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इसे धोखाधड़ी होना चाहिए या बलात्कार?

सह‍मति से बने संबंध टूटने पर क्‍या रेप हो जाते हैं?

सह‍मति से बने संबंध टूटने पर क्‍या रेप हो जाते हैं?

लड़के के लिए सेक्स सिर्फ सेक्स है. लेकिन लड़की के लिए नहीं है. उसके लिए वो एक जरिया है, जिसके बदले उसे शादी, पति, सामाजिक ...अधिक पढ़ें

    ये दो साल पहले की बात है. एक दिन आधी रात में एक लड़की का फोन आया. उसका ब्रेकअप हो गया था. लड़का अलग होना चाहता था, लड़की नहीं चाहती थी. लेकिन लड़का जो चाहता था, आखिरकार वो हो गया. जाहिर है, कोई साथ न रहना चाहे तो जबर्दस्ती तो नहीं रख सकते.

    इस ब्रेकअप के बाद की कहानी टूटे रिश्तों की बाकी कहानियों जैसी ही है. दुख, अवसाद, मरने की चाह. लगे कि अब सब खत्म हो गया है. लड़की रोई, चिल्लाई, गिड़गिड़ाई. सब हो गया. लेकिन अपनी इस ब्रेकअप वाली स्क्रिप्ट में उसने जो एक नया अध्याय जोड़ा, वो बाकी कहानियों से थोड़ा अलग था. लड़की पुलिस के पास गई और लड़के के खिलाफ रेप की शिकायत दर्ज करवा दी. लड़के ने झूठ बोलकर, शादी का वादा करके लड़की के साथ संबंध बनाए और फिर शादी भी नहीं की. ये बलात्कार है. लड़का सलाखों के पीछे. साबित तो बाद में होगा, पहले जेल.
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    दुनिया में रोज हजारों रिश्ते टूटते हैं. प्यार आता है, प्यार चला जाता है. रिश्ते बनते हैं, रिश्ते टूट जाते हैं. स्टैंप पेपर पर लाइफ टाइम की गारंटी के साथ नहीं आते रिश्ते. ये वाला भी नहीं आया था. उसे जानने वाले जानते थे कि लड़के ने न झूठ बोला था, न झांसा दिया था, न जबर्दस्ती की थी. जब प्यार था तो वो सच था. और अब जब प्यार नहीं रहा तो वो भी उतना ही सच था. और जैसाकि कई बार होता है कि जरूरी नहीं कि टूटने वाले हर रिश्ते को दोनों पक्ष बराबर शिद्दत से तोड़ना चाहते थे. मुमकिन है, कोई एक तोड़ना चाहे और दूसरा जोड़ना. दोनों की वजहें अलग, दोनों की जरूरतें अलग. जिंदगी से दोनों की चाहतें अलग. ऐसे में ये हुआ कि जो जाना चाहता था, वो चला गया. और जो नहीं जाने देना चाहता था, वो अकेला रह गया.
    उसकी पीड़ा, उसका अकेले छूट जाना, उसके भीतर किसी भरोसे का टूट जाना तो समझ में आता है. लेकिन इतना समझने के बाद भी ये समझ नहीं आता कि दो साल तक जो रिश्ता प्यार था, जो दैहिक आत्मीयता प्यार थी, वो रिश्ता टूटने पर बलात्कार कैसे हो गई.

    वो एक वादे का टूट जाना तो था, लेकिन क्या वो रेप था?
    वो एक भरोसे का छूट जाना भी था, लेकिन क्या वो रेप था?
    वो एक व्यक्ति के हिस्से में आई मृत्यु समान पीड़ा तो थी लेकिन क्या वो रेप था?

    जब संबंध बने तो सहमति से बने थे. दोनों की राजी थी उसमें, दोनों की खुशी थी उसमें. लड़के ने कोई जबर्दस्ती नहीं की थी, न लड़की की मर्जी के खिलाफ उसे छुआ था. फिर जब उस दिन वो तकलीफ में छटपटाती थाने पहुंची लड़के के खिलाफ बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने तो उसके दिल में क्या चल रहा था? उसे क्यों लगा कि उसके साथ रेप हुआ है?

    क्या रेप की हमारी बुनियादी परिभाषा में कहीं कोई पेंच है?
    या स्त्रियों के मन और दिमाग की आंतरिक संरचना में कोई पेंच है?
    या स्त्री-पुरुष संबंधों की उस बुनियाद में ही कोई पेंच है, जो स्त्री को पुरुष की संपत्ति मानती है और परिवार की संपत्ति पर पुरुष का अधिकार.

    दिक्कत है कहां?



    प्रेम में छली गई स्त्रियां रेप की शिकायत लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटा रही हैं. न्यायालय के पास कोई ठोस तरीका नहीं न्याय करने का. वो हर बार एक नई दलील पेश करता है.

    पिछले साल अप्रैल में बॉम्बे हाइकोर्ट की गोआ बेंच ने योगेश पालेकर के ऐसे ही एक मुकदमे में फैसला सुनाते हुए कहा, “प्रेम संबंधों में हुआ सेक्स रिश्ते टूटने के बाद रेप नहीं हो जाता. चाहे रिश्ता किसी भी वजह से टूटा या किसी ने भी तोड़ा क्योंकि लड़की के साथ कोई जबर्दस्ती नहीं हुई थी. ये तथ्यों की गलत व्याख्या करना है.” कोर्ट ने योगेश पालेकर को बाइज्जत बरी कर दिया.

    ठीक एक साल बाद इस 16 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एल. नागेश्वर और एम.आर. शाह की पीठ ने छत्तीसगढ़ के ऐसे ही एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा, “शादी का झूठा वादा करके किसी महिला के साथ यौन संबंध बनाना रेप है क्योंकि यह महिला के सम्मान पर आघात है.” छत्तीसगढ़ की रहने वाली एक महिला ने अपने सहकर्मी डॉक्टर पर 2013 में रेप का इल्जाम लगाया था. 2009 से उनके प्रेम संबंध थे, लेकिन बाद में डॉक्टर ने उस महिला को छोड़ किसी और से विवाह कर लिया. महिला ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय तक बात पहुंची और न्यायालय ने इसे रेप करार दिया.

    जैसाकि योगेश पालेकर के केस में फैसला सुनाते हुए गोआ बेंच ने कहा था कि इस तरह के मामले समाज में काफी तेजी से बढ़ रहे हैं, जहां सहमति से बने संबंधों को रेप माना जा रहा है क्योंकि शादी का वादा पूरा नहीं हुआ. दिल्ली पुलिस का आंकड़ा कहता है कि यहां दर्ज होने वाले रेप के कुल मामलों में एक चौथाई ऐसे हैं, जहां लड़की ने शादी का झूठा वादा करके यौन संबंध बनाने की बात कही और रेप के तहत मुकदमा दर्ज कराया.

    इन तमाम घटनाओं, मुकदमों और फैसलों को जोड़कर देखें तो कौन सी तस्वीर बनती है?

    समाज बदल रहा है. शादी की उम्र आगे खिसक गई है. अब कोई अपनी वर्जिनिटी सात फेरों के बाद ही नहीं खोता. वयस्क उम्र के लड़के-लड़कियों के बीच सहमति से संबंध बन रहे हैं. लेकिन सहमति से बने उन संबंधों के मूल में अब भी कहीं शादी का कहा या अनकहा वादा है.



    लड़की सेक्स के लिए हां तो कह रही है, लेकिन उससे पहले वो ये वादा चाहती है कि इसके बाद उसे पत्नी का दर्जा मिलेगा या नहीं.

    कुछ प्रेम जेनुइनली भी नहीं चल पाते होंगे, लेकिन बहुत से मामलों में लड़के भी बिना अपने कहे की जिम्मेदारी समझे प्यार और शादी का वादा कर रहे हैं क्योंकि उन्हें भी पता है कि लड़की की देह तक पहुंचने का यही एक रास्ता है.

    लड़के के लिए सेक्स सिर्फ सेक्स है. उस उम्र की चाहत, देह के अरमान, हॉर्मोन्स का खेल. लेकिन लड़की के लिए सेक्स सिर्फ सेक्स नहीं है. उसके लिए वो एक जरिया है. अगर कहें तो एक किस्म का निवेश. देह देने के बदले उसे पति मिलेगा, शादी मिलेगी, सामाजिक सुरक्षा मिलेगी, संरक्षण मिलेगा, पितृसत्ता का सो कॉल्ड आदर और अधिकार मिलेगा. उसे एक मर्दवादी समाज में वो सबकुछ मिलेगा, जो एक शादी के जरिए ही मुमकिन है. प्रकृति की संरचना में स्‍त्री पुरुष से कतई भिन्न नहीं. उम्र के उस पड़ाव पर देह उसकी भी उतनी ही व्यग्र और उतावली है. लेकिन वो इस उतावलेपन में तब तक नहीं बहना चाहती, जब तक बाकी चीजों की गारंटी न हो जाए. भविष्य की सुरक्षा और सम्मान की.

