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अरे भई, आप इंसान हैं या फेसबुक पोस्ट ?

फेसबुक की आभासी दुनिया

फेसबुक की आभासी दुनिया

ये भ्रम का बड़ा कुचक्र है, जिसमें दुनिया के वो 2.7 अरब लोग लगातार घूम रहे हैं, जो फेसबुक पर अपनी खुशियों और उपलब्धियों क ...अधिक पढ़ें

    क्या आप अपनी निजी जिंदगी में वैसे हैं, जैसे फेसबुक पर नजर आते हैं?
    चलिए, इस सवाल को कुछ अलग ढंग से फ्रेम करते हैं.
    क्या आपकी जिंदगी बिलकुल वैसी है, जैसी फेसबुक पर दिखाई देती है?

    यू-ट्यूब पर एक शॉर्ट फिल्म है- “शेमलेस.” एक लड़का है, जो दिन भर घर में बंद रहता है. कहीं आता नहीं, कहीं जाता नहीं. या तो पड़ा रहता है या लैपटॉप से चिपका रहता है. फिर एक दिन जब एक लड़की उसे उसके ही घर में कैद कर उसका फोन चेक करती है तो उसकी फेसबुक प्रोफाइल देखकर हैरान रह जाती है. “ये तुम फॉरेन कब गए? एक साल से तो मैं ही देख रही हूं, तुम हमेशा घर में रहते हो.”
    लड़का धीरे से बोलता है- “फोटोशॉप.”

    असल जिंदगी में वो घर से बाहर भी नहीं निकला, लेकिन फेसबुक पर फॉरेन घूम रहा है. उसके घर की दीवारों से प्लास्टर झर रहा है, लेकिन फेसबुक की दीवार एकदम चमकीली है. महीनों से सुबह का सूरज न देखे चेहरे पर मुर्दनी छाई है, लेकिन इंस्टाग्राम के फोटो फिल्टर में चेहरा चमक रहा है.

    नेटफ्लिक्स पर एक फ्रेंच सीरीज है. उसकी 24 साल की लड़की का दुख कुछ और ही है. उसका ब्रेकअप हो गया है. जिंदगी से बेजार वो अपना ज्यादातर समय फेसबुक और इंस्टाग्राम पर अपने दोस्तों की वॉल पर तफरीह करते बिताती है. उनकी वॉल भी बहुत हैपनिंग है. कोई एफिल टॉवर के सामने अपनी फोटो डाल रहा है तो कोई अपनी नई डेट के साथ पाउट बना रहा है. किसी ने नए रेस्त्रां में चेक इन किया है तो कोई मिस्र के पिरामिड पर बैठा है. किसी की शादी की तस्वीरें हैं तो किसी के हनीमून की. लड़की को लगता है कि पूरी दुनिया खुश है, सबके पास ब्वॉयफ्रेंड है, एक सिवा उसके.

    ये दोनों तो फिल्में थीं. लेकिन ये वाली कहानी सच्ची है. एक स्त्री अपने पति के साथ गोआ गई और फेसबुक पर ढेर सारी तस्वीरें डालीं. समंदर किनारे पति की बांह से सटकर खड़ी मुस्कुराती हुई स्त्री. ढेर सारे लोगों ने उस पर लाइक और लव का निशान बनाया. किसी ने नोटिस नहीं किया कि हर फोटो में स्त्री ने काला चश्मा पहन रखा था. सिर्फ समंदर किनारे धूप में ही नहीं, रात में, डिनर करते हुए. हर वक्त, हर जगह.
    वो मेरी दोस्त तो नहीं थी, लेकिन एक जमाने में जब मैं चौबीसों घंटा सिर्फ जेंडर पर लिखती थी तो बहुत सारी स्त्रियां मुझे दोस्त समझ अपना दिल खोल लिया करती थीं. उसकी तस्वीरों पर मेरे लाइक के जवाब में उसने इनबॉक्स में एक फोटो भेजी. फोटो उसी की थी, बस उसमें काले चश्मे की जगह बाईं आंख के नीचे एक काला निशान था. चोट का निशान. पति से झगड़ा हुआ, पति ने उसे मारा. उसने चश्मा लगाया, फोटो खिंचाई और फेसबुक पर डाल दी- “वेकेशन इन गोआ.” लोगों ने उसे लाइक किया और कहा, “आय एम जिलस ऑफ यू.”

    इसमें सच क्या था और झूठ क्या? जो लोगों ने समझा या जो उसने बताया?
    ओरहान पामुक ने अपने उपन्यास स्नो में एक जगह लिखा है, “जो दिख रहा था, वो दरअसल था नहीं. और जो नहीं था, वही सबको सच लग रहा था.”



    फेसबुक, इंस्टाग्राम और सोशल मीडिया की भी कमोबेश यही कहानी है. ये स्मार्ट फोन, जिसके बारे में एडिनबर्ग बिजनेस स्कूल की एक स्टडी कहती है कि ये हमारे इगो और सेल्फ का नया एक्सटेंडेड वर्जन है यानी आपके आत्म का विस्तार. आपका ही एक हिस्सा, जैसे हार्ट, किडनी, आंखें और कान. तो आपके आत्म का ये नया वर्जन आपके बारे में लगातार झूठ बोल रहा है और दूसरों के वैसे ही झूठ को सच मान रहा है. लोग फेसबुक पर वो दिखा रहे हैं, जो है ही नहीं. जब वो सबसे ज्यादा उदास हैं तो फेसबुक पर सबसे सुंदर तस्वीर डालकर लिख रहे हैं, “फीलिंग ऑसम.” चार लोगों ने आकर इस ऑसम महसूस करने पर बधाई भी दे दी है. यहां जो दिख रहा है, वो आपकी एक गढ़ी हुई छवि है. वो आप नहीं. आपकी खुशी, दुख, कुछ भी सच्चा नहीं.

    और जो सच नहीं है, वो अवसाद पैदा कर रहा है. न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन कहता है कि सोशल मीडिया से लोगों में अकेलापन और ईर्ष्या की भावना बढ़ी है. अपनी निजी जिंदगियों में अकेले और परेशान लोगों को लगता है कि बाकी दुनिया बहुत खुश है क्योंकि उनकी वॉल खुशमिजाज तस्वीरों और एडवेंचर से भरी है. हालांकि ऐसी ही खुशहाल वॉल उनकी भी है, जो असल में खुश नहीं हैं. और उन नाखुश लोगों की वर्चुअल खुशी बाकी लोगों में भी वही अकेलापन और ईर्ष्या पैदा कर रही है.

    ये भ्रम का बड़ा कुचक्र है, जिसमें दुनिया के वो 2.7 अरब लोग लगातार घूम रहे हैं, जो फेसबुक पर अपनी खुशियों और उपलब्धियों के पोस्टर बने हुए हैं. जरनल ऑफ सोशल एंड क्लिनिकल साइकॉलजी की मानें तो ये नया मिलेनियल टर्म ‘फोमो’ यानी ‘फिअर ऑफ मिसिंग आउट’ एकदम रीअल है और इसकी सबसे बड़ी वजह है वो वर्चुअल प्रोजेक्शन, जो सच नहीं है.

    फेसबुक को आए अभी 15 साल भी नहीं हुए हैं और पूरी दुनिया में वैज्ञानिकों की रुचि अब ये जानने में है कि अगर हम अपने फोन से फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर को डिलिट कर दें तो हमारे दिमाग का क्या होगा. डेनमार्क में कुछ रिसर्चर्स ने 1200 लोगों पर 30 दिन तक ये प्रयोग करके देखा. सिर्फ 30 दिन में उन 1200 लोगों का स्ट्रेस लेवल कम हुआ था. वो ज्यादा खुश, ज्यादा प्रोडक्टिव और ज्यादा क्रिएटिव थे. स्कैनिंग मशीन ने दिखाया कि दिमाग की नसें आराम पाकर फैल रही थीं, धमनियों में रक्त का बहना भी तेज हुआ था, आंखें मोबाइल स्क्रीन से निजात पाकर खुश थीं. ये चौंकाने वाले नतीजे सिर्फ एक महीने के थे. अब उन रिसर्चर्स को जरूरत है, कुछ ऐसे वॉलेंटियर्स की, जो एक साल के लिए अपना सोशल मीडिया एकाउंट डिलिट करने को तैयार हों. फिलहाल वो इंतजार ही कर रहे हैं कि कोई इस बलिदान के लिए हामी भरे.



    पांच साल पहले मैं केरल में एक जर्मन कपल से मिली थी. वो जर्मनी से इतनी दूर घूमने इंडिया आए थे, लेकिन हर वक्त अपने फोन पर ही रहते थे. वो साथ मुस्कुराते भी सेल्फी खींचने के लिए ही थे और सेल्फी पूरी होते ही तुरंत अपने फोन में लौट जाते. उसकी वाइफ हर वक्त हर छोटी-छोटी चीज की फोटो खींचती रहती थी. खाने की, बीयर की, कुत्ते की, सड़क पर चड्ढी में घूम रहे बच्चों की. तब मुझे नहीं पता था कि ये इंस्टाग्राम किस चिड़िया का नाम है, जिसके लिए ये सारी कवायद थी. वो खुद इंडिया घूमने से ज्यादा दूर जर्मनी में बैठे अपने फॉलोवर्स को इंडिया दिखा रही थी. एक और इस्राइली जोड़ा था. उनके पास एक काले और नीले रंग का फोन था, जिसकी बैटरी एक हफ्ते चलती थी और जिससे हाई रेजोल्यूशन तो छोड़ो, पुराने जमाने की ब्लैक एंड व्हाइट टाइप की काली धुंधली तस्वीर भी नहीं खिंच सकती थी. दोनों अवांगार्द थे, खुश थे, लेकिन उस खुशी को किसी डिजिटल दुनिया की फाइल में दर्ज करते नहीं चल रहे थे. खुशी एक ही हार्डडिस्क में स्टोर हो रही थी, उनकी स्मृतियों में.

    सीएनबीसी, अमेरिका की एक रिपोर्टर क्रिस्टिना फार एक बार अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ तुर्की के एक छोटे से आइलैंड पर छुट्टियां मनाने गईं. वो जगह सनसेट के लिए विख्यात है. अपनी एक स्टोरी में वो कहती हैं कि सनसेट से ठीक पहले वो जगह लोगों से खचाखच भरी थी. हर किसी को इंतजार था सूरज के डूबने का. मुझे याद है कि जब वो जादुई लम्हा घट रहा था तो कोई समंदर के बीच डूबते सूरज को नहीं देख रहा था. हर किसी के हाथ में एक स्मार्ट फोन था और सब उस डूबते सूरज के बैकग्राउंड में अपनी सेल्फी खींचने में व्यस्त थे. सूरज डूबते ही सन्नाटा हो गया. हम दोनों अकेले रह गए.

    लोग कहते हैं कि मोबाइल ने सारे फोन नंबर नोट कर लिए तो याद रखने से छुटकारा मिला. मैप रास्ते बताने लगा तो रास्ते याद करने की जरूरत नहीं रही कि वो गुलमोहर के पेड़ से बाएं मुड़ने पर दोस्त का घर आता था. इसी तरह हमने अपने सारी खुशी, हर नया अनुभव खुद जीने के बजाय कहीं क्लाउड्स में सेव करके रख दिया.

    मीरा नायर की फिल्‍म नेमसेक का पोस्‍टर
    मीरा नायर की फिल्‍म नेमसेक का पोस्‍टर


    मीरा नायर की फिल्म ‘नेमसेक’ के एक दृश्य में पिता अपने चार साल के बेटे को लेकर समंदर किनारे जाता है. वो पानी के बीचोंबीच पड़े पत्थरों पर चलकर दूर तक जाते हैं. वहां पहुंचकर याद आता है, अरे कैमरा तो लाए ही नहीं. अब इस क्षण की तस्वीर कैसे लेंगे. पिता झुकता है, घुटनों के बल बैठता है और बेटे को अपनी बांहों में भरकर कहता है, “इस क्षण की कोई तस्वीर नहीं है. तुम इसे अपने मन में याद रखना.”
    छोटा बच्चा पूछता है, “कब तक?”
    पिता कहता है, “हमेशा. तुम याद रखना कि हम दोनों कभी साथ यहां आए थे. इतनी दूर कि जिसके बाद रास्ता खत्म हो गया था.”

    25 साल बाद बेटा उस दृश्य को अपने मन में याद कर रहा है, जिसकी कोई तस्वीर नहीं थी.

    आपको याद है, अपने जीवन के वो सबसे गहरे, सबसे सच्चे, सबसे सघन पल. क्या उस पल की कोई तस्वीर है आपके पास?

    शायद नहीं, क्योंकि उस पल को आप जी रहे थे. फेसबुक की आभासी दुनिया में दिखाने के लिए कैमरे में कैद नहीं कर रहे थे.

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