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धर्मवीर भारती पुण्यतिथि: हिंदी पट्टी के लोगों को कट्टर, असहिष्णु और पिछड़ा कहना कितना सही?

हिंदी क्षेत्र से आने वालों को 'काऊ बेल्ट' की संज्ञा दी जाती थी. इसका धर्मवीर भारती ने ना केवल विरोध किया, बल्कि जवाब में ऐसे लोगों को 'कांव-कांव बेल्ट' की संज्ञा दी.

हिंदी क्षेत्र से आने वालों को 'काऊ बेल्ट' की संज्ञा दी जाती थी. इसका धर्मवीर भारती ने ना केवल विरोध किया, बल्कि जवाब में ऐसे लोगों को 'कांव-कांव बेल्ट' की संज्ञा दी.

हिंदी क्षेत्र से आने वालों को 'काऊ बेल्ट' की संज्ञा दी जाती थी. इसका धर्मवीर भारती ने ना केवल विरोध किया, बल्कि जवाब मे ...अधिक पढ़ें

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    हिंदी लेखन को समर्पित धर्मवीर भारती ना केवल कालजयी रचनाएं की, बल्कि सही मायनों में हिंदी की सेवा भी की. हिंदी क्षेत्र से आने वालों को 'काऊ बेल्ट' की संज्ञा दी जाती थी. इसका धर्मवीर भारती ने ना केवल विरोध किया, बल्कि जवाब में ऐसे लोगों को 'कांव-कांव बेल्ट' की संज्ञा दी. वाणी प्रकाशन की किताब 'धर्मवीर भारती ग्रंथावली' में छपे उनके इस लेख के अंश हम आपके लिए लेकर आए हैं.

    हिंदी-भाषी प्रदेश, यानी राजनीतिक भाषा में हिंदी पट्टी, यानी स्नाब अंग्रेजीपरस्त अफसरों और पत्रकारों की भाषा में 'काऊ बेल्ट', यानी अशिक्षा, निर्धनता, पिछड़ेपन, जातिवादी और संप्रदायवादी कट्टरता में निमग्न अंधकार भरी पट्टी - देश की प्रगति और आधुनिकीकरण में सबसे बड़ा अवरोध; उपहास, उपेक्षा और अवमानना का पात्र. पर अजीब बात यह है कि इन तमाम लांछनों के बावजूद यही पट्टी है जहां से एक के बाद एक प्रधानमंत्री निकलते चले जाते हैं, बड़े प्रशासक, योजना-विधायक, पक्ष और विपक्ष के बड़े-बड़े राजनेता, बड़े पत्रकार, बड़े शिक्षाशास्त्री, बड़े उद्योगपति और बड़े अभिनेता. मानो यह अंधियारी पट्टी रत्नों की खान है. विचित्र विडंबना यह है कि जो इस पट्टी को आलस्य, जड़ता, पिछड़ेपन और सांप्रदायिक कट्टरता का प्रतीक मानते हुए इसकी हंसी उड़ाते हैं वे या तो इसी पट्टी से निकल कर आए हैं या अपने अस्तित्व के लिए इसी पट्टी के समर्थन पर पूरी तरह निर्भर होते हैं.

    क्या सचमुच हिंदीभाषी लोगों की मानसिकता में बुनियादी तौर पर कुछ ऐसा है जो उन्हें जाति और धर्म के स्तर पर कट्टर, असहिष्णु और पिछड़ा हुआ बनाता है, क्या वे मूलतः अकर्मण्य और आलसी हैं! आखिर उनका असली चेहरा क्या है? बाकी आरोपों पर फिर कभी बात करेंगे, आइए इस बार उनकी असहिष्णुता और धार्मिक कट्टरपन की जांच करें, जरा बारीकी से गहरे उतरकर.

    'जिस चीज को हम बहुत नजदीक से देखते रहे हैं, अक्सर उसके बारे में हमारा परिप्रेक्ष्य बहुत सीमित हो जाता है. फिर जरूरत होती है काफी दूर से जाकर उसे देखने की ताकि उसे, उसके समूचे परिवेश को विस्तृत संदर्भों में पहचाना जा सके. तभी न मौसम की सही जानकारी के लिए धरती से सैकड़ों मील ऊपर उड़ते हुए उपग्रह के कैमरे से देखना पड़ता है. इसलिए आइए आपको हिंदी प्रदेश से हजारों मील दूर ले चलते हैं.

    हिंदी प्रदेश से हजारों मील दूर, थाइलैंड की राजधानी बैंकाक. इतने दिनों से देश के बाहर चक्कर काट रहा हूं कि देश की ऋतुओं और तिथियों का कोई अंदाज ही नहीं रहा. हवाई अड्डे से होटल बहुत दूर है और होटल पहुंचने के पहले ही बीच में रुक कर एक मेले में जाना है. मेला काहे का? कुश्ती का. मैं हक्का-बक्का हूं कि यह कैसा होगा और कुश्ती से मेरा क्या ताल्लुक? तीन ओर मकानों से घिरे एक खुशनुमा मैदान में हजारों भारतीयों की भीड़. बीच-बीच में छह-सात अखाड़े खुदे हुए हैं. पहलवान अपनी मंडलियों के साथ 'बजरंगबली की जय' बोलते चले जा रहे हैं. मेजबान मुझको आश्चर्य-चकित देख कर मुस्कुराते हैं और फिर आहिस्ते से समझाते हैं - 'आप बंबई में रहते हैं न, भूल गए होंगे कि आज नाग पंचमी है. हम लोग सौ साल से यहां हैं, पर अपने त्योहार नहीं भूले. नाग पंचमी को हम लोगों ने युवा-दिवस बना लिया है. उसी तरह अखाड़े खुदते हैं जैसे यू.पी., बिहार में. आज की कुश्ती के चैंपियन को पुरस्कार आपके हाथ से दिलाएंगे. 'नाग पंचमी की पुरस्कार विजेता थी लछमन अखाड़े की युवा जोड़ी इसाक गफूर और राघव मिसरा.

    ये थे 'काऊ बेल्ट' से जा कर बैंकाक में बसे हुए प्रवासी भारतीय. इनमें साधारण दरबान और चौकीदारों से ले कर लखपति, करोड़पति लोग थे. मालूम हुआ कि बैंकाक का सारा लकड़ी का व्यापार, इमारती सामान की तिजारत, मकान बनाने का उद्योग, मशीनों और फैक्टरियों को संचालित करने का उद्यम, कपड़े की आढ़तें - सब भारतीयों के हाथ में हैं और इन सभी भारतीयों में नब्बे प्रतिशत यू.पी., बिहार के लोग हैं, पिछड़ी हुई हिंदी पट्टी के. अशिक्षाग्रस्त काऊ बेल्ट के.

    शाम को डिनर रखा गया था अब्दुल रज्जाक साहब के घर पर. वे बैंकाक में इमारती लकड़ी के सबसे बड़े व्यापारी हैं थाईलैंड के मिनिस्टरों और सेना-पतियों के हमप्याला, हमनेवाला. हज कमेटी के सर्वेसर्वा, मलेशिया और थाईलैंड के इस्लामिक कल्चर फेडरेशन के चैयरमैन - पर आज भी दिल उनका यू.पी. में रमा हुआ है. यू.पी. से कोई मेहमान आए, पहली शाम का डिनर उन्हीं के यहां होना जरूरी है. पता नहीं कैसे उन्हें मालूम हो गया था कि मैं आया बंबई से हूं, पर हूं मूलतः यू.पी. का.

    रज्जाक साहब तपाक से गले मिले. बैंकाक के भारतीयों की समस्याएँ बतलाते रहे. भारत का हालचाल पूछते रहे. फिर बोले खाना मेज पर लगा है. पर दो मिनट ठहर जाइए. मेरा एक दोस्त आपसे मिलने आया है खास तौर से. हाथ मुंह धोने गया है. कौन है यह दोस्त?

    दो-तीन मिनट बाद बाथरूम का दरवाजा खुला और उसमें से जो लंबे से अधेड़ साहब निकले उनका हुलिया साक्षात 'काऊ बेल्टी' था. धोती का फेंटा कसते हुए, भीगे जनेऊ से पानी सूंघते हुए, लंबी चोटी को फटकार कर गांठ बांधते हुए उन्होंने नम्रता से नमस्कार किया. मालूम हुआ, ये हैं रामभरोसे पंडित. बैंकाक के हिंदू सेवा-दल के अध्यक्ष. भारत प्रवासी ट्रस्ट के प्रमुख ट्रस्टी, विश्व हिंदू परिषद के स्थानीय महामंत्री. शिखा बांध कर, बदन पर एक फतूही डाल कर जब वे खाने की मेज पर बैठे तो पता चला कि रज्जाक और रामभरोसे की जिगरी दोस्ती पूरे देश में मशहूर है. आंधी हो, पानी हो, हफ्ते में कम-से-कम दो दिन दोनों साथ डिनर लेते हैं, कभी रज्जाक साहब के यहां, कभी रामभरोसे पंडित के यहां.

