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अंग्रेजों को बैन करनी पड़ी थी बहादुर शाह ज़फ़र की लिखी ये ग़ज़ल

बहादुर शाह ज़फ़र

बहादुर शाह ज़फ़र

शाह आलम अब सिर्फ नाम भर के मुग़ल सम्राट रह गए थे. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि, 'सल्तनत-ए-शाह आलम, अज़ दिल्ली ते पालम'

    बिहार के बक्सर में युद्ध चल रहा था. इधर 40 हज़ार की फ़ौज थी और उधर बमुश्किल 7-8 हज़ार लड़ाके रहे होंगे. इनके पास 140 तोपें थीं और ईस्ट इंडिया कंपनी के पास सिर्फ 30. इधर मुग़ल सम्राट शाह आलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर क़ासिम थे और उधर सिर्फ एक अंग्रेजी सेनापति हेक्टर मुनरो था. मुनरो युद्धकौशल का माहिर था, वह बक्सर का युद्ध लड़ने नहीं जीतने आया था. उसने युद्ध से पहले ही कुछ मुग़ल और नवाब के विश्वासपात्रों को खरीद लिया था.

    परिणाम यह हुआ कि मुग़ल और नवाबों की 'भीड़' ने मात्र 3 घंटे में घुटने टेक दिए. अब बंगाल पर अंग्रेजों का राज स्थापित हो गया. इस युद्ध में मीरकासिम के साथ-साथ अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाहआलम II भी अंग्रेजों से हारे थे. दोनों अंग्रेजों की शरण में चले गए. अंग्रेजों ने इलाहाबाद की संधि करके बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी हासिल कर ली. अब अंग्रेजों की पहुंच दिल्ली तक हो चुकी थी. अंग्रेज भारत के दूसरे इलाकों में भी नियोजित तरीके से बढ़ रहे थे.

    इधर बक्सर की हार के बाद शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली) का क़िला-ए-मुबारक, क़िला-ए-मनहूसियत में तब्दील हो चुका था. पहले लाल क़िला का नाम क़िला-ए-मुबारक ही था.

    शाह आलम अब सिर्फ नाम भर के सम्राट रह गए थे. लोगों ने कहने लगे कि,

    'सल्तनत-ए-शाह आलम, अज़ दिल्ली ते पालम'

    मतलब कि शाह आलम की सल्तनत दिल्ली का एक इलाक़े पालम तक ही रह गई है. 1806 में शाह आलम की मौत के बाद अकबर शाह गद्दी पर बैठे. कहने को तो वे भी एक सम्राट थे लेकिन अब तो सल्तनत पालम तक भी नहीं रह गई थी. अकबर शाह II को अंग्रेजों से चिढ़ थी, अंग्रेज भी इस बात से बेख़बर नहीं थे उन्होंने साल 1835 में अकबर शाह का 'ओहदा सम्राट' से घटाकर 'दिल्ली का राजा' कर दिया. और सिक्कों से भी पारसी भाषा में लिखे सम्राट का नाम हटाकर अंग्रेजी में कंपनी के नाम से सिक्के निकालने शुरू कर दिए.

    अकबर शाह ने 1837 में अपनी मौत से पहले बड़े बेटे के बजाय छोटे बेटे बहादुर शाह 'ज़फ़र' को गद्दी सौंपने का फैसला किया. बहादुर शाह 'ज़फ़र' का मिज़ाज सूफ़ियाना था. वे उर्दू के एक ज़बरदस्त शायर थे. लेकिन राज-पाट शाइरी से नहीं चलता. बादशाही लगभग खत्म हो चुकी थी. अग्रेजों ने तय कर लिया था कि बहादुर शाह की मौत के बाद लाल क़िले को भी खाली करा लिया जाएगा.

