ये 2015 की बात है. एक स्टोरी के सिलसिले में फैशन डिजाइनर सब्यसाची से मिलने का मौका हुआ. फोन पर दो बार बात हुई और उन्होंने सीधे अगले दिन सुबह अपने स्टोर में बुला लिया. साउथ मुंबई के काला घोड़ा में तकरीबन सात विशालकाय कमरों और कई लंबे गलियारों वाला सब्यसाची का वो स्टोर था. बाहर दिन चढ़ आया था. तेज धूप थी. जैसे ही मैं पुराने राजमहलों जैसे दिखने वाले उस भूरे रंग के लहीम-शहीम नक्काशीदार दरवाजे के भीतर दाखिल हुई, लगा किसी अंधेरी गुफा में आ गई हूं. भीतर कुछ नजर नहीं आ रहा था. बाहर धूप से चौंधियाई मेरी आंखें स्टोर की बेहद मद्धम रौशनी में और सिकुड़ सी गई थीं. कुछ मिनट लगे सबकुछ ठीक से दिखाई देने में और ये समझ में आने में कि मैं कहां आ गई हूं.
एक गलियारे से शुरू हुआ रास्ता उन सीढि़यों तक जाता था, जहां नीचे शादी के लहंगों वाला हॉल था. हॉल में बीसियों बल्ब जल रहे थे. सबकुछ एक मदहोश कर देने वाली खुशबू और चमक से गुलजार था. मैंने ऐसे खूबसूरत, चमकदार कपड़े अब तक सिर्फ फिल्मों में ही देखे थे और अपनी सहेलियों को उन लहंगों की तस्वीरें अपने बेडरूम में लगाते. एक सहेली का सपना था कि वो अपनी शादी में ठीक वैसा ही लहंगा पहनेगी जो करीना कपूर ने ‘कभी खुशी, कभी गम’ में पहना था. मेरे शहर के बाजार में उन हीरोइनों के लहंगों की सस्ती नकलें बिका करती थीं.
वहां मैंने सब्यसाची को पहली बार देखा. सफेद रंग की शर्ट और नीली जींस में बेहद साधारण सा दिखता वो शख्स होने वाली दुल्हन से बात कर रहा था. दुल्हन रो रही थी. एक हैंडसम सा लड़का, जो शायद उसका मंगेतर था, उसके कंधे पर हाथ रखे और बिलकुल भावहीन चेहरा लिए बगल में खड़ा था. सब्यसाची उस लड़की को समझा रहे थे कि कैसे वो ठीक वैसा ही लहंगा बना देंगे, जो उसे चाहिए. लड़की की रोने की वजह ये थी कि जामुनी रंग का जो लहंगा बनकर आया था, वो उसके सपनों वाले लहंगे से मेल नहीं खाता था. उसमें बहुत सारी कमियां रह गई थीं. लड़की ये नहीं कह रही थी कि इसमें क्या-क्या ठीक कर दो या बदल दो. लड़की ऐसे फफक-फफक कर रो रही थी जैसे घर में कोई मर गया हो. और सब्यसाची, उफ् उनका वो धैर्य. वो बार-बार अलग-अलग तरीकों से बड़ी नफीस अंग्रेजी में एक ही बात कहते रहे कि अपनी शादी के दिन वो दुनिया की सबसे खूबसूरत दुल्हन लगेगी.
मैं वहां एक कोने में खड़ी ये सारा तमाशा देख रही थी. जब काफी देर बाद वो उस दुल्हन से मुक्त हुए तो हमारी बातचीत की बारी आई. मुझे एक लंबी प्रोफाइल लिखनी थी तो मैंने बचपन, स्कूल, जवानी, मुहब्बत, घर-परिवार, दुख-सुख से लेकर हर तरह का सवाल पूछा. बीच में हंसकर वो इतना ही बोले कि आपको स्टोरी लिखनी है या किताब. मैं तकरीबन तीन घंटे उस स्टोर में उनके साथ रही. इस दौरान वो बीच-बीच में काम करते हुए सवालों के जवाब देते रहे.

