Human Story: लोग पूछते हैं पैर नहीं, दूसरों का सहारा कैसे बनती हैं? मैंने कहा, तुम्हें किसने रोका है
वो रात मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. उस वक्त मैं सिर्फ ढाई साल की थी. बारिश में डांस कर रही थी. नाचते- नाचते अचानक मैं गिर पड़ी और उसके बाद आज तक कभी मैं खड़ी नहीं हो पाई.
मुझे वो रात आज भी अच्छी तरह याद है. उस वक्त मैं सिर्फ ढाई साल की थी. सितंबर का महीना था. हल्की बारिश हो रही थी. मैं बारिश में डांस कर रही थी. अचानक नाचते- नाचते अचानक गिर पड़ी. लाख जतन के बावजूद जब उठ नहीं पाई तो मम्मी दौड़ते हुए आईं. मुझे खड़ा करने की कोशिश करने लगी लेकिन मैं खड़ी नहीं हो पा रही थी. मम्मी ने मुझे गोद में उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया. अगले दिन वो मुझे डॉक्टर के पास ले गईं. पैरों की जांच करने के बाद डॉक्टर ने कहा कि आजकल के बच्चे मीठा ज्यादा खाते हैं इसलिए बच्चों को फोड़े- फुंसियां हो रही हैं. आपकी बच्ची के भी इसी वजह से पैरों में अकड़न और दर्द हो रहा है. जल्द ही ठीक हो जाएगा. मम्मी भी बेफिक्र हो गईं.
मगर ऐसा नहीं हुआ बल्कि अगले दिन तो मैंने बैठना भी बंद कर दिया. मां घबरा गईं. वे दोबारा डॉक्टर के पास लेकर भागीं. डॉक्टर ने दोबारा अपनी पड़ताल शुरू की. इस बार उन्होंने मेरे पैर में हथौड़ा मारकर देखा. मुझे आज भी वो दिन अच्छे से याद है. मैं दर्द से चीख उठी थी.
डॉक्टर ने मां को बताया कि आपकी बेटी को पोलियो का अटैक पड़ा है. आप इसे फौरन दिल्ली लेकर जाइए.आनन- फानन में अगले दिन मां ने स्कूल से छुट्टी ले ली. मां सरकारी स्कूल में टीचर थीं. हम लोग दिल्ली में पापा के पास आ गए. दरअसल मम्मी और दादी को छोड़कर मेरी ज्यादातर फैमिली दिल्ली में ही सेटल्ड थी. पापा रेलवे में जॉब करते थे.
दिल्ली के सफरदरगंज अस्पताल में इलाज शुरू हो गया लेकिन अब तक मेरी आवाज भी जा चुकी थी. पोलियो का अटैक मेरी जुबां तक पहुंच चुका था. इसके बाद तो मेरी मां और परिवार सबकी हिम्मत जवाब दे गई थी. वे टूट चुके थे. खैर लंबे इलाज के बाद मेरी आवाज तो वापस आ गई लेकिन मेरे दोनों पैर खराब हो चुके थे. अब मैं कभी चल नहीं सकती थी. ये सच जानने के बाद मेरी मां और पूरा परिवार टूट चुका था लेकिन उन्होंने कभी मुझे महसूस नहीं होने दिया. वो हमेशा मेरी ताकत बने. खासतौर पर मेरा भाई. हर वक्त साये की तरह उसने मेरा पूरा साथ दिया. मां मुझे अपने साथ वापस पंजाब ले आईं. यहां आकर मैं दिन-रात रोती रहती थी. मुझे एहसास होने लगा था कि अब सारी ज़िंदगी मुझे ऐसे ही काटनी होगी. इस सच को स्वीकार करने के बाद आंसूओं ने भी अब मेरी आंखों से किनारा कर लिया था.
