Shayari: आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया, पढ़ें इस्माइल मेरठी की शायरी

Shayari: पढ़ें इस्माइल मेरठी की शायरी
इस्माइल मेरठी की शायरी (Ismail Merathi Shayari) : क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहीं, जी चाहता है आग लगा दूं नज़र को मैं ...
- News18Hindi
- Last Updated: January 21, 2021, 4:03 PM IST
इस्माइल मेरठी की शायरी (Ismail Merathi Shayari) : इस्माइल मेरठी का नाम शेर और शायरी की दुनिया में किसी तार्रुफ़ का मोहताज़ नहीं है. इस्माइल मेरठी का वास्तविक नाम मोहम्मद इस्माइल था. इस्माइल मेरठी को उनके बेहतरीन शायरी और नज्मों के लिए नई नज़्म के निर्माता कहा गया. इस्माईल मेरठी को शुरू में शायरी से दिलचस्पी नहीं थी लेकिन समकालीनों विशेष रूप से क़लक़ की संगत ने उन्हें शे’र, गज़ल और नज़्म में अपना हुनर आजमाया और नाम कमाया. आज हम आपके लिए रेख्ता के साभार से लेकर आए हैं इस्माइल मेरठी की शायरी और नज्में...
1. मैं अगर वो हूँ जो होना चाहिए
मैं ही मैं हूँ फिर मुझे क्या चाहिए
ग़र्क़-ए-ख़ुम होना मयस्सर हो तो बसचाहिए साग़र न मीना चाहिए
मुनहसिर मरने पे है फ़तह-ओ-शिकस्त
खेल मर्दाना है खेला चाहिए
बे-तकल्लुफ़ फिर तो खेवा पार है
मौजज़न क़तरा में दरिया चाहिए
तेज़ ग़ैरों पर न कर तेग़-ओ-तबर
इसे भी पढ़ें: 'द अल्केमिस्ट' देगी सपनों को नई उड़ान, जीवन की दिशा जाएगी बदल
आप अपने से मुबर्रा चाहिए
हो दम-ए-अर्ज़-ए-तजल्ली पाश पाश
सीना मिस्ल-ए-तूर-ए-सीना चाहिए
हुस्न की क्या इब्तिदा क्या इंतिहा
शेफ़्ता भी बे-सर-ओ-पा चाहिए
पारसा बन गर नहीं रिंदों में बार
कुछ तो बेकारी में करना चाहिए
कुफ़्र है साक़ी पे ख़िस्सत का गुमाँ
तिश्ना सरगर्म-ए-तक़ाज़ा चाहिए .
2. आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया
नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया
तुम रोज़-ओ-शब जो दस्त-ब-दस्त-ए-अदू फिरे
मैं पाएमाल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो गया
मेरा निशाँ मिटा तो मिटा पर ये रश्क है
विर्द-ए-ज़बान-ए-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया
दिल चाक चाक नग़्मा-ए-नाक़ूस ने किया
सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया
अब और ढूँडिए कोई जौलाँ-गह-ए-जुनूँ
सहरा ब-क़द्र-ए-वुसअत-यक-गाम हो गया
दिल पेच से न तुर्रा-ए-पुर-ख़म के छुट सका
बाला-रवी से मुर्ग़ तह-ए-दाम हो गया
और अपने हक़ में ता'न-ए-तग़ाफ़ुल ग़ज़ब हुआ
ग़ैरों से मुल्तफ़ित बुत-ए-ख़ुद-काम हो गया
तासीर-ए-जज़्बा क्या हो कि दिल इज़्तिराब में
तस्कीं-पज़ीर बोसा-ब-पैग़ाम हो गया
क्या अब भी मुझ पे फ़र्ज़ नहीं दोस्ती-ए-कुफ़्र
वो ज़िद से मेरी दुश्मन-ए-इस्लाम हो गया
अल्लाह-रे बोसा-ए-लब-ए-मय-गूँ की आरज़ू
मैं ख़ाक हो के दुर्द-ए-तह-ए-जाम हो गया
अब तक भी है नज़र तरफ़-ए-बाम-ए-माह-वश
मैं गरचे आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम हो गया
अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है
क्यूँ मुझ को ज़ौक़-ए-लज्ज़त-ए-दुश्नाम हो गया .
3. क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहीं
जी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं.
1. मैं अगर वो हूँ जो होना चाहिए
मैं ही मैं हूँ फिर मुझे क्या चाहिए
ग़र्क़-ए-ख़ुम होना मयस्सर हो तो बसचाहिए साग़र न मीना चाहिए
मुनहसिर मरने पे है फ़तह-ओ-शिकस्त
खेल मर्दाना है खेला चाहिए
बे-तकल्लुफ़ फिर तो खेवा पार है
मौजज़न क़तरा में दरिया चाहिए
तेज़ ग़ैरों पर न कर तेग़-ओ-तबर
इसे भी पढ़ें: 'द अल्केमिस्ट' देगी सपनों को नई उड़ान, जीवन की दिशा जाएगी बदल
आप अपने से मुबर्रा चाहिए
हो दम-ए-अर्ज़-ए-तजल्ली पाश पाश
सीना मिस्ल-ए-तूर-ए-सीना चाहिए
हुस्न की क्या इब्तिदा क्या इंतिहा
शेफ़्ता भी बे-सर-ओ-पा चाहिए
पारसा बन गर नहीं रिंदों में बार
कुछ तो बेकारी में करना चाहिए
कुफ़्र है साक़ी पे ख़िस्सत का गुमाँ
तिश्ना सरगर्म-ए-तक़ाज़ा चाहिए .
2. आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया
नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया
तुम रोज़-ओ-शब जो दस्त-ब-दस्त-ए-अदू फिरे
मैं पाएमाल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो गया
मेरा निशाँ मिटा तो मिटा पर ये रश्क है
विर्द-ए-ज़बान-ए-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया
दिल चाक चाक नग़्मा-ए-नाक़ूस ने किया
सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया
अब और ढूँडिए कोई जौलाँ-गह-ए-जुनूँ
सहरा ब-क़द्र-ए-वुसअत-यक-गाम हो गया
दिल पेच से न तुर्रा-ए-पुर-ख़म के छुट सका
बाला-रवी से मुर्ग़ तह-ए-दाम हो गया
और अपने हक़ में ता'न-ए-तग़ाफ़ुल ग़ज़ब हुआ
ग़ैरों से मुल्तफ़ित बुत-ए-ख़ुद-काम हो गया
तासीर-ए-जज़्बा क्या हो कि दिल इज़्तिराब में
तस्कीं-पज़ीर बोसा-ब-पैग़ाम हो गया
क्या अब भी मुझ पे फ़र्ज़ नहीं दोस्ती-ए-कुफ़्र
वो ज़िद से मेरी दुश्मन-ए-इस्लाम हो गया
अल्लाह-रे बोसा-ए-लब-ए-मय-गूँ की आरज़ू
मैं ख़ाक हो के दुर्द-ए-तह-ए-जाम हो गया
अब तक भी है नज़र तरफ़-ए-बाम-ए-माह-वश
मैं गरचे आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम हो गया
अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है
क्यूँ मुझ को ज़ौक़-ए-लज्ज़त-ए-दुश्नाम हो गया .
3. क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहीं
जी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं.