ये 'लस्ट स्टोरीज' का रिव्यू नहीं है. उन कहानियों के बहाने जीवन के उन निषिद्ध इलाकों की पड़ताल है, जहां देह है, कामनाएं हैं, इच्छाएं हैं, दीवानगी है, वंचना है, अधूरापन है और उसे पूरा करने की तलाश है. “लस्ट स्टोरीज” दरअसल चार छोटी-छोटी फिल्मों का कोलाज है. इन हिस्सों को हिंदी सिनेमा की चार नामी हस्तियों अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी और करन जौहर ने डायरेक्ट किया है.
चौथे डायरेक्टर के शानदार होने पर मुझे शुबहा है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बंदा बला का चतुर और दिमागदार है. करन जौहर की निहायत दुनियार किस्म की पैनी नजर की मैं कायल हूं. जोया अख्तर की फैन. उनकी हर फिल्म देखते हुए भावुक हो जाती हूं. लगता है, एक औरत, चाहे वो कितने ही समृद्ध परिवार में पैदा हुई और कितने से ऐशोआराम से क्यों न पली हो, वो लात खाई होती है और जब यह समझ, यह चेतना पा लेती है तो जैसी नजर से जिंदगी को देखती और दिखाती है, किसी मर्द के बूते की बात नहीं. अनुराग कश्यप का दिमाग और कैमरा, दोनों दरअसल एक एक्स-रे मशीन हैं. वो सब देख लेते हैं, जो अक्सर आंखों से चूक जाता है. और दिबाकर बनर्जी, जीवन की हर शै को शक की निगाह से देखने वाला डिटेक्टिव. जितना दिख रहा है, सच उससे कहीं गहरा है. वो उसे हार्ट के ऑपरेशन में इस्तेमाल होने वाले चिमटे से पकड़ते हैं और बिना मैग्नीफाइंग लेंस के सामने रख देते हैं. जो आंखों में दम हो तो देख लो वरना रंग तो और हजार हैं ही देखने को.
तो अपनी-अपनी नजर और अपने अंदाज में ये चार कैमरे और चार दिमाग लस्ट की कहानियां सुना रहे हैं.

अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म के एक दृश्य में राधिका आप्टे और आकाश थोसर
फिल्म की पहली ही कहानी एक टीचर कालिंदी (राधिका आप्टे) और स्टूडेंट तेजस (आकाश थोसर) के रिश्ते की कहानी है. कालिंदी के अपने पति के साथ कैसे रिश्ते हैं, पता नहीं. रिलेशनशिप डिस्टेंस है, ओपन है, उसकी अपनी जिंदगी, इसकी अपनी. फिल्म के बीच-बीच में इंटरव्यू से जान पड़ते लंबे मोनोलॉग हैं. लगता है, कैमरे से बतिया रही है, लेकिन दरअसल खुद से ही रही होती है. वो कहती है, प्यार मतलब आज़ादी. मेरे पति को जो चाहे करने की आज़ादी है, उसने मुझे जो चाहूं करने की आज़ादी दी है. कहती है, ये सब उसके पति ने ही उसे समझाया, सिखाया.
उसकी बातों में दर्शन है, जिंदगी में रायता. अपने एक स्टूडेंट के साथ एक रात सो जाती है. लगता है एक रात की तो बात है, लेकिन डर रही है कि 20 साल का लड़का इमोशनल न हो जाए, प्यार में न पड़ जाए. कोई खबर सुन ले कि टीचर ने स्टूडेंट का सेक्सुअल एडवांटेज लिया तो डर जाती है. चूंकि प्यार में नहीं है तो दोबारा स्टूडेंट के बारे में सोचती भी है तो केंद्र में कामना नहीं होती, मन के डर होते हैं. वो सबकुछ बचा लेना चाहती है, अपनी इमेज, अपना वजूद, अपनी कामना, अपनी देह के अरमान, अपना डर, अपना अकेलापन, अपनी ओपन, प्रोग्रेसिव शादी, अपनी नैतिकता और ईमान भी.
लड़के को लगता है, टीचर के साथ एक रात की बात थी तो वो आगे बढ़ जाता है. कितनी देर रो सकते हैं आप भला. सब जीवन में आगे बढ़ ही जाते हैं.
स्टूडेंट का रिएक्शन ज्यादा ऑर्गेनिक है, टीचर का प्रोग्रेसिव और कॉम्प्लीकेटेड. आजादी कॉम्प्लीकेटेड ही होती है. स्टूडेंट आगे बढ़ जाता है तो टीचर को तकलीफ होती है. पहली रात वो इस बात से डर रही थी कि कहीं वो उसके प्यार में न पड़ जाए, अब इस बात से बेहाल है कि पड़ा क्यों नहीं, कि इतनी आसानी से निकल कैसे गया. वो लड़के की जासूसी करती है, पीछा करती है, लड़के की क्लासमेट के सामने तमाशा करती है, उसके घर जाकर सीन करती है. वो बेचैन है, परेशान है. स्टूडेंट को लगता है, टीचर मुझसे बहुत प्यार करती हैं. वो उनके लिए सब छोड़ने को राजी है और फिल्म के आखिरी दृश्य में टीचर ये कहकर निकल जाती है, “पागल हो गया है क्या, मैं शादीशुदा हूं.”
फिल्म खत्म हो जाती है.
शादी कभी भी सिंपल चीज नहीं थी, फ्यूडल शादी तो बिल्कुल भी नहीं. लेकिन प्रोग्रेसिव भी कहां सिंपल है. टीचर को अपनी महान शादी भी चाहिए, इमेज भी चाहिए और सोशल सिक्योरिटी भी चाहिए,
स्टूडेंट भी चाहिए, अपनी शर्तों पर भी चाहिए, समूचा अपने लिए भी चाहिए, लेकिन उसकी जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं चाहिए.
उसे सबकुछ चाहिए. स्टूडेंट से कोई नहीं पूछता कि उसे क्या चाहिए.
किसे क्या चाहिए? कौन किसके चाहने की परवाह कर रहा है? पॉवर के खेल में जिसके पास पॉवर है, वो तय कर रहा है खेल के नियम. टीचर और स्टूडेंट में टीचर पावर है तो निहायत बेशर्मी से पावर का खेल खेल रही है. प्रोग्रेसिव शादी में औरत कमजोर है तो कमजोरी दिखा भी नहीं पा रही, प्रगतिशीलता की आड़ ले रही है.
ये समूचा विश्लेषण उतना ही जटिल है, जितनी कि फिल्म और जितनी जिंदगी. तय नहीं कर सकते आप, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक. सब गड्डमड्ड है, सब रायता. इस फिल्म में आप अपनी जिंदगी के सब रायते देखते हैं, चकित और विभ्रमित होते हैं. फिर अपनी-अपनी इज्जतदार शादियों में लौट जाते हैं. उसे बचाते हैं, तर्क गढ़ते हैं, राहत महसूस करते हैं कि आप बच गए. ये फिल्म अनुराग ने इसलिए नहीं बनाई कि वो आपको सही-गलत बता सकें, राह दिखा सके, इसलिए बनाई कि आप फिल्म के रायते में कुछ अपना भी रायता देख सकें क्योंकि वो जानते हैं कि जिंदगी के सब रायते एक जैसे रायते हैं.

जोया निर्देशित फिल्म के एक दृश्य में भूमि पेडणेकर
इस कोलाज की दूसरी फिल्म जोया अख्तर की है. फिल्म की शुरुआत ही एक बहुत इंटेंस लव मेकिंग सीन से होती है. दो शरीर पसीने में लथपथ, आपस में गुंथे हुए, एक-दूसरे में एकाकार.
फिल्म के अगले दृश्य में जब सुधा (भूमि पेडणेकर) कमरे से निकल पोंछा लगाने लगती है, तब कहीं जाकर यह सच उजागर होता है कि वो दरअसल काम वाली है. घर का मालिक अजित (नील भूपालम) किसी बड़े दफ्तर में काम करता है, सुधा घर में झाडू, बर्तन, सफाई, खाना करती है. दोनों के बीच एक पावर इक्वेशन है, हालांकि बिस्तर पर उसकी कोई छाया नहीं थी. जमीन पर पांव रखते ही इतनी बड़ी हो जाती है कि उसके बाद हर सीन में चीख-चीखकर दिखाई देती है. हिंदुस्तान के बहुसंख्यक मध्यवर्गीय परिवारों में कामवालियों की जिंदगी से इतर नहीं है सुधा का सच, लेकिन उस सच के भीतर भी सच की कई जटिल पर्तें हैं.
फिर ये होता है कि पहले किसी दूसरे शहर में रह रहे लड़के के माता-पिता आते हैं, फिर अजित को देखने लड़की वाले आते हैं, साथ में सुंदर, सॉफिस्टिकेटेड, कामकाजी, अंग्रेजी बोलने वाली लड़की भी आती है. बाहर अजित की शादी की बात चल रही है, अंदर रसोई में सुधा का दिल बैठा जा रहा है. सब खुश हैं, चहक रहे हैं, लेकिन पर्दे पर सबसे ज्यादा शोर सुधा की चुप्पी का है. अपने डूबते हुए दिल को जैसे-तैसे सिंक में धोकर रखे बर्तनों की तरह जमा रही सुधा तक आखिरकार यह खबर पहुंचती है कि अजित की शादी तय हो गई है. वो बाकी के काम निपटाती है, एहसान की तरह मिली शगुन की मिठाइयों का डिब्बा उठाती है, अपनी रबर की चप्पल पहनती है और चली जाती है.
पूरी फिल्म में सुधा के हिस्से ज्यादा संवाद नहीं हैं. वो सिर्फ काम करती है, करीने से सजे हुए घर के हर कोने में उसकी शाइस्तगी की छाया है, बिलकुल वैसे ही जैसे हर घर उस घर में रह रही औरत की छाया होता है, जबकि वो घर भी सुधा का नहीं है. कामवालियां काम करती हैं, उनकी छाया नहीं होती घरों में. सुधा की है. इसलिए वो है भी और नहीं भी. घर उसका नहीं है, लेकिन वो घर की है. वो बिस्तर भी उसका नहीं था, लेकिन वो उस बिस्तर की है.
पहले ही दृश्य में जिस तरह वो घर के मालिक के संग थी, वो घर की नौकरानी बिलकुल नहीं थी. वो किसी सत्ता के सामने सरेंडर की हुई, खुद को सौंप चुकी औरत नहीं थी. वो देह के खेल में बराबर की हिस्सेदार थी, सुख में हिस्सेदार थी, कामनाओं के आवेग में हिस्सेदार थी, वो सिर्फ दे नहीं रही थी, अपना दावा भी कर रही थी. लेकिन जरूरी नहीं कि दावे में छिपे वादे भी हों.
जब भीतर बहत शोर हो तो बाहर मुर्दहिया शांति होती है.
अजित की शादी की खबर से जो टूटा, वो उसका भरोसा था या भ्रम. जो भी था, जब टूटता है तो सुधा अपने सच में लौट जाती है, बिना रोए, बिना आवाज किए.

दिबाकर बनर्जी निर्देशित फिल्म के एक दृश्य में मनीषा कोईराला और जयदीप आल्हावत
तीसरी कहानी सबसे सरल और सबसे परतदार है. रीना (मनीषा कोईराला) और सुधीर (जयदीप आल्हावत) एक बीच हाउस पर साथ हैं. साथ बहुत सहज और मुतमईन. बिस्तर पर अंतरंग भी हैं, लेकिन वो पति-पत्नी नहीं हैं, ये तभी पता चलता है, जब सुधीर के फोन पर रीना के पति सलमान (संजय कपूर) का फोन आता है. दोनों कॉलेज के दोस्त हैं. फिर लंबे संवादों और लंबी चुप्पियों का दौर है. झगड़े हैं, उलाहने, उम्मीदें, शिकायतें, भ्रम और हकीकत. कुछ भी इतना आसान नहीं हैं कि आप ये मान लें कि किसकी बीवी किसके साथ सो रही है, कौन किसको धोखा दे रहा है, कौन गुनहगार है, कौन पाक-साफ. इन सबके बीच बिजनेस है, पैसा है, सलमान की बीएमडब्ल्यू, सुधीर का बीच हाउस फार्म, सलमान की कंपनी में सुधीर की करोड़ों की इन्वेस्टमेंट.
इस फिल्म में जो जो कहता है, वही नहीं करता.
रीना कहती है कि वो सलमान को तलाक देकर सुधीर के साथ रहना चाहती है, लेकिन ऐसा करती लगती नहीं.
सुधीर इस फैसले के पक्ष में नहीं, लेकिन सबसे ज्यादा सबके पक्ष में वही नजर आता है.
रीना सुधीर से कहती है कि उसने सलमान को उनके रिश्तों के बारे में सबकुछ बता दिया है, लेकिन
सलमान को आखिर तक पता नहीं कि जिस सुधीर के साथ रीना का रिश्ता है, वो ये बीच हाउस वाला ये सुधीर है या इंडियाबुल्स वाला सुधीर.
सलमान से कहती है कि सुधीर को नहीं मालूम कि ये बात तुम्हें भी मालूम है.
सुधीर से कहती है कि सलमान को नहीं मालूम कि ये बात तुम्हें भी मालूम है.
किसे क्या मालूम, कुछ भी नहीं मालूम. अंत में सब ठीक हो गया लगता है. रीना और सलमान अपनी रूटीन जिंदगी में लौट जाते हैं, सुधीर जहां था, वहीं रहता है. फिल्म किसी नतीजे पर नहीं खत्म होती, ऐसा नहीं कि हिरोइन एक हीरो की गोद से उतरकर दूसरे हीरो की गोद में चली जाए. कोई कहीं नहीं जाता, लेकिन फिल्म से गुजरते आपको शिद्दत से समझ आता है कि जो जहां है, वहां से कहीं और जाना चाहता है. हर कोई जो है, बस उसे छोड़ कुछ और ढूंढ रहा है. वो पहचानी हुई जिंदगी से उकताया और बेजार है, लेकिन एक झटके से उसे तोड़ देने का साहस भी नहीं है.
ये कहानी वफा और बेवफाई की नहीं है, उस उकताहट की है, जिसमें हम सब सिर्फ इसलिए रहते चले आते हैं क्योंकि अजनबी भीड़ में उससे एक पहचान का रिश्ता है. खुशी की तलाश "फिअर ऑफ अननोन" है. इसलिए इन उकताए रिश्तों के बीच सारे धोखे, सारी बेवफाइयां भी बस अपने लिए वो एक कतरा खुशी चुरा लाने की कवायद भर हैं. लगता है, लोग रिश्तों में धोखा कर रहे हैं, लेकिन दरअसल कर अपने आपसे ही रहे होते हैं.

करन जौहर निर्देशित फिल्म के एक दृश्य में कियारा आणवाणी और विक्की कौशल
करन जौहर की फिल्म उनकी बाकी फिल्मों की तरह लार्जर देन लाइफ सरीखी है.
कभी खुशी कभी गम जैसी ही आसान है, लेकिन उतनी संस्कारी नहीं.
कहानी एकदम सिंपल. एक सुंदर सी लड़की है, स्कूल में पढ़ाती है. उसकी शादी होती है. शादी की पहली रात ही ये क्लीयर हो जाता है कि पतिदेव 5 सेकेंड से ज्यादा बैटिंग नहीं कर सकते. दिन पर दिन गुजरते हैं, कहानी वही रहती है. सास कहती है, सेक्स सिरदर्द है. औरत के लिए बच्चे से बढ़कर क्या सुख. जिन औरतों ने कभी ऑर्गज्म को महसूस भी न किया हो, उनके लिए अपने पति के साथ सोना ड्यूटी बजाने जैसा ही होता है. लड़की के कॉलेज में एक तलाकशुदा आजादख्याल औरत है, जो लाइब्रेरी में डिल्डो लेकर मास्टरबेट करती है. लड़की उसका डिल्डो लेकर घर आती है, मास्टरबेट करने की कोशिश करती है, लेकिन हालात कुछ ऐसे हो जाते हैं कि पूरा कांड भरे हॉल में सबके सामने घटता है. संस्कारी सास कुसंस्कारी बहु को मायके पटक आती है. सेक्स के लिए बावला हो रहा पति एक महीने बाद उसे वापस लेने जाता है. कहता है, माफी मांग लो. लड़की इनडायरेक्टली जो बोलती है, उसका डायरेक्ट मतलब ये है कि मैंने कोई गलती नहीं कि जो मैं माफी मांगूं. सेक्स में मेरा सुख भी होना चाहिए, ये सिर्फ तुम्हारे बारे में नहीं है. मतलब कि मास्टरबेट करने का कोई गिल्ट नहीं और मुझे भी ऑर्गेज्म चाहिए.
फुल टू केजी3 टाइप ड्रामा, लेकिन फिल्म की फिलॉसफी एकदम सटीक. औरतों को भी ऑर्गेज्म चाहिए. आदमी को बात समझ आती है तो ठीक, नहीं आती तो डिल्डो जिंदाबाद.
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Tags: Lust Stories, Netflix
FIRST PUBLISHED : July 06, 2018, 12:00 IST