जब दिल्ली वापस लौटकर मैं वो स्टोरी लिख रही थी तो एक जगह मैंने उन्हें कोट करते हुए लिखा, “सोचो तो इतने महंगे कपड़ों की क्या जरूरत है. जो भी कपड़ों पर इतने पैसे खर्च कर रहा है, वो भीतर से बहुत खाली है. कोई तो कमी है, जिसे वो महंगे डिजाइनर कपड़ों से पूरा करना चाहता है. कोई अंधेरा, जिसे वो फैशन और मेकअप की चमक में छिपाना चाहता है. जब आप अपने साथ सहज होते हैं, अपने आप में खुश और संपूर्ण तो आपको पांच लाख की साड़ी की कोई जरूरत नहीं.”
शाम को एडीटर ने मुझे बुलाकर पूछा, ये तुम क्या लिख रही हो. ये तो उनके खुद के बिजनेस के ही खिलाफ बात हो गई. मैंने कहा, मैंने अपने मन से कुछ नहीं लिखा. मेरे पास रिकॉर्डिंग है. उन्होंने जैसा कहा, वैसा लिख दिया. फिलहाल थोड़ी सी एडिटिंग के साथ वो बात वैसे ही छपी.
सब्यसाची ने ये बात उस सवाल के जवाब में कही थी, जो मैंने उस रोती हुई दुल्हन के बारे में पूछा था. वो जब इस पर बोलने को आए तो काफी देर बोले. बीच-बीच में कुछ बातों के लिए ये भी कहा, “नॉट टू बी कोटेड.” मैंने पूछा, “लेकिन आप खुद पांच लाख की साड़ी बेच रहे हैं?” जवाब था, “क्योंकि खरीदने वाले हैं. कुछ लोगों के पास है अकूत पैसा. मैं नहीं होऊंगा तो कोई और होगा. लेकिन पांच लाख की साड़ी का बाजार तो नहीं खत्म होने वाला.”
मुझे ये बात काफी ईमानदार सी लगी. हम जो भी कर रहे हैं, बहुत सारी वजहों से कर रहे हैं. इसका मतलब ये नहीं कि हम अपने किए को हमेशा महानता का मुलम्मा चढ़ाकर ही पेश करें. जैसे जर्नलिस्ट होने का मतलब अपने पेशे को महान बताना नहीं है. हम जानते हैं, हममें कितने छेद हैं.

सब्यसाची मुखर्जी की इंस्टाग्राम पोस्ट
फिलहाल मैंने ये इतनी लंबी कहानी क्यों सुनाई? क्योंकि सब्यसाची को लेकर इंटरनेट पर एक बार फिर बवाल मचा हुआ है. उन्होंने अपने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट डाली थी, जो बहुत सी औरतों को नागवार गुजरी. उन्होंने इंटरनेट पर ही डिजाइनर की बखिया उधेड़ दी. उन्हें इतना ट्रोल किया गया कि आखिरकार उन्हें माफी मांगनी पड़ी. सब्यसाची ने लिखा था,
"अगर आप किसी महिला को ‘महंगे कपड़ों’ में देखते हैं, जिस पर मेकअप की परत चढ़ी है, जो गहनों से लदी-फंदी है तो बहुत संभावना है कि वो भीतर से चोट खाई है. अपने भीतर लहूलुहान है. वो अपने गौरव और गरिमा का परचम उठाए दुनिया के लिए मुस्कुरा रही है, जबकि उसके भीतर कहीं गहरे में बहुत अंधेरा है. वो अपनी पीड़ा को छिपा रही है. थोड़ा वक्त निकालकर उसके साथ बैठिए, अपनी संवेदना से उसकी पीड़ा को भरने में मदद करिए क्योंकि एक मनुष्य से मिलने वाली मानवीय ऊष्मा का कोई जोड़ नहीं. उसकी जगह कोई नहीं ले सकता, महंगे से महंगा आभूषण भी नहीं.”
ये लिखने के लिए सब्यसाची मुखर्जी को माफी मांगनी पड़ी? क्या सचमुच?
