औरतें क्यों हैं शर्मिंदा
मैं तब ग्यारहवीं में पढ़ती थी. जाड़े की शाम थी. कमरे में सब बैठे थे और मैं आधी रजाई में, आधी बाहर अधलेटी तसलीमा नसरीन की किताब पढ़ रही थी- ‘औरत के हक में.’ उस किताब में एक जगह वो लिखती हैं कि कैसे एक बार जब वो स्कूल जा रही थीं तो सूनसान सड़क एक आदमी अपनी पैंट की जिप खोलकर खड़ा हो गया. फिर वो स्कूल जाने से डरने लगीं.
यूं तो वो पूरी किताब ही ऐसी तमाम कहानियों से भरी थी, जो मेरी और मेरे आसपास की अनगिनत लड़कियों की कहानियां थीं. लेकिन अब तक मुझे ये नहीं पता था कि ये बातें लिखी भी जाती हैं, कि ये बातें लिखी भी जा सकती हैं. ये स्कूल के रास्ते वाली कहानी पढ़कर मुझे अपने स्कूल की कहानी याद आई. वो कहानी, जो मैंने कभी किसी को नहीं सुनाई, यहां तक कि खुद को भी नहीं. वो वक्त और समाज की परवरिश ही कुछ ऐसी थी कि लड़कियों को बिना कहे भी पता होता था कि कौन सी बात कभी किसी से कहनी नहीं चाहिए.
तसलीमा की उस कहानी में नई बात ये नहीं थी कि स्कूल के रास्ते में एक आदमी अपनी पैंट खोलकर खड़ा हो गया था, नई बात थी उस बात को किताब में लिखा जाना और इस तरह लिखा जाना कि उस पर सवाल करना, समाज पर सवाल करना, परिवार पर सवाल करना, मां-बाप पर सवाल करना. इस तरह लिखा जाना कि नंगा कोई और था और शर्मिंदा थी मैं. लिखा जाना उस डर को, जो उस दिन के बाद हर रोज स्कूल के रास्ते में उसका पीछा करता रहा. लिखा जाना उस अकेलेपन को, जो दस साल की उस लड़की के हिस्से इसलिए आया क्योंकि वो किसी को अपना डर बता नहीं पाई.
नई बात थी, उसे लिखना, उसे सबके सामने बोलना, स्वीकार करना, न डरना, न खुद पर शर्मिंदा होना.
वरना उस दिन मेरे साथ स्कूल के रास्ते में पहली बार और उसके बाद जाने कितनी बार जो हुआ, उसे लेकर मैं खुद में ही शर्मिंदा हुई रहती थी. अपने आप से ही डरती थी. मैं शर्मिंदा थी, इसलिए इसके बारे में कभी बात नहीं की. जबकि उस वक्त मैं सिर्फ चौथी क्लास में थी और घर आकर मां को दिन भर की स्कूल की, मतलब-बेमतलब की सारी कहानियां सुनाती. लेकिन उस दिन कहानी का ये हिस्सा मैं छिपा ले गई कि आज सुबह जब मैं स्कूल जा रही थी तो खाली सड़क पर एक आदमी अपनी पैंट खोलकर खड़ा था. मैंने कुछ बहुत अजीब सी चीज देखी. वो बहुत डरावनी थी.
न मैंने मां को बताया, न उन्हें मालूम हुआ कि उनकी बड़ी होती बेटी पर हिंदुस्तान के संस्कारी मर्दों की मर्दानगी के रंग तारी होने शुरू हो चुके थे.
ये 1990 की बात है. पिछले 29 सालों में मैंने ये बात कभी किसी को नहीं बताई, न कभी लिखी. हालांकि उसके बाद ऐसी बातें जिंदगी में इतनी बार दोहराई गईं कि धीरे-धीरे शायद मुझे इसकी आदत सी पड़ गई. पहले डर लगता था, फिर गुस्सा आने लगा. और फिर गुस्से की जगह एक ऐसे दुख ने ले ली, जो जीवन का स्थाई भाव सा हो गया.
अभी कल से इंटरनेट पर मुंबई की उस लड़की की एक पोस्ट वायरल हो रही है. एक लड़की देर रात अपने घर के पास एटीएम में पैसे निकालने जाती है और एक आदमी अंदर घुसकर, पैंट खोलकर अपनी मर्दानगी का पोस्टर दिखा रहा है. उसी मुंबई शहर में एक बार सुबह साढ़े पांच बजे चर्चगेट स्टेशन के सब-वे में एक आदमी ने मेरे साथ ऐसी ही हरकत की थी और मैं डरकर प्लेटफार्म नंबर तीन की जगह चार की सीढ़ियां चढ़ गई थी. लेकिन परसों रात ऐसा नहीं हुआ. लड़की न डरी, न घबराई. उसे जैसे ही एहसास हुआ कि वो आदमी क्या कर रहा है, उसने तुरंत अपना मोबाइल निकाला, उस आदमी का वीडियो बनाया, उसके खिलाफ पुलिस स्टेशन में जाकर एफआईआर की और अब वो सलाखों के पीछे है.