    रज्जाक साहब प्रेम से रामभरोसे को टांग खिचाई कर रहे थे - 'साहब यह हिंदू सभा का नेता है पर महीनों तक जनेऊ नहीं बदलता. बार-बार मुझे याद दिलानी पड़ती है. परले सिरे का कंजूस है.' रामभरोसे कहाँ पीछे रहनेवाले, बोले - 'साहब, इसकी बातों में न आइएगा. इसका कोई दीन ईमान है! मस्जिद के मकतबे में जंगली लकड़ी की शहतीर लगवा रहा था. मैं आ कर बिगड़ा तो इसने साखू की लकड़ी लगवाई. अरे धरम के काम से तो मुनाफा न कमा.'

    बहरहाल खाना शुरू होता है तो यह भेद खुलता है कि हफ्ते में दोनों दो बार साथ खाना खाते हैं, वह इसलिए कि अपनी-अपनी संस्थाओं की समस्याओं के बारे में एक दूसरे की सलाह जरूरी होती है. रज्जाक साहब हिसाब-किताब कानून-आईन में पक्के हैं और रामभरोसे पंडित को संस्था संचालन... लोकप्रियता के हथकंडे और तिकड़में खूब आती हैं. रामभरोसे के हिंदू सेवा दल वगैरह का हिसाब-किताब रज्जाक साहब के जांचे बिना पूरा नहीं होता और रज्जाक साहब की संस्थाओं में कोई झगड़ा-झंझट उठ खड़ा होता है तो रामभरोसे की सूझबूझ काम में आती है. पिछ्ले साल हज जानेवाले यात्रियों से मलायी और चीनी कुलियों से कुछ झंझट हो गया और मामला जरा तूल पकड़ने लगा. रज्जाक साहब ने संदेशा भेजा. रामभरोसे दौड़े हुए आए और डाँट-फटकार मानमुहार कर आधे घंटे में मामला रफा-दफा कर दिया. एक बार बैंकाक के कलेक्टर ने जमीन का कोई पुराना कानून लागू कर नाग पंचमी के मेले पर बंदिश लगा दी और पिछले दस साल का हर्जाना लाखों में माँग लिया. रज्जाक साहब पहुँच गए दो वकील ले कर. कानून पर बहस की, हर्जाने की रकम कम कराई और नाग पंचमी के मेले की लिखित अनुमति लेकर डेढ़ घंटे में पहुँच
    गए. अखाड़े चालू करवा दिए.

    ये किस्से सुन कर जब जब मैंने रज्जाक साहब से कहा कि 'खूब है आप लोगों की दोस्ती!' तो रामभरोसे बोले - 'काहे को दोस्ती डाक्टर भारती साहेब, असल में हम आजमगढ़ के हैं, इहौ सारू आजमगढ़ का है. एक माई का दुई बेटवा समझौ. ई बात जुदा है कि हम लायक बेटवा हैं, ई जरा नालायक निकल गवा. मुला धन दौलत एही कमाता है. बात ई है कि लक्षमी मैया तो उल्लुऐ पर बैठती है न...' और रज्जाक साहब का एक घूसा रामभरोसे की पीठ पर पड़ा - 'अबे देवी देवताओं की तो इज्जत रख हंसी मजाक में उन्हें भी घसीटता है. जाने इसे हिंदू सभा को सेक्रेटरी किसने बना दिया?

    अपने-अपने धर्म पर अखंड आस्था. दूसरे धर्म के प्रति गहरा निश्छल आदर और जात-पात सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर पूरी भारतीय जाति को अपना समझनेवाले ये रज्जाक और रामभरोसे के चेहरे मेरे जहन में गहरे दर्ज हैं, क्योंकि हिंदी पट्टी का, हम हिंदीभाषियों का यही असली चेहरा है.

    आज जब मुरादाबाद, मेरठ, इलाहाबाद या बिहार में कहीं भी सांप्रदायिक तनाव की खबर पड़ता हूं तो बड़ी शिद्दत से याद आते हैं ये दोनों चेहरे. उदास हो कर सोचता हूं कि कहाँ खोता जा रहा है हमारा असली चेहरा? ये नफरत के मुखौटे किसने लगा दिए हैं हमारे चेहरों पर? किसने हमारे होंठो पर चिपका दिए हैं, ये ललकार भरे नारे? नहीं दोस्तो, यह जहर हमारी हिंदी पट्टी का नहीं, यह तो कोई साजिश कर रहा है चुपचाप. हमारा तो असली चेहरा वही है जिसका मजहब कोई हो, जिसका असली धर्म प्यार है, निश्छल प्यार, उदारता, दिली भाईचारा.

