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एक पीडोफाइल या बाल यौन अपराधी का मनोविज्ञान क्या होता है

जानिए, पीडोफाइल का मनोविज्ञान

जानिए, पीडोफाइल का मनोविज्ञान

इस सीरीज का मकसद एक बाल यौन अपराधी यानी पीडोफाइल के मनोविज्ञान के विभिन्‍न पहलुओं की पड़ताल करना है.

    (हमने एक नई सीरीज शुरू की है. इस सीरीज का मकसद बाल यौन अपराधी यानी पीडोफाइल के मनोविज्ञान के विभिन्‍न पहलुओं की पड़ताल करना है. आप इस सीरीज की दूसरी किश्त पढ़ रहे हैं. लंदन स्थित प्रतिष्ठित मनोचिकित्‍सक डॉ. द्रोण शर्मा इस सीरीज में पीडोफाइल के मनोविज्ञान के विभिन्‍न पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे. आठ भागों में चलने वाली यह सीरीज आप रोज दोपहर 2 बजे news18hindi पर पढ़ सकेंगे. अगर आपके मन में कोई सवाल है तो आप इस पते पर हमें भेज सकते हैं – ask.life@nw18.com.) 

    एक पीडोफाइल के मनोविज्ञान को समझने के लिए हमें पहले एक इंसान के मनोविज्ञान को समझना होगा. इंसान की फितरत क्या है. जानवर और इंसान में क्या फर्क है. जानवर और इंसान में सिर्फ फर्क है इवोल्यूशन का. इवोल्यूशन यानी मनुष्य के विकास क्रम में हमने कुछ सामाजिक नियम बनाए हैं. कुछ मूल्य तय किए हैं कि एक समाज में हम कैसे रहेंगे. अब अगर सेक्स की बात करें तो सेक्स किसके साथ कर सकते हैं और किसके साथ नहीं कर सकते हैं, इसके हर समाज में कुछ नियम बनाए गए हैं. जैसे मां, बहन, बेटी के साथ सेक्सुअल संबंधों की अधिकांश समाजों और सभ्यताओं में मनाही रही है. यही फर्क है एक जानवर और इंसान में.

    जहां पर ये नियम काम नहीं करते, वहां कानून की भूमिका शुरू होती है. कानून ये कहता है कि ये बातें गलत हैं. कानून इस पर भी बात करता है कि कंसेंट यानी सहमति क्या है. कंसेंट का अर्थ है, जब कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से बिना किसी दबाव या प्रलोभन के यह कहे कि वह सेक्सुअल एक्टिविटी के लिए तैयार है. यह एज आॅफ कंसेंट भी अलग-अलग देशों और समाजों में अलग-अलग है. उदाहरण के लिए जहां मैं बैठा हूं, लंदन में, वहां एज आॅफ कंसेंट 16 साल है. अगर यहां से थोड़ी दूर इटली चले जाएं तो वहां एज आॅफ कंसेंट 15 साल है. कुछ समय पहले वहां यह उम्र 14 साल थी. पांच-छह और ऐसे देश हैं, जहां एज आॅफ कंसेंट 15 साल है. तो यही वे सामाजिक नियम हैं, जो एक इंसान और जानवर को अलग करते हैं.

    इसके बाद इंसान का अपनी सोच, आंतरिक संरचना और उसकी फितरत का सवाल आता है. सवाल यह है कि किसी इंसान के दिमाग में समाज और कानून के बनाए ये नियम कितने गहरे बैठे हुए हैं. कुछ समय पहले अमेरिका में एक रिसर्च हुई थी, जिसमें मनुष्य की क्रिमिनल साइकोलाॅजी पर अध्ययन किया गया. क्रिमिनल साइकोलाॅजी यानी ऐसी सोच, जो किसी व्यक्ति को किसी भी तरह की क्रिमिनल एक्टिविटी करने के लिए प्रेरित करे. इस अध्ययन का मकसद यह समझना था कि सामान्य लोगों में कितनी बार इस तरह की एक्टिविटी करने का ख्याल आता है. यहां क्राइम का नेचर सिर्फ सेक्सुअल क्राइम नहीं था.

    इस अध्ययन के कुछ चैंकाने वाले नतीजे सामने आए. इससे पता चला कि करीब 65 फीसदी यूनिवर्सिटी के छात्रों में कभी न कभी कोई क्राइम करने का ख्याल आया था. चोरी करना या किसी को मार डालना. इस अध्ययन से यह पता चला कि समाज में जो तथाकथित सामान्य लोग हैं, उनके दिमाग में भी इस तरह के ख्याल आते हैं. जैसे अकसर यह होता है कि जब हमें बहुत गुस्सा आता है तो लगता है कि किसी को मार दें. लेकिन वह ख्याल थोड़ी देर के लिए ही रहता है. फिर यह एहसास भी हो जाता है कि हम जो सोच रहे हैं, वो गलत है. यही फर्क है एक हमलावर और एक सामान्य इंसान में.

    अब अगर सेक्सुअल एक्टिविटी की तरफ चलें तो यह देखा जाएगा कि जो इंसान बच्चों में सेक्सुअल इंटरेस्ट रख रहा है, उसके पास या तो समाज के दिए वो नियम और मूल्य हैं ही नहीं या उसका खुद का सेक्सुअल अनुभव ऐसा रहा है, जिसने उसे यह सिखा दिया कि बच्चों के साथ सेक्सुअल एक्टिविटी करना बहुत सामान्य है. इसके पीछे यह मनोविज्ञान भी हो सकता है कि जब वह खुद बच्चा रहा हो तो उसका रेप हुआ हो या परिवार में किसी ने उनके साथ कोई सेक्सुअल एक्टिविटी करने की कोशिश की हो. तो अपने अनुभवों से उस व्यक्ति को यह समझ में आया कि यह सामान्य बात है. अगर किसी व्यक्ति को अपने परिवार में ही यह समझ, यह नियम नहीं मिल रहा है कि किसके साथ सेक्सुअल एक्टिविटी कर सकते हैं और किसके साथ नहीं, तो उसे बाहर यह मूल्य कैसे मिलेगा.

    पढ़ें, पीडोफाइल होने का क्‍या अर्थ है?

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