यही बात तो उन्होंने चार पहले उस इंटरव्यू में भी कही थी. इसमें ऐसा क्या था जो औरतों को इस पर आपत्ति हो गई? इसमें मर्दवाद की बू कहां से आई? क्योंकि जो बात वो कह रहे थे, वो सच थी, वो सही थी, सही ढंग से कही गई थी, उसमें न पूर्वाग्रह था, न मर्दानगी.
औरतें अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए जो कह रही हैं, वो कुछ यूं है-
1- औरतें कब, क्या, कैसे पहनेंगी, कैसे मेकअप करेंगी, कैसे सजेंगी, कितने गहने पहनेंगी, ये सिर्फ और सिर्फ औरतें तय करेंगी. सब्यसाची कौन होते हैं महंगे कपड़े और आभूषण पहनने वाली औरतों पर अपनी राय देने वाले.
2- वो एक मर्द हैं. वो क्या जानें, औरतों का संघर्ष और उनके मन की पीड़ा. औरतों को मर्दों की संवेदनशीलता की जरूरत नहीं.
3- खुद जो काम कर रहे हैं, उसी के खिलाफ बोल रहे हैं. ये किस तरह का दोगलापन है.
औरतों की टिप्पणियों की फेहरिस्त लंबी है. बाकी की उनकी इंस्टा वॉल पर पढ़ी जा सकती हैं.

सब्यसाची मुखर्जी का माफीनामा
अगर हम थोड़ा भी विवेक से सोचें कि औरतों ने जिन-जिन बातों पर आपत्ति की है, वो बातें क्या सचमुच उस पोस्ट में कही गई थीं? क्या सब्यसाची के कहने का वही अर्थ था, जो निकाला गया? क्या इस तरह बोलकर, बिना विचारे, बिना गहराई में उतरे, बिना बातों की जटिलता और उनके गहरे निहितार्थों को पकड़े जब फेमिनिज्म के नाम पर हम कुछ भी बोलते जाते हैं तो क्या अपने ही पक्ष, अपनी ही लड़ाई को कमजोर नहीं कर रहे होते. सजना-संवरना, सुंदर दिखना एक बात है, लेकिन उसे लेकर ऑब्सेस्ड हो जाना दूसरी. सब्यसाची उन औरतों की बात कर रहे थे, जिनके जीवन का केंद्र ही सुंदरता है. उनका समूचा अस्तित्व ही इस पर टिका है. जिसे रौशनी सिर्फ कपड़ों और गहनों में दिख रही है, उसके भीतर सचमुच बहुत अंधेरा होगा.
और सच तो ये भी है कि औरतों को हर वक्त जज किया जाता है, हर व्यक्ति उनके बारे में न सिर्फ ओपिनियन रखता है, बल्कि बेधड़क उसको जाहिर करना भी अपना हक समझता है. ये सच है कि औरतों की आवाज बहुत दबाई गई, उनका बोलना एक नई बात है, वो बोलने पर आई हैं तो बेलगाम भी बोल रही हैं. ये सच है कि वो गुस्से में हैं और उनका गुस्सा जायज है.
लेकिन गुस्सा जायज हो तो मूर्खता भी जायज नहीं हो जाती. अविवेक का, असंतुलन का, एकतरफा राय और रिएक्शन का जवाब औरत होने की ऐतिहासिक तकलीफें नहीं हैं. ऐसे खारिज करने लगे तो अन्ना कारेनिना के लेखक से लेकर मैडम बॉवेरी की कहानी सुनाने वाले गुस्ताव फ्लाबेयर को भी खारिज करना पड़ेगा और उस लेखक को भी, जिसने मर्लिन मुनरो पर वो बेहद मार्मिक कविता लिखी थी.
सब्यसाची ने उस दिन जो इंटरव्यू में कहा था और जो अपनी वॉल पर लिखा, वो एक गहरी बात थी. औरतों को अगर सचमुच उस बात की तह में जाना है तो फेमिनिस्ट आर्टिकल नहीं, एक लंबी कहानी और नॉवेल लिखना होगा.
जिंदगी के, मनुष्य होने के कुछ दुख, कुछ अंधेरे ऐसे होते हैं कि थियरी और ओपिनियन पीस में नहीं समझाए जा सकते.
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FIRST PUBLISHED : July 08, 2019, 12:27 IST