    और जिस रिटर्न के भरोसे पर निवेश किया गया था, जब वो नहीं मिलता तो वो खुद को छला गया महसूस करती है. उसे लगता है कि उसके साथ रेप हुआ है, धोखा हुआ है. जैसे हम कुछ सामान खरीदने बाजार में जाएं और दुकान वाला पैसे तो ले ले, लेकिन सामान न दे. तो जाहिर है, हमें लगेगा कि हमारे साथ धोखा हुआ है.

    लेकिन सवाल ये है कि दो मनुष्यों के बीच प्रेम और सेक्स क्या सचमुच दुकान से सामान खरीदने जैसी बात थी या मुआमला कुछ और है?

    सारी तकलीफ तो वहां से पैदा हुई, जब देह समर्पित की गई और रिटर्न नहीं मिला. तो क्या स्त्री देह के इस उत्सव में इसलिए शामिल नहीं थी कि उसकी देह पर उसका हक था. उस देह में उसका सुख था. उम्र की अभिलाषाओं ने एक नई दुनिया के द्वार खोले थे और वो तन-मन से उस दुनिया के रहस्य ढूंढने निकल पड़ी थी. कि वो जीवन यात्रा का एक और सुख और अचंभों से भरा नया पड़ाव था. पड़ाव के अंत में सुख भी मुमकिन है और दुख भी. जो भी था, यात्रा का हिस्सा था. महत्वपूर्ण थी यात्रा.
    सुख की उस यात्रा का बलात्कार और धोखे की खाई में जा गिरना तो यही बताता है कि शायद ये सिर्फ एक निवेश था. नियम और शर्तें लागू. शर्तें टूटीं और मामला अदालत के सुपुर्द हुआ.

    ये इतना जटिल सवाल है कि शायद पांच हजार शब्दों के आर्टिकल में भी इसे ठीक से बयां न किया जा सके.



    वो लड़की जब उस रिश्ते के टूटने से टूटी थी तो ये दुख सिर्फ लड़के के जाने का नहीं था. ये दुख था, अपने पैरों के नीचे कोई ठोस जमीन न होने का. घर की परवरिश ऐसी नहीं थी कि जहां लड़की को भी बचपन से ये सिखाया जाता हो कि नौकरी नहीं करोगी तो कैसे जियोगी. अपने सिर पर छत तो हर इंसान को खुद बनानी होती है. वो लड़की बनकर पैदा हुई थी. मां-बाप मुतमईन थे कि एक दिन कोई पालनहार मर्द मिलेगा. उन्होंने लड़की को यही सिखाया, लड़की ने यही सीखा. इसलिए अब 30 की उम्र पार करने के बाद भी लड़की के पास न कोई ढंग की नौकरी थी, न दोस्त, न सर्कल, न सोशल सपोर्ट सिस्टम और न कोई आधार. इस दुनिया में ये सारी चीजें उसे लड़के के जरिए हासिल हुईं. इसलिए लड़के का चला जाना सिर्फ उसका ही नहीं, इस पूरे सपोर्ट सिस्टम का दरक जाना था. ये दिल टूटने भर का मामला नहीं था.

    और थोड़ा भीतर उतरकर शादी का झांसा देकर रेप के इन सारे मामलों की तफ्तीश करें तो हम पाएंगे कि जड़ में समस्या यही है. मर्द के पास अपनी जमीन है, जिस पर वो मजबूती से पैर रखकर खड़ा हो सकता है और औरत की जमीन है मर्द. इसलिए दरअसल छूट मर्द नहीं रहा, छूट रही है वो जमीन.

    सिर्फ टूटे दिल की बात होती तो एक स्‍वाभिमानी लड़की ये सोचती कि जिसने झूठ बोला, धोखा दिया, जो मुझे छोड़कर चला गया, वो मेरे प्‍यार के लायक ही नहीं था. क्‍या हम एक फरेबी से शादी करना चाहेंगे? क्‍या हम एक धोखेबाज को अदालत में घसीटेंगे ताकि उसे शादी के लिए मजबूर कर सकें, सिर्फ इसलिए कि हम सेक्‍स कर चुके हैं. मुझे नहीं लगता, एक आत्‍मनिर्भर, स्‍वाभिमानी लड़की ये करेगी.

    इसलिए ये कहानी सिर्फ टूटे दिल की नहीं है. बिना जमीन वाली जिंदगी की है, समूचे अस्तित्व पर संकट की है. सिर्फ टूटे दिल की बात होती तो कोई न्याय की गुहार नहीं लगाता, न न्यायालय का दरवाजा खटखटाता.
    मन की पीड़ा का इलाज सुप्रीम कोर्ट के पास थोड़े न है.

     

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