Shayari: लाज़िम नहीं हर शख़्स ही अच्छा मुझे समझे, पढ़ें रसा चुग़ताई की शायरी

Shayari: 'पढ़ें रसा चुग़ताई की शायरी
रसा चुग़ताई की शायरी (Rasa Chughtai Shayari): तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूं, मैं ज़िंदा था कि अब ज़िंदा हुआ हूं, जिन आंखों से मुझे तुम देखते हो, मैं उन आंखों से दुनिया देखता हूं...
- News18Hindi
- Last Updated: January 23, 2021, 11:01 AM IST
रसा चुग़ताई की शायरी (Rasa Chughtai Shayari) : रसा चुग़ताई एक नामचीन शायर थे जिनका नाम किसी तार्रुफ़ का मोहताज नहीं था. रसा चुग़ताई को कई लोग रसा कहकर भी बुलाते थे. रसा चुग़ताई का असल नाम मिर्ज़ा मुहताशिम अली बेग था. रसा चुग़ताई का जन्म जयपुर राजस्थान में हुआ था. हालांकि बाद में वो पाकिस्तान की राजधानी कराची में बस गए थे. रसा चुग़ताई की शायरी में प्यार, इंतजार और कशिश बखूबी देखने को मिलती है. आज हम आपके लिए रेख्ता के साभार से लेकर पेश हुए हैं रसा चुग़ताई की शायरी...
1. तेरे आने का इंतिज़ार रहा
उम्र भर मौसम-ए-बहार रहा
पा-ब-ज़ंजीर ज़ुल्फ़-ए-यार रहीदिल असीर-ए-ख़याल-ए-यार रहा
साथ अपने ग़मों की धूप रही
साथ इक सर्व-ए-साया-दार रहा
मैं परेशान-हाल आशुफ़्ता
सूरत-ए-रंग-ए-रोज़गार रहा
आइना आइना रहा फिर भी
लाख दर-पर्दा-ए-गुबार रहा
कब हवाएँ तह-ए-कमंद आईं
कब निगाहों पे इख़्तियार रहा
तुझ से मिलने को बे-क़रार था दिल
तुझ से मिल कर भी बे-क़रार रहा .
इसे भी पढ़ें: Shayari: आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया, पढ़ें इस्माइल मेरठी की शायरी
2. तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
मैं ज़िंदा था कि अब ज़िंदा हुआ हूँ
जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो
मैं उन आँखों से दुनिया देखता हूँ
ख़ुदा जाने मिरी गठरी में क्या है
न जाने क्यूँ उठाए फिर रहा हूँ
ये कोई और है ऐ अक्स-ए-दरिया
मैं अपने अक्स को पहचानता हूँ
न आदम है न आदम-ज़ाद कोई
किन आवाज़ों से सर टकरा रहा हूँ
मुझे इस भीड़ में लगता है ऐसा
कि मैं ख़ुद से बिछड़ के रह गया हूँ
जिसे समझा नहीं शायद किसी ने
मैं अपने अहद का वो सानेहा हूँ
न जाने क्यूँ ये साँसें चल रही हैं
मैं अपनी ज़िंदगी तो जी चुका हूँ
जहाँ मौज-ए-हवादिस चाहे ले जाए
ख़ुदा हूँ मैं न कोई नाख़ुदा हूँ
जुनूँ कैसा कहाँ का इश्क़ साहब
मैं अपने आप ही में मुब्तिला हूँ
नहीं कुछ दोश उस में आसमाँ का
मैं ख़ुद ही अपनी नज़रों से गिरा हूँ
तरारे भर रहा है वक़्त या रब
कि मैं ही चलते चलते रुक गया हूँ
वो पहरों आईना क्यूँ देखता है
मगर ये बात मैं क्यूँ सोचता हूँ
अगर ये महफ़िल-ए-बिंत-ए-इनब है
तो मैं ऐसा कहाँ का पारसा हूँ
ग़म-ए-अंदेशा-हा-ए-ज़िंदगी क्या
तपिश से आगही की जल रहा हूँ
अभी ये भी कहाँ जाना कि 'मिर्ज़ा'
मैं क्या हूँ कौन हूँ क्या कर रहा हूँ .
3. मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे
लाज़िम नहीं हर शख़्स ही अच्छा मुझे समझे
है कोई यहाँ शहर में ऐसा कि जिसे मैं
अपना न कहूँ और वो अपना मुझे समझे
हर-चंद मिरे साथ रहे अहल-ए-बसीरत
कुछ अहल-ए-बसीरत थे कि तन्हा मुझे समझे
मैं आज सर-ए-आतिश-ए-नमरूद खड़ा हूँ
अब देखिए ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा क्या मुझे समझे .
1. तेरे आने का इंतिज़ार रहा
उम्र भर मौसम-ए-बहार रहा
पा-ब-ज़ंजीर ज़ुल्फ़-ए-यार रहीदिल असीर-ए-ख़याल-ए-यार रहा
साथ अपने ग़मों की धूप रही
साथ इक सर्व-ए-साया-दार रहा
मैं परेशान-हाल आशुफ़्ता
सूरत-ए-रंग-ए-रोज़गार रहा
आइना आइना रहा फिर भी
लाख दर-पर्दा-ए-गुबार रहा
कब हवाएँ तह-ए-कमंद आईं
कब निगाहों पे इख़्तियार रहा
तुझ से मिलने को बे-क़रार था दिल
तुझ से मिल कर भी बे-क़रार रहा .
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2. तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
मैं ज़िंदा था कि अब ज़िंदा हुआ हूँ
जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो
मैं उन आँखों से दुनिया देखता हूँ
ख़ुदा जाने मिरी गठरी में क्या है
न जाने क्यूँ उठाए फिर रहा हूँ
ये कोई और है ऐ अक्स-ए-दरिया
मैं अपने अक्स को पहचानता हूँ
न आदम है न आदम-ज़ाद कोई
किन आवाज़ों से सर टकरा रहा हूँ
मुझे इस भीड़ में लगता है ऐसा
कि मैं ख़ुद से बिछड़ के रह गया हूँ
जिसे समझा नहीं शायद किसी ने
मैं अपने अहद का वो सानेहा हूँ
न जाने क्यूँ ये साँसें चल रही हैं
मैं अपनी ज़िंदगी तो जी चुका हूँ
जहाँ मौज-ए-हवादिस चाहे ले जाए
ख़ुदा हूँ मैं न कोई नाख़ुदा हूँ
जुनूँ कैसा कहाँ का इश्क़ साहब
मैं अपने आप ही में मुब्तिला हूँ
नहीं कुछ दोश उस में आसमाँ का
मैं ख़ुद ही अपनी नज़रों से गिरा हूँ
तरारे भर रहा है वक़्त या रब
कि मैं ही चलते चलते रुक गया हूँ
वो पहरों आईना क्यूँ देखता है
मगर ये बात मैं क्यूँ सोचता हूँ
अगर ये महफ़िल-ए-बिंत-ए-इनब है
तो मैं ऐसा कहाँ का पारसा हूँ
ग़म-ए-अंदेशा-हा-ए-ज़िंदगी क्या
तपिश से आगही की जल रहा हूँ
अभी ये भी कहाँ जाना कि 'मिर्ज़ा'
मैं क्या हूँ कौन हूँ क्या कर रहा हूँ .
3. मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे
लाज़िम नहीं हर शख़्स ही अच्छा मुझे समझे
है कोई यहाँ शहर में ऐसा कि जिसे मैं
अपना न कहूँ और वो अपना मुझे समझे
हर-चंद मिरे साथ रहे अहल-ए-बसीरत
कुछ अहल-ए-बसीरत थे कि तन्हा मुझे समझे
मैं आज सर-ए-आतिश-ए-नमरूद खड़ा हूँ
अब देखिए ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा क्या मुझे समझे .