(आखिरकार वो दिन आ ही गया, जब मेरा सेलेक्शन हो चुका था.कॉलेज के इतिहास में पहली बार किसी लड़की का नाम शामिल हुआ था. ये कॉलेज 1956 से है, लेकिन अब तक वहां किसी लड़की ने एडमिशन नहीं लिया था. सेलेक्शन तो हो गया लेकिन असल मुसीबत तो यहां से शुरू से हुई. चूंकि वहां कभी किसी लड़के ने एडमिशन नहीं लिया था तो वहां लड़कियों के लिए कोई हॉस्टल भी नहीं था.
ऐसे में मुझे ब्वॉयज हॉस्टल में ही रहकर पढ़ाई करनी थी. ये बात किसी भी पैरेंट्स के लिए बहुत ज्यादा फिक्र की बात थी. जाहिर है कि मेरे माता-पिता का भी दिल भी इस बात को गंवारा नहीं कर रहा था. पढ़ें, नागपुर से ताल्लुक रखने वाली हर्षिनी कान्हेकर की कहानी, जो देश की पहली महिला फायर फायटर हैं. कितना मुश्किल था उनका ये सफर? आइए, उन्हीं से जानते हैं. )
मेरा सपना था कि मैं आर्म्ड फोर्स में शामिल हों. सेना की वर्दी पहनूं, लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था. दरअसल बचपन से ही मुझे एडवेंचरस एक्टिविटीज मुझे बहुत पसंद थीं. इसलिए पढ़ाई के दौरान मैं एनसीसी की केडेट भी रही. पीसीएम में बीएससी करने के बाद मैं आर्मी, एयरफोर्स, नेवी ज्वाइन करना चाहती थी और इसके लिए तैयारी भी कर रही थी.

हर्षिनी कान्हेकर
इसी दौरान मुझे नेशनल फायर सर्विस कॉलेज (एनएफएससी) के बारे में पता चला. यह एशिया का एकमात्र फायर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट है और मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के अंतर्गत संचालित किया जाता है. ये जानने के बाद मैंने इस कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए अप्लाई कर दिया.
पापा की आदत है कि जब भी हमें कहीं एग्ज़ाम देने जाना होता था, तो वो हमें पहले वह कॉलेज या संस्थान दिखाने ले जाते थे. उस दिन भी ले गए. नागपुर सिविलाइज़्ड एरिया में स्थित वह बहुत बड़ा और खूबसूरत कॉलेज था, लेकिन हम वहां के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे. कॉलेज देखते ही पहला ख्याल यही आया मन में कि काश, इस कॉलेज में मेरा एडमिशन हो जाए. खैर हम आगे बढ़े कॉलेज के अंदर पहुंचे.
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यहां सब लोग मुझे अजीब नजरों से देख रहे थे. कई लोगों ने कहा भी कि मैडम, यह जेन्ट्स कॉलेज है, आप आर्मी वगैरह में ट्राई कर लीजिए, लेकिन मेरा जवाब था कि फॉर्म में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा है कि लड़कियां यहां एडमिशन नहीं ले सकतीं. मैंने फॉर्म लिया है, तो मैं उसे जमा जरूर करूंगी. वहां मौजूद फैकल्टी मेंबर्स मुझ पर हंस रहे थे और उन्होंने मेरा फॉर्म बाकी लोगों के फॉर्म से अलग रख दिया.