मां मुझे अपने साथ स्कूल लेकर जाने लगी थीं. शुरूआती एजुकेशन यहीं से पूरी हुई. इसके बाद धीरे-धीरे मेरे भीतर थोड़ी हिम्मत आई. बीकॉम करने के बाद कविताएं लिखने लगी. धीरे-धीरे मेरे लिखे लेख देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे. पापा ने विशाखापट्टनम से एक सर्जरी करवाने के लिए साढ़े चार साल पहले ही अपनी जॉब से रिटायरमेंट ले लिया. सर्जरी के बाद मैं वॉकर के सहारे चलने लगी. वॉकर के सहारे मेरे भीतर आत्मविश्वास और बढ़ा. एक दिन कॉलेज में एक स्टूडेंट के पास फीस भरने को पैसे नहीं थे लेकिन पढ़ने में वो बेहद होशियार था. मैंने उसकी फीस जमा करने के लिए ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और समाजसेवा का दौर चल पड़ा. इस तरह सैकड़ों लोगों की मदद की.
अब लगने लगा था कि जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर आ रही है, तभी मेरी मां का एक्सीडेंट हो गया.दुर्घटना में मेरी मां को अपना एक पैर गंवाना पड़ा. इस घटना के बाद तो हमारी फैमिली पर सबको तरस आने लगा. सब हमें बेचारों की तरह देखने लगे थे लेकिन हमें इससे नफरत हो गई थी. हम सोचते थे कि हम अपनी परिस्थतियों से लड़ रहे हैं लेकिन कम से कम हमें बेचारा तो मत समझो. इन हालातों में मेरा परिवार एक बार हताशा के समंदर में डूब चुका था लेकिन एक बार फिर मेरी मां ने सबके भीतर हिम्मत जगाई. पूरे परिवार को एकजुट किया. अब हमने ठान लिया था कि हम सबको इस 'बेचारे' की फीलिंग से निकलना है.
इसलिए अभी तक मैं सोशल वर्क बिना किसी सहारे के कर रही थी. साल 2015 में मैंने 'ऋषि फाउंडेशन' का गठन किया और सामान्य लोगों के साथ-साथ दिव्यांग लोगों की मदद करना भी शुरू कर दिया. साथ-साथ समाज में दोयम दर्जे की समझी जाने वाली महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा होने का हुनर सिखाते हैं. संस्था महिलाओं को नमकीन स्नैक्स, भुजिया, पापड़, मट्ठी, पीनट्स, कुशन कवर आदि बनाने के लिए ट्रेन करते हैं ताकि महिलाएं अपनी जीविका चलाती रहें.
अक्सर मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर इतनी हिम्मत कहां से आती है. एक साथ इतने काम कैसे कर लेती हो? तुम जब खुद अपने पैरों पर ठीक से खड़ी नहीं हो पाती हो इतने लोगों का सहारा आखिर कैसे बन गई हो? मैं उनको हमेशा सिर्फ एक जवाब ही देती हूं. तुम्हें किसने रोका है, तुम भी करो.. दरअसल मैं मानती हूं, अगर आप कुछ ठान लो तो तुम्हें उसको पाने से कोई नहींं रोक सकता.
इन सब कामों के साथ-साथ मैंने लेखन भी जारी रखा. अब तक मेरी अब तक 6 किताबें आ चुकी हैं.
ये कहानी पंजाब के होशियारपुर से ताल्लुक रखने वाली इंद्रजीत नंदन की है. महज ढाई साल की उम्र में उन्हें पोलियो हो गया था. इलाज के दौरान उनकी आवाज भी चली गई थी. इन परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने न केवल खुद को सशक्त किया बल्कि समाज सेवा के साथ-साथ अपने जैसे तमाम लोगों को सशक्त बना रही हैं. इस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ योगदान के लिए आगामी तीन दिसंबर को उन्हें ‘वर्ल्ड डिसेबिलिटी डे’ पर राष्ट्रपति भवन में 'नेशनल अवार्ड फॉर द इंपारवरमेंट ऑफ परसन विद डिसेबिलिटी-2018' से सम्मानित किया जा रहा है. इंद्रजीत को संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. 2007 में साहित्य अकेडमी ने उन्हें सम्मानित किया. साल 2010 में भास्कर वुमेन अवार्ड, साल 2013 में स्वामी विवेकानंद स्टेट अवार्ड ऑफ एक्सीलेंस अवार्ड मिला.
