने अमेरिका और जर्मनी के बीच संबंधों (US German Ties) में एक असहजता जरूर ला दी है देखना यही है कि क्या यह युद्ध दोनों देशों के बीच संबंधों की परीक्षा बनता जा रहा है?
युद्ध को लेकर असहजता
पिछले कुछ दिनों में हमने रूस यूक्रेन युद्ध को लेकर पश्चिमी देशों में यूक्रेन के हथियारों की आपूर्ति को लेकर पश्चिमी देशों में एक कशमकश सी देखी थी जिसमें सबसे ज्यादा हिचकिचाहट जर्मनी की ओर से दिखी थी. इससे ना केवल यूक्रेन बल्कि कई यूरोपीय देश में ऐतराज के स्वर दिखे और अंततः अमेरिका के दबाव के बाद जर्मनी राजी हुआ.
नाटो में अमेरिका और जर्मनी
नाटो की बात करें तो अमेरिका और जर्मनी सबसे बड़े सदस्य हैं. यूक्रेन की मदद के मामले दोनों दोनों देशो के बीच परस्पर संबंधों को एक नए मोड़ पर खड़ा कर दिया है और दोनों देशों के अलग नजरिए में अंतर को साफ तौर प्रभावी दिखाई दे रहा है. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि ये संबंध भी बहुत जटिल विश्व परिदृश्य का एक हिस्सा भर है.
अमेरिका का धैर्य
रूस यूक्रेन युद्ध के बाद से देखने में आया है कि जो बाइडन प्रशासन ने वास्तव में बहुत धैर्य से ही काम लिया है. ऐसे मे जब रूस यूरोप की बहुत सारी जरूरतों को पूरा कर रहा था, रूस के खिलाफ नाटो देशों में एकजुटता बनाए रखना अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती रहा जिसके लिए बाइडन प्रशासन का धैर्य कई रूप में दिखाई दिया है.
अमेरिका का सामंजस्य?
विशेषज्ञ मानते हैं कि युद्ध को लेकर जर्मनी को कई असहज फैसले लेने होंगे और अमेरिकी प्रशासन इस बात को समझता है. हाल ही में जो बाइडन ने जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज को यूक्रेन के प्रति मजबूत प्रतिबद्धता के लिए बधाई दी. लेकिन हथियारों की आपूर्ति की चर्चा ने नाटो देशों में सहमति को लेकर जारी असहजता को ही उजागर किया है.
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जर्मनी का दुविधा
इस चर्चा में सुर्खियों में रहने वाली बात जर्मनी के “हम तभी टैंक देंगे जब आप देंगे” वाला बयान ही रहा. लेकिन इससे जर्मनी का यह नजरिया भी सामने आता है कि वह इस युद्ध में खुद को पहल कर झोंकने वाला जोखिम उठाना पसंद नहीं करेगा. दरअसल रूस यूक्रेन युद्ध ने सबसे ज्यादा जर्मनी को ही असमंजस में डाला है क्योंकि जर्मनी के रूस से गहरे व्यापारिक संबंध रहे हैं.
जर्मनी (Germany) की अपनी समस्याएं और चिंताएं हैं जिन पर अमेरिका को उसे अपने भरोसे में लेना होगा. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
प्राथमिकताओं में अंतर
रूस के साथ इसकी नॉर्ड स्ट्रीम गैस परियोजनाएं भी अमेरिका को रास नहीं आई. लेकिन हाल ही में जर्मनी की नीति में सपष्टता ने भी कुछ धागे खोलने के काम किया है. फिर भी दोनों देशों की प्राथमिकताओं में अंतर है जिसके देखभाल कर ही दोनों को कदम उठाने होंगे. जर्मनी यूक्रेन को क्षेत्रीय सुरक्षा के नजरिए से देखता है, तो वहीं लिए मामला कहीं अधिक जटिल और दूरगामी है जिसमें यूक्रेन से ज्यादा अहमियत रूस की स्थिति की है.
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जर्मनी रूस की सीधे खिलाफत के पक्ष में नहीं जाना पसंद करेगा. जर्मनी को अंतरराष्ट्रीय मंचों में खास तौर से .यूरोप की सुरक्षा सुनिश्चित करने में वास्तव में अमेरिका की जरूरत है. तो वहीं चीन के खिलाफ लामबंदी में अमेरिका के लिए जर्मनी का सहयोग अहम होगा. ऐसे में दोनों ही देशों को एक दूसरे के लिए ज्यादा नजदीक आने और उसके लिए ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे वे एक दूसरे की निर्भरता को समझ सकें और उसका सम्मान कर सकें.
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