    इतिहास बहादुर शाह को शायर के नाम से ही जानता लेकिन 11 मई 1857 को सुबह कुछ विद्रोही सिपाहियों का गुट मेरठ आ पहुंचा. उन्होंने बहादुर शाह II से कहा कि वे हिंदुस्तान के बादशाह हैं और उन्हें अपनी गद्दी संभालनी चाहिए. सिपाहियों के आग्रह पर चांदी का सिंहासन बंद पड़े कमरे से निकलवाया गया, उसे साफ किया गया. बहादुर शाह ''ज़फ़र'' से शहंशाह-ए-हिंद हो गए. लोगों ने कहा 'चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात'.

    बहादुर शाह ने फ़रमान जारी किया कि हिंदू और मुसलमानों को मिलकर विद्रोहियों का साथ देना चाहिए. लोग साथ आए भी, कार्ल मार्क्स ने 1857 की क्रांति की तुलना फ्रांस की क्रांति से की. इस विद्रोह ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा. लेकिन अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए बर्बरता की सारी हदें पार कर दीं. पेड़ों से लटकाकर लोगों को फांसी दी जा रही थी, लोगों को तोप से बांधकर उड़ाया जा रहा था. गांव के गांव जलाकर ख़ाक किए जा रहे थे. सड़कें कब्रिस्तान हो गईं थीं, चारों ओर सिर्फ लाशें दिख रही थीं... क्रांति ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी. अंग्रेजों की इस बर्बरता को देख बहाहुर शाह ने लिखा-

    ''ज़फ़र'' आदमी उसको न जानियेगा, हो वह कैसा ही साहबे, फ़हमो-ज़का
    जिसे ऐश में यादे-ख़ुदा न रही, जिसे तैश में ख़ौफ़े खुदा न रहा

    पूरी तरह से तबाह हो चुकी दिल्ली पर बहादुर शाह लिखते हैं कि-

    नहीं हाले-दिल्ली सुनाने के क़ाबिल
    ये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिल
    उजाड़े लुटेरों ने वो क़स्र उसके
    जो थे देखने और दिखाने के क़ाबिल
    न घर है न दर है, रहा इक 'ज़फ़र' है
    फ़क़त हाले-देहली सुनाने के क़ाबिल

    अंग्रेजों के ख़िलाफ साज़िश के इल्ज़ाम में बहादुर शाह 'ज़फ़र' पकड़ लिए गए. और इन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया. दिल्ली से जाते हुए उन्होंने लिखा-

    जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चले
    बतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चले
    न बाग़बां ने इजाज़त दी सैर करने की
    खुशी से आए थे रोते हुए चमन से चले

    निर्वासन के दौरान ही बहादुर शाह 'ज़फ़र' ने एक ग़ज़ल लिखी थी ये इतनी मशहूर हुई कि अंग्रेजों को उस पर भी प्रतिबंध लगाना पड़ा था.

    ‘गई यक़–बयक जो हवा पलट
    नहीं दिल को मेरे क़रार है,
    करूं इस सितम को मैं क्या बयां
    मेरा गम से सीना फ़िगार है,
    ये रियाया हिन्द हुई तबाह
    कहूं क्या क्या इनपै ज़फ़ा हुई
    जिसे देखा हाक़िमे वक़्त ने
    कहा ये भी क़ाबिलेदार है.’

    निर्वासन के दौरान बहादुर शाह 'ज़फ़र' बहुत दुखी थे. उनको मलाल था कि मौत भी उन्हें दूसरे मुल्क में मिल रही है-

    लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
    किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में
    बुलबुल को बाग़बां से न सय्याद से गिला
    क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
    कहदो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
    इतनी जगह कहां है दिले दाग़दार में
    एक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
    कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार में
    उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
    दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
    दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
    फैला के पांव सोएंगे कुंजे मज़ार में
    कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
    दो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कूए-यार में

    7 नवंबर, 1862 की तारीख को बहादुर शाह 'ज़फ़र' ने दुनिया को अलविदा कह दिया था. वहीं रंगून में ही उन्हें दफनाया गया था.

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    Tags: 1857 Indian Mutiny, Delhi, Lifestyle, Well know writer

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