प्रतिकात्मक तस्वीर
अमेरिका विकसित देशों की सूची में शीर्ष के देशों में गिना जाता है. विकसित होने की परिभाषाएं वर्तमान में विस्तृत हो चुकी हैं. इसमें लोगों के जीवनस्तर से लेकर नागरिक अधिकारों को भी शामिल कर लिया गया है. इस आधार पर भी लोग अक्सर अमेरिका के सुधारों और अगड़ेपन की दुहाई देते हैं. पर 2011 में आई एक डॉक्यूमेंट्री ने अमेरिका के साथ-साथ दुनिया के तमाम देशों की इस बनावटी छवि की कलई खोलकर रख दी थी.
डॉक्यूमेंट्री मिस-रिप्रजेंटेशन
डॉक्यूमेंट्री का नाम था मिस-रिप्रजेंटेशन (Miss Representation) और इसे डायरेक्ट किया था दो महिलाओं जेनिफर न्यूसम और किंबरली अक्वारो ने. इस डॉक्यूमेंट्री के जरिए निर्देशिकाओं ने बताने का प्रयास किया था कि कैसे दुनिया भर में महिलाओं का चित्रण तमाम मीडियम्स (टीवी, अखबार, वीडियो गेम्स, सिनेमा आदि-आदि) के जरिए एक सेक्स मशीन जैसी किसी वस्तु के रूप में किया जाता है, जिनमें दिमाग नदारद होता है. साथ ही शक्तिशाली महिलाओं की भी सुंदरता और पारिवारिक छवि पर ही बात की जाती है, उनके काम पर नहीं. और इस तरह का चित्रण जाहिर करता है कि यह जिनके दिमाग की उपज है वे लोग अपने आम जीवन में भी महिलाओं को कम बुद्धि की प्राणी के रूप में मानते हैं और इस वजह से महिलाओं को उनके साथी पुरुषों की तुलना में अक्सर कम तनख्वाह भी मिलती है.
महिलाएं पुरुषों से कम नहीं
हालांकि इससे उलट कुछ जुमले हमारे समाज में बहुप्रचलित हैं, जैसे दुनिया की कल्पना महिलाओं के बिना मुमकिन नहीं है. कोई उन्हें बलिदान की मूर्ति मानता है तो कोई ईश्वर का दूसरा रूप. सबकी अपनी अलग परिभाषाएं हैं. हमेशा ही ये तुलना की जाती है कि महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं या वो उनसे कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. लेकिन यह तुलना ही दिखाती है कि समाज में यह बात स्वीकृत नहीं है और प्रचार-प्रसार के जरिए इस अवधारणा को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है. महिला और पुरुष दोनों ही इस समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं यह समझने में अभी हमें वक्त लगना है.
और इसी महिमामंडन के बीच कभी महिलाओं की शारीरिक बनावट के कारण कमजोर बता पुरुषों से तुलना होती है तो कभी मानसिक आधार पर और इसके जरिए उनके जायज अधिकार छीने जाते हैं. लेकिन महिलाओं ने इस दोहरे मापदंड को समझना बहुत पहले ही शुरु कर दिया था और यूरोपियन विक्टोरियन जमाने के बाद से महिलाओं में अपनी स्थिति और अधिकारों को लेकर जागरुकता बढ़ चुकी थी. उन्हें अपनी दोयम स्थिति और उसके कारणों का एहसास हो चुका था. साथ ही उन्होंने अपने अधिकारों के लिये आवाज उठानी भी शुरू कर दी थी. वैसे महिला अधिकारों को लेकर जो शुरुआती आंदोलन हुए उनका मकसद समान वेतन, काम करने के घंटे कम करना और मतदान के अधिकार की मांग थी.
8 मार्च की तारीख ऐसे महत्वपूर्ण बन गई
सबसे पहले 8 मार्च 1857 को न्यूयॉर्क में महिलाओं ने टेक्सटाइल फैक्ट्रीज़ के खिलाफ आवाज उठाई. तब उन्होंने कम तनख्वाह और काम की शर्तों में सुधार के लिए आग्रह किया. उस समय ये आंदोलन पुलिस के अत्याचारों के चलते दबा दिया गया लेकिन दो साल बाद इसी दिन फिर से महिलाओं ने अपना एक लेबर यूनियन बनाया. आगे कुछ सालों बाद इन्हीं आंदोलनों को बाकायदा आकार मिल गया. इसके बाद 1908 में न्यूयॉर्क में 15 हज़ार महिलाओं ने प्रदर्शन कर काम के घंटे कम करने, अच्छी तनख्वाह और वोटिंग के अधिकार जैसी मांगें रखीं.
महिला दिवस की स्थापना
इसके एक साल बाद पहली बार 28 फरवरी 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका ने पूरे अमेरिका में महिला दिवस मनाया. 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल द्वारा कोपेनहेगन में महिला दिवस की स्थापना हुई. जब ये ऐलान हुआ तब दुनिया भर की महिलाओं के पंखों में जान आने लगी और उन्हें अपनी आवाज़ बुलंद करने का हौसला मिला. इसी के बाद 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में लाखों महिलाओं ने रैली निकाली. इस रैली में भी मताधिकार, सरकारी नौकरी में भेदभाव खत्म करने जैसे मुद्दों की मांग उठी.
महिलाओं को वोट के अधिकार की घोषणा
दुनिया भर में यह मांगे उठनी शुरू हो चुकी थीं इसी बीच 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरु हो गया. युद्ध के दौरान रूसी महिलाओं ने पहली बार शांति की स्थापना के लिए फ़रवरी माह के आखिरी रविवार को महिला दिवस मनाया. यूरोप भर में भी युद्ध विरोधी प्रदर्शन हुए. 1917 तक रूस के दो लाख से ज़्यादा सैनिक मारे गए, रूसी महिलाओं ने फिर 'रोटी और शांति' के लिए इस दिन हड़ताल की. हालांकि राजनेता इसके ख़िलाफ़ थे, फिर भी महिलाओं ने आंदोलन जारी रखा और महिलाओं को सफलता तब मिली जब रूस के जार को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी और सरकार को महिलाओं को वोट के अधिकार की घोषणा करनी पड़ी.
संयुक्त राष्ट्र ने लगा दी तारीख पर मुहर
1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 8 मार्च को महिला दिवस के तौर पर मनाने के निर्देश दे दिए. अब हर साल एक थीम के आधार पर महिला दिवस मनाया जाता है.
हालांकि इन सभी आंदोलनों में भारत की महिलाओं की कोई प्रत्यक्ष हिस्सेदारी नहीं रही लेकिन इन वैश्विक आंदोलनों का प्रभाव भारत भी स्पष्ट देखा जा सकता है. कभी शिक्षा के लिए तो कभी तीन तलाक के खिलाफ, कभी शौचालय निर्माण के लिए, कभी पर्दे के रिवाज़ को खत्म करने के लिए तो कभी दहेज और घरेलू हिंसा के खिलाफ वह मुखरता से अपनी आवाज़ उठाना सीख गई हैं. धीरे-धीरे समय के साथ समाज में और लोगों में बदलाव आ रहे हैं. अब दुनिया भर में 8 मार्च के महिलाओं के त्योहार के रूप में मनाया जा रहा है. भारत भी इसमें किसी भी तरह से पीछे नहीं है. देश भर में हो रहे कार्यक्रम महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में सचेत करने और किसी भी तरह के शोषण के खिलाफ मुखर होने में जरूर सहायता करेंगे.
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Tags: International Women Day, Women, Women Empowerment Department, World
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