बहुत साल पहले एक पेंटिंग देखी थी. एक पुरुष बिल्कुल निर्वस्त्र है और एक स्त्री ने शर्मिंदगी में अपना चेहरा छिपा रखा है. यही तो होता रहा है सदियों से. मर्द की नंगई पर औरत शर्मिंदा है.
अब ये नरेटिव बदल रहा है. इंटरनेट पर वो पोस्ट वायरल हो गई है. पूरे देश ने उस आदमी का चेहरा और उसकी हरकत देख ली है. उसके परिवार के लोगों ने भी. बीवी-बच्चों के भरे-पूरे परिवार वाला शादीशुदा आदमी. मां-बाप, रिश्तेदार सब होंगे उसके. उसकी बीवी देख रही है, पति का कारनामा. बच्चे देख रहे हैं उस बाप को, जिससे अब तक लडि़याते रहे होंगे. उसके मां-बाप देख रहे हैं सपूत की हरकत. उसकी मर्दानगी का पोस्टर पूरे इंटरनेट पर छाया है. पूरा देश देख रहा है.
अब वो आदमी शर्मिंदा है. लड़की नहीं.
29 साल में दुनिया काफी बदल गई है. लड़कियां बदल गई हैं. टेक्नोलॉजी बदल गई है.
लेकिन सवाल ये है कि 29 साल में इस देश के मर्द कितने बदले हैं? अभी कुछ साल पहले बनारस में लड़कियों ने शिकायत की थी कि बीएचयू कैंपस के भीतर गर्ल्स हॉस्टल के बाहर भी मर्द ऐसी हरकतें करते थे. लड़कियों ने सिर्फ मुंह से कहा था और इतना कहने भर में डर और शर्मिंदगी से उनकी जबान लरज रही थी. लड़कियों ने कहा, किसी ने माना नहीं. न माना, न कोई एक्शन ही लिया. लड़कियां बोलकर, चिल्लाकर चुप हो गईं.
सवाल ये भी उठता है कि मर्द आखिर ऐसा करते क्यों हैं? उनका ये नरेटिव आता कहां से है? उन्हें क्या लगता है कि वो एटीएम के अंदर घुसकर, खाली सड़क पर, बंद कमरे में कहीं भी लड़की के सामने अपनी पैंट की जिप खोलकर खड़े हो जाएंगे और लड़की मुग्ध होकर बिछ जाएगी. मर्दों की सारी बुद्धि, सारा ज्ञान इस कदर उनके एक टूल पर ही क्यों केंद्रित है. वो इस कदर उस टूल के गुलाम क्यों हैं कि उसके परे न उन्हें कुछ दिखाई देता है, न समझ आता है. सदियों के नरेटिव ने शरीर को औरत के जीवन का केंद्र बना रखा है, लेकिन सच तो ये है कि मर्द का सारा नरेटिव उसके एक मामूली से टूल पर ही केंद्रित है. और उस पर ये तुर्रा ये कि उसे इस बात का गर्व भी है.
वो तो मुंबई शहर था. लड़की पढ़ी-लिखी, जागरूक, अंग्रेजीदां.
लेकिन मुझे यकीन है, इलाहाबाद में ताराचंद हॉस्टल के सामने बैंक रोड पर, आलू मिल वाले सूनसान रास्ते पर अब भी मर्द मौका पाते ही अपनी पैंट खोलकर खड़े हो जाते होंगे. सामने से गुजरने वाली उम्रदराज औरत हो या चौथी क्लास की कोई बच्ची. ये सब करके वो मर्द ठाठ से अपने घर जाते होंगे और उनके घरवालों को कभी पता नहीं चलेगा कि वो क्या करके आए हैं. वो कभी अपने किए पर शर्मिंदा नहीं होंगे.
ये जो आप पढ़ रहे हैं, ये हिंदी में लिखा है. दिल्ली-मुंबई की अंग्रेजीदां लड़कियां इसे नहीं पढ़ने वाली. आप पढ़ रही हैं, हिंदी समाज की लड़कियां.
अगर कल आपके साथ स्कूल, कॉलेज और दफ्तर के रास्ते में कोई आदमी ऐसी हरकत करे तो उसका वीडियो बनाइए और पुलिस के पास जाइए. किसी के डराने से डरिए मत. न शर्मिंदा होइए. और ज्यादा डर लगे तो इस आर्टिकल के साथ लगे हाइपरलिंक पर जाकर मुंबई वाली घटना को तफसील से पढि़ए. तसलीमा की वो किताब पढि़ए, ‘औरत के हक में.’
यकीन मानिए, बोलने से डर चला जाता है. बोलने से खुद पर भी यकीन आता है. बोलना बहुत अच्छी बात है.
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