    और यह चेहरा आज का नहीं है. इसके पीछे हिंदी पट्टी का पिछले चार सौ बरसों का शानदार इतिहास है. इन चेहरों के पीछे अवध के कला-रसिक वीर नवाब वाजिद अलीशाह का चेहरा है जिसने वृंदावन में भगवान कृष्ण के वसंत श्रृंगार के लिए लाखों की न्योछावर भेजी थी और आज तक जिसके नाम से वसंती कमरा मंदिर में सुरक्षित है. इसके पीछे नवाब के विश्वस्त हिंदू खजांची ललित किशोर शाह का चेहरा है जो करोड़ों का खजाना त्याग कर वृंदावन में फकीर हो कर रहे, पर अंग्रेज की अदालत में जा कर नवाब के खिलाफ गवाही देना कबूल नहीं किया. इस चेहरे के पीछे अब्दुर्रहीम खान-खाना का चेहरा है जो दिल्ली दरबार से प्रताड़ित हो कर जब चित्रकूट पहुँचे तब राम वनवास को याद करके उन्होंने लिखा - चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस / जापर विपदा परत है सो आवत यहि देस. इसके पीछे मालवा की महारानी अहल्याबाई का चेहरा है जो पेशवाओं के उत्पीड़न से बचाने के लिए हजारों मुस्लिम जुलाहों के परिवारों को
    माहेश्वर लाई, उनके लिए मस्जिदें बनवाई, उनकी बुनी साड़ियों के लिए बाजार खुलवाए, उनकी बेटियों की शादियाँ करवाईं. इसके पीछे बुंदेलखंड की महारानी लक्ष्मीबाई का चेहरा है जिन्होंने अपने तोपची पठान गौस खाँ को अपने बेटे से बढ़ कर माना.

    इस तथाकथित धर्मांध काऊ बेल्ट में धर्म-निरपेक्ष न्याय की ऐसी परंपरा थी कि हनुमानगढ़ी पर जब काजियों और मुल्लाओं ने जबर्दस्ती कब्जा कर लिया तब अवध के मुस्लिम नवाब ने अपनी सेनाएँ भेजी कि हनुमानगढ़ी को मुल्लाओं से मुक्त करा कर हिंदू बैरागियों को सौंप दिया जाए. इस परंपरा के पीछे इस प्रदेश के महाकवियों की वाणी है. रामायण के अमर गायक तुलसीदास, जिन्होंने काशी के कुछ कट्टर पंडितों की निंदा-आलोचना से क्षुब्ध हो कर लिखा था - धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहो जुलहा कहौ कऊ, माँग के खाइबौ, मसीत को सोइबौ, लैबै को एक न देबै की दोऊ.' (मुझे कोई कुछ भी कहे, मुझे क्या करना, माँग कर खाऊंगा, मस्जिद में जा कर सो रहूंगा, न किसी के लेने में न किसी के देने में.) मस्जिद पराई नहीं थी तुलसीदास के लिए. और न मुस्लिम होने की बिना पर अलाउद्दीन अपना था मलिक मुहम्मद जायसी के लिए. अपनी 'पदमावत' में चित्तौड़ पर हमला करनेवाले मुस्लिम सुल्तान अलाउद्दीन को जायसी ने
    'अलादीन सैतानू' घोषित किया, उसे शैतान की संज्ञा दी. इस प्रदेश के सूफियों, संतों और फकीरों ने बार-बार कहा कि राम और रहीम के बंदों में कोई फर्क नहीं, वे मन-प्राण से एक हैं और संतों, सूफियों के साथ गुरुओं ने यही उपदेश दिया. गुरू गोविंदसिंह ने स्पष्ट कहा - मानुस की जात सबै एकै पहिचानिबो.

    आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक रहे धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर 1926 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था. वे अपने समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे. डॉ धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. इन्होंने 4 सितम्बर 1997 को मुंबई में अंतिम सांस ली थी.

    (यह अंश वाणी प्रकाशन की पुस्तक 'धर्मवीर भारती ग्रंथावली' से लिया गया है. छापने से पहले प्रकाशक से अनुमति ली गई है.)

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