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जो ख़रीदने आए हों, उनसे कह दो कि हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता: धर्मवीर भारती

फ़ोटो: वाणी प्रकाशन

फ़ोटो: वाणी प्रकाशन

भारती जी को समझ आ चुका था कि एक युग का क्रांतिकारी युग-युग का ईश्वर बन जाता है. यह विचार उनकी कविताओं में भी परिलक्षित ...अधिक पढ़ें

    उन दिनों आशिकों के पास फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजने के दो टूल हुआ करते थे. एक ख़त और दूसरा कॉलेज के पेड़. कभी-कभी कोई झुंझलाकर कॉलेज डेस्क या दीवार पर भी हाल-ए-दिल बयां कर जाता था. लेकिन प्रेम सामीप्य मांगता है. और उसके लिए जान-पहचान होनी ज़रूरी है. सुधा को चंदर से प्रेम था और चंदर को भी सुधा से प्रेम था, लेकिन सुधा के पिता चंदर को पढ़ाते थे और बहुत मानते थे. आदर्श और एहसान में फंसे चंदर के द्वंद को लड़कों ने समझा. 'गुनाहों का देवता' उपन्यास छुप-छुपकर पढ़ा गया.

    पेट भरा हो तो सपने जन्मते हैं. लेकिन सपनों को सच करने के लिए मिडिल क्लास के पास औज़ार कम होते हैं. सो वह आधा सपने में जीता है और आधा यथार्थ में. मणिक मुल्ला भी अधड़ में ही लटके रह जाते हैं. शुरुआत में तो आलोचकों ने मुंह बनाया लेकिन बाद में सबको मानना पड़ा कि 'सूरज का सातवां घोड़ा' हिंदी में स्टोरी टेलिंग का एक सफल और नायाब प्रयोग है.

    साल 1935 में हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला छपी. लोकप्रिय इस तरह हुई कि हर साहित्य प्रेमी की चर्चा-परिचर्चा में मधुशाला शामिल थी. साहित्य प्रेमी कैप्सूल की तरह मधुशाला की पंक्तियां सुबह-शाम ले रहे थे. धर्मवीर भारती का किशोर मन भी अभिव्यक्त होने के लिए आकुल हो उठा. पिता के देहावसान के बाद भारती जी के दिन घनघोर ग़रीबी में गुज़र रहे थे. छोटी सी उम्र से ही ट्यूशन पढ़ाया, खुद की पढ़ाई वज़ीफ़ों के सहारे चल रही थी. कपड़े और लत्तों में फ़र्क नहीं रह गया था. भूखे पेट सोने की आदत हो चली थी. लेकिन किताबों के बिना वे नहीं रह पाते थे.

    लिखना शुरू किया. कभी प्रेम का आह्वान करते तो कभी आज़ादी का. किशोर भारती का कच्चा मन कभी इधर, कभी उधर, झुकता-बढ़ता चल रहा था. एक तरफ़ वे 'ज़िंदगी की आग में सुलग रहा इंसान, लाल रोशनी से भर रहा है ये जहान' जैसी कविताएं लिख रहे थे तो दूसरी तरफ़ 'दोनों नयनों में प्यार की शराब भर' जैसी कविता भी उसी मन से फूट रही थी. भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद को पूजते थे. गांधी जी के आह्वान पर कॉलेज छोड़ दिया, और उस समय के छात्र नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा के साथ हो लिए. मामा-मामी के पास रहते थे और मिट्टी के चूल्हे के पीछे हथियार छुपाए.

    भारती जी को समझ आ चुका था कि एक युग का क्रांतिकारी युग-युग का ईश्वर बन जाता है. यह विचार उनकी कविताओं में भी परिलक्षित होने लगा. 'यह सब देख रहा हूं, फिर भी तुम कहती हो प्यार करूं मैं. यानी मुर्दों की छाती पर, स्वपनों का व्यापार करूं मैं.' जैसी पंक्तियां वे लिखने लगे. लेकिन धर्मवीर भारती का कच्चापन उम्र से पहले जाता रहा.

    चेक बुक हो पीली या लाल,
    दाम सिक्के हों या शोहरत-
    कह दो उनसे
    जो ख़रीदने आये हों तुम्हें
    हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता है!

    प्रेम कविताएं लिखने वाले भारती की कहानियां, निबंध, कविताएं, समीक्षा, उपन्यास, नाटक छपने लगे. बहुत जल्द वह एक बड़े और परिपक्व व्यक्तित्व में ढल गए. जब सभी महाभारत के 'धर्मयुद्ध' की कहानी कह रहे थे तो धर्मवीर भारती महाभारत के बाद की कहानी लिखते हैं.

    कृष्ण सुनो!
    तुम यदि चाहते तो रुक सकता था युद्ध यह
    मैंने प्रसव नहीं किया था कंकाल यह
    इंगित पर तुम्हारे ही भीम ने अधर्म किया
    क्यों नहीं तुमने वह शाप दिया भीम को

    कहानी ऐसी जो युद्ध के औचित्य पर सवाल खड़ा करती है. जो प्रेम, मानवता, आस्था के टूटने की दास्तान है. जो अंधे स्वार्थ की चक्की में पिसी ममता का दर्द बयान करती है. वैभव के बाद पराभव को देख रहे पहरेदार उदास हैं. क्योंकि इस अंधेयुग का युद्ध, धर्मयुद्ध नहीं महाविनाश है. इसमें सिर्फ कुंठा, निराशा, पराजय, अनास्था, प्रतिशोध, आत्मघात और पीड़ा है.

    धर्मवीर भारती ने 1971 की लड़ाई अपने आंखों से देखी थी. बांग्लादेश युद्ध के दौरान वे कर्नल नागरा और ब्रिगेडियर क्लेयर की सेनाओं के साथ युद्धक्षेत्र में गए थे. इन्होंने युद्ध को क़रीब से देखा और अपने विवेक से समझा. धर्मवीर भारती पूरे इलाहाबादी थे. दिल से रोमांटिक, विवेक से मार्क्सवादी और राष्ट्रप्रेम तो नसों में दौड़ता था. हिंदी से लगाव था और जब हिंदी पट्टी के लोगों को अंग्रेजीपरस्त लोगों ने 'काऊ बेल्ट' की संज्ञा देने लगे तो भारती जी ने उनकी जमकर ख़बर ली. हिंदी पट्टी के लोगों को सम्प्रदायवादी और पिछड़ा कहने पर उन्होंने एक लेख लिखा था. अपने इस लेख में वे ना केवल हिंदी पट्टी की उपलब्धियां गिनाते हैं बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब का मतलब भी समझाते हैं. और जवाब में अंग्रेज़ीपरस्त लोगों को 'कांव कांव बेल्ट' की संज्ञा से नवाज़ते हैं.

    धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य के सच्चे सेवक रहे. जीवन के अंतिम समय में भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. शरीर की कमज़ोरी कभी क़लम में नहीं उतरने दी. जो भी लिखा पैना लिखा, गहरा लिखा और टक्कर का लिखा. 4 सितम्बर 1997 को मुंबई में इन्होंने अंतिम सांस ली थी. धर्मवीर भारती अपने समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे. डॉ धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.

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