डॉ आरिफा शबनम
मैंने कोई सूरज कोई तारा नहीं देखा. किस रंग का होता है उजाला नहीं देखा. सुनते ही थे कि अपने ही होते हैं घर लूटने वाले अच्छा हुआ कि मैंने ये तमाशा नहीं देखा. यही वो शायरी थी जो दिलीप साहब और सायराबानो को पसंद आई थीं. कभी ये सोचा नहीं था कि इस मुकाम तक पहुंच पाऊंगी लेकिन हां खुशी होती है कि आज मुझे लोग सुनते हैं. अब तक मैं पाकिस्तान, दुबई, अमेरिका, कजाकिस्तान समेत कई देशों में अपनी शायरी सुना चुकी हूं.
खुशी है कि मेरी पहचान एक नेत्रहीन और बेचारी के तौर पर नहीं होती है. लोग मुझ पर दया दिखाने के बजाए मेरी शायरी पर तालियां बजाते हैं. अफसोस नहीं है कि मुशायरे में आने वाली हजारों-लाखों लोगों के चेहरों पर आने वाले भावों को मैं देख नहीं सकती. सुकून है कि मेरे लिखे एक-एक शब्द लोगों के दिलों में उतरते हैं. पढ़ें, मैनपुरी से ताल्लुक रखने वाली एक ऐसी टीचर की कहानी, जिनकी बचपन में ही आंखों की रोशनी चली गई थीं लेकिन अपनी शायरी से पूरी दुनिया में चमक रही हैं. आइए जानते हैं उनकी कहानी, उनकी ही जुबानी.)
जैसा मुझे मेरे घर वाले बताते हैं कि जब मैं कुछ महीनों की थी तो जब मुझे खिलौना दिया जाता था तो मैं उसको पकड़ नहीं पाती थी. मुझे आवाज जिस तरफ जाती थी, मैं उसके विपरीत दिशा में देखती थी. ये देखकर मेरे पैरेंट्स को कुछ शक हुआ. उन्होंने डॉक्टर को दिखाया तो कुछ वक्त तक तो डॉक्टर का कहना था कि इसकी आंखों की रोशनी अभी नहीं है लेकिन कुछ दिनों में लौट आएगी.
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मगर एक वक्त बाद जब ऐसा नहीं हुआ तो पैंरेंट्स दोबारा डॉक्टर के पास लेकर भागे. इस बार उन्होंने कह दिया था कि मेरी आंखों की रोशनी कभी वापस नहीं आ सकती. ये जानने के बाद फैमिली के लोग परेशान हुए. मगर उन्होंने कभी मुझे इस बात का अहसास नहीं कराया कि मैं देख नहीं सकती. उन्होंने मुझे बहुत अच्छी परवरिश दी. इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि कभी मुझे कोई तकलीफ भी है. मेरी परवरिश मेरे नॉर्मल भाई-बहनों की तरह ही की गई.
घर पर ही मैंने ब्रेनलिपि और संगीत की शिक्षा ली, लेकिन मुसीबत तक शुरू हुई जब मैं घर के बाहर पढ़ने निकली तो लोगों का कहना था कि अच्छा अब अंधी भी पढ़ेगी. इन्हें तो घर बिठाओ. ये सुनकर तकलीफ हुई लेकिन घर वालों ने कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया. इसके बाद मैं भी धीरे-धीरे स्कूल में पढ़ती रही. लड़कियां मेरी दोस्त बनीं और उन्होंने मेरी खूब मदद भी की. इस तरह से स्कूली एजुकेशन पूरी हो गई. इसी बीच मैं खूब रेडियो सुना करती थी. गाने सुनती थी. कोई भजन,कोई गाना हो. इन सबको सुनकर मैं अपने शब्द देने की कोशिश करती थी. इस तरह से मैं धीरे-धीरे लिखते रही. मालूम नहीं चला कि ये कब शायरी हो गई.
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