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डॉक्टर ने मां को बताया कि आपकी बेटी को पोलियो का अटैक पड़ा है. आप इसे फौरन दिल्ली लेकर जाइए.आनन- फानन में अगले दिन मां ने स्कूल से छुट्टी ले ली. मां सरकारी स्कूल में टीचर थीं. हम लोग दिल्ली में पापा के पास आ गए. दरअसल मम्मी और दादी को छोड़कर मेरी ज्यादातर फैमिली दिल्ली में ही सेटल्ड थी. पापा रेलवे में जॉब करते थे.

मां मुझे अपने साथ स्कूल लेकर जाने लगी थीं. शुरूआती एजुकेशन यहीं से पूरी हुई. इसके बाद धीरे-धीरे मेरे भीतर थोड़ी हिम्मत आई. बीकॉम करने के बाद कविताएं लिखने लगी. धीरे-धीरे मेरे लिखे लेख देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे. पापा ने विशाखापट्टनम से एक सर्जरी करवाने के लिए साढ़े चार साल पहले ही अपनी जॉब से रिटायरमेंट ले लिया. सर्जरी के बाद मैं वॉकर के सहारे चलने लगी. वॉकर के सहारे मेरे भीतर आत्मविश्वास और बढ़ा. एक दिन कॉलेज में एक स्टूडेंट के पास फीस भरने को पैसे नहीं थे लेकिन पढ़ने में वो बेहद होशियार था. मैंने उसकी फीस जमा करने के लिए ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और समाजसेवा का दौर चल पड़ा. इस तरह सैकड़ों लोगों की मदद की.

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इसलिए अभी तक मैं सोशल वर्क बिना किसी सहारे के कर रही थी. साल 2015 में मैंने 'ऋषि फाउंडेशन' का गठन किया और सामान्य लोगों के साथ-साथ दिव्यांग लोगों की मदद करना भी शुरू कर दिया. साथ-साथ समाज में दोयम दर्जे की समझी जाने वाली महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा होने का हुनर सिखाते हैं. संस्था महिलाओं को नमकीन स्नैक्स, भुजिया, पापड़, मट्ठी, पीनट्स, कुशन कवर आदि बनाने के लिए ट्रेन करते हैं ताकि महिलाएं अपनी जीविका चलाती रहें.
अक्सर मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर इतनी हिम्मत कहां से आती है. एक साथ इतने काम कैसे कर लेती हो? तुम जब खुद अपने पैरों पर ठीक से खड़ी नहीं हो पाती हो इतने लोगों का सहारा आखिर कैसे बन गई हो? मैं उनको हमेशा सिर्फ एक जवाब ही देती हूं. तुम्हें किसने रोका है, तुम भी करो.. दरअसल मैं मानती हूं, अगर आप कुछ ठान लो तो तुम्हें उसको पाने से कोई नहींं रोक सकता.
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ये कहानी पंजाब के होशियारपुर से ताल्लुक रखने वाली इंद्रजीत नंदन की है. महज ढाई साल की उम्र में उन्हें पोलियो हो गया था. इलाज के दौरान उनकी आवाज भी चली गई थी. इन परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने न केवल खुद को सशक्त किया बल्कि समाज सेवा के साथ-साथ अपने जैसे तमाम लोगों को सशक्त बना रही हैं. इस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ योगदान के लिए आगामी तीन दिसंबर को उन्हें ‘वर्ल्ड डिसेबिलिटी डे’ पर राष्ट्रपति भवन में 'नेशनल अवार्ड फॉर द इंपारवरमेंट ऑफ परसन विद डिसेबिलिटी-2018' से सम्मानित किया जा रहा है. इंद्रजीत को संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. 2007 में साहित्य अकेडमी ने उन्हें सम्मानित किया. साल 2010 में भास्कर वुमेन अवार्ड, साल 2013 में स्वामी विवेकानंद स्टेट अवार्ड ऑफ एक्सीलेंस अवार्ड मिला.
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Updated: February 19, 2019 05:25 PM ISTदेश और दुनिया की दस बड़ी खबरें जो आज आपको जाननी चाहिए