प्रतीकात्मक तस्वीर
उनमें से एक ने यहां तक कह दिया कि मैडम, महिलाएं अभी भी 33% आरक्षण के लिए लड़ रही हैं, तब मैंने उन्हें जवाब दिया, सर, मैं 33% में नहीं, 50:50 में विश्वास रखती हूं. फिर मैंने अपना अलग रखा हुआ फॉर्म अपने हाथों से बॉक्स में डाल दिया. इसके बाद कॉलेज की लिस्ट घोषित होने का इंतजार करने लगी. आखिराकर वो दिन आ भी गया, जब मेरा सेलेक्शन हो चुका था. कॉलेज के इतिहास में पहली बार किसी लड़की का नाम शामिल हुआ था. ये कॉलेज 1956 से है, लेकिन अब तक वहां किसी लड़की ने एडमिशन नहीं लिया था. सेलेक्शन तो हो गया लेकिन असल मुसीबत तो यहां से शुरू से हुई. चूंकि वहां कभी किसी लड़के ने एडमिशन नहीं लिया था तो वहां लड़कियों के लिए कोई हॉस्टल भी नहीं था. ऐसे में मुझे ब्वॉयज हॉस्टल में ही रहकर पढ़ाई करनी थी.
ये बात किसी भी पैरेंट्स के लिए बहुत ज्यादा फिक्र की बात थी. जाहिर है कि मेरे माता-पिता का भी दिल भी इस बात को गंवारा नहीं कर रहा था. मुझे अपने पैरेंट्स को इस बात के लिए तैयार करने में थोड़ा वक्त लगा कि मैं अकेली लड़की जेन्ट्स कॉलेज में पढ़ने जा रही हूं, लेकिन वो ये भी जानते थे कि एक बार यदि मैंने ऐसा करने की ठान ली है, तो मैं ये कर के रहूंगी. इसलिए वो लोग भी मान गए थे. हालांकि वो चाहते तो मुझे अलग भी रख सकते थे लेकिन समाज की सोच को बदलने कि लिए उन्होंने इतना बड़ा और कड़ा कदम उठाया.
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अब मैंने कॉलेज ज्वाइन कर लिया था लेकिन इसके साथ शुरू हो गया था पढ़ाई और ट्रेनिंग का सिलसिला. मेरे हर काम, हर गतिविधि को सारी लड़कियों से जोड़कर देखा जाने लगा था. अगर मैं देर से पहुंचूंगी, तो लड़कियां देर से आती हैं. मेरे परफॉर्मेंस पर आने वाले सालों में यहां एडमिशन लेने वाली सारी लड़कियों का भविष्य तय होने वाला था, इसलिए मैं एक भी गलती नहीं करना चाहती थी. साढ़े तीन साल के कोर्स में मैंने एक दिन भी छुट्टी नहीं ली, मैं कभी लेट नहीं हुई और मुझे कभी किसी तरह की पनिशमेंट भी नहीं मिली. एनसीसी बैकग्राउंड होने के कारण मेरा परफॉर्मेंस बहुत अच्छा था.

हर्षिनी कान्हेकर
ट्रेनिंग के दौरान भी मुझ पर ज्यादा दबाव था, क्योंकि मुझे सभी लड़कियों का प्रतिनिधित्व करना था. लोगों को कहीं से ये न लगे कि लड़की है तो कमजोर ही होगी. इसलिए भारी-भरक उपकरणों को उठाने के लिए मैं हमेशा समय से पहले ग्रांउड पर पहुंच जाती थी. वहां सामान उठाने की प्रैक्टिस करती थी. खासतौर पर मैं ट्रेंनिग के लिए ऐसे काम करती थी.
ट्रेनिंग के दौरान मैंने ट्रक चलाने से लेकर घुड़सवारी तक सीखी. एक बार की बात ट्रक में अपने परिवार को घुमाती थी. ट्रेनिंग के दौरान दिन में तीन बार यूनिफॉर्म बदलनी पड़ती थी. सुबह 6.30 बजे हमें डंगरी फायर फाइटर यूनिफॉर्म पहननी पड़ती थी. उसके बाद 9 बजे स्क्वॉड यूनिफॉर्म और दोहपर 3.30 बजे फिर से डंगरी पहननी पड़ती थी क्योंकि कॉलेज में महिलाओं के लिए अलग से कोई कमरा या बाथरूम नहीं था तो मुझे इसके लिए बार-बार घर जाना पड़ता था. कई बार तो ऐसा करना काफी मुश्किल हो जाता था लेकिन मैंने किया. ऐसा करते-करते कोर्स पूरा हुआ. न केवल कोर्स पूरा हुआ बल्कि मुझे एक बेहतरीन जॉब भी मिली. मैं एक कामयाब इंजीनियर बनी. फिलहाल मैं मैटरनिटी लीव पर चल रही हूं.
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FIRST PUBLISHED : April 04, 2019, 13:29 IST