सारे रंग अच्छे हैं, सारे रंग सुंदर, आर्टिकल 377
ये कोई कहानी नहीं, एक सच्ची घटना है. वो दोनों पहली बार ऑक्सफोर्ड में मिले थे. दोनों कलकत्ता के संभ्रांत कम्युनिस्ट बंगाली परिवार से आते थे, दोनों को प्यार हो गया, दोनों ने एक-दूसरे से कहा कि प्यार है और सात साल बाद हिंदुस्तान लौटने पर दोनों ने शादी कर ली.
ये तकरीबन 28 साल पुरानी बात है. सात साल ऑक्सफोर्ड में रहने के दौरान एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि दोनों के बीच कोई नजदीकी हुई हो. उन दिनों को याद करते हुए वो बताती कि गले मिलना या कभी-कभार चूमने से ज्यादा हमारे बीच कुछ नहीं हुआ. सात साल के रिश्ते में लड़के ने कभी सेक्स की इच्छा जाहिर नहीं की और लड़की को इसमें कुछ अजीब भी नहीं लगा. अब अजीब लगता है सुनकर, लेकिन तब उसे नहीं लगा था. 70 के दशक में कलकत्ता के भद्रलोक में बड़ी हो रही लड़की को मां ने वो सारे सबक सिखाए थे, जो अपना चरित्र संभालकर रखने के लिए हर लड़की को सिखाए जाते हैं. उसमें शादी के पहले सेक्स न करने की हिदायत से लेकर यह सबक तक शामिल था कि लड़के जिन लड़कियों से बिना शादी सेक्स कर लेते हैं, उनकी इज्जत नहीं करते. जो लड़का इज्जत करेगा, वो शादी से पहले तुम्हें हाथ नहीं लगाएगा.
लड़के ने लड़की को हाथ नहीं लगाया, लड़की ने माना कि वो उसकी इज्जत करता है. वो इतनी इज्जत पाकर खुश थी. देह के सारे अरमानों ने शादी होने तक इंतजार करना स्वीकार किया. लेकिन त्रासदी ये कि शादी तो हुई पर देह का इंतजार खत्म नहीं हुआ. आज उसकी उम्र 55 पार हो रही है और आज भी उस समय को याद करते हुए उसकी जबान लरजने लगती है, आंखें भर आती हैं.
उसने उस बंगाली भद्र लड़के के साथ शादी में 6 साल गुजारे और इन छह सालों में छह बार भी उनके बीच ठीक से सेक्स नहीं हुआ. उसे याद है ऑक्सफोर्ड की वो शाम, जब एक बार वो लड़कियों की तरह कपड़े पहनकर आया था. लड़की को थोड़ा अजीब जरूर लगा, लेकिन वो इसे मजाक समझकर भूल गई. उस मजाक का सच शादी के बाद कहीं जाकर उजागर हुआ कि उसका पति समलैंगिक था. सात साल तक रिलेशनशिप में रहते हुए भी उसे न छूने की वजह कोई सम्मान या इज्जत नहीं थी, बल्कि सेक्सुअली उसका इंटरेस्ट ही लड़कियों में नहीं था.
लड़की की त्रासदी ये थी कि लड़का होमोसेक्सुअल था और लड़के की त्रासदी ये कि ये बात वो अपनी पत्नी से तो क्या, अपने आप से भी स्वीकारने को तैयार नहीं था. वो कोई बुरा इंसान नहीं था, एकेडमिक्स की दुनिया का जाना-माना नाम था, दुनिया-जहान की किताबें पढ़ता और पढ़ाता था, लेकिन इस डर से वो भी नहीं निकल पाया कि अपनी सेक्सुएलिटी को स्वीकार करने का मतलब है सामाजिक अपमान और अलगाव. खुद अपमानित होने की बजाय उसने स्त्री को अपमानित करना बेहतर समझा. अपनी पत्नी के साथ न सोने के लिए उसके पास एक सीधी वजह को छोड़कर बाकी कई बहाने थे, जैसेकि वो आकर्षक नहीं है, उसके पैर भद्दे हैं, वो फेमिनिस्ट है और अब वो उससे प्यार नहीं करता. सेक्स न करने, न कर पाने की कुंठा हिंसा में तब्दील हो गई. बिस्तर पर जो ठीक नहीं था, उसने बाकी जिंदगी की सुंदर चीजों को भी बदसूरत बना दिया.
मां को इस बात का एहसास तब हुआ कि बेटी की शादी में सबकुछ ठीक नहीं है, जब बात-बात पर गले से लिपट जाने वाली बेटी हाथ तक छुए जाने से कतराने लगी. जब उस रात वो मां के बगल में बिलकुल अपने में सिकुड़कर सोई.
जिस देह को ठीक से कभी छुआ भी नहीं गया, वो देह जिंदा अरमानों का मरघट बन गई. आखिरकार 6 साल बाद उसने अलग होने का फैसला किया, लेकिन तब तक देह और मन दोनों मुरझा चुके थे.
यहां उसकी कहानी को इतने विस्तार से सुनाने का मेरा मकसद कहानी सुनाना नहीं था. उस घुटन, त्रासदी और यातना की एक नजीर पेश करना भर था, जिसे सैकड़ों सालों से हमारे समाज का एक बड़ा तबका सहता आ रहा है, जिसने जाने कितनी हंसती-खेलती जिंदगियों को तबाह कर दिया. और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि समाज औरत और मर्द की पहचान के अलावा और किसी तीसरी पहचान को स्वीकारने और सम्मान देने को तैयार नहीं.
जरा सोचकर देखिए -
1. क्या होता अगर लड़की को ये न सिखाया गया होता कि 7 साल बिना सेक्स का रिश्ता कोई इज्जत की बात नहीं है. सेक्स कर लेना बुरा नहीं है, बल्कि न करना जरूर विचित्र है.
2. क्या होता, अगर लड़के को ये बताया गया होता कि वो जो महसूस करता है, वो हो सकता है. उसका मर्द न होना, मर्द के रूप में खुद को महसूस न करना कोई बेइज्जती की बात नहीं. वो होमोसेक्सुअल होकर भी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो सकता है, समाज में स्वीकार्य हो सकता है और घर में सबका प्यार पा सकता है.
एक झूठ की बुनियाद पर खड़ा समाज अपने आसपास यातनाओं की ऐसी अनगिनत फसीलें खड़ी कर देता है, जिसमें अपराध किसी का नहीं होता, लेकिन सजा हर किसी के हिस्से में आती है.
ये तो मैंने एक लड़की की कहानी सुनाई है. ऐसी अनगिनत कहानियां हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं. कल सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया है, इतिहास में उसकी भूमिका इस लिहाज से भी बड़ी होगी कि वह ऐसी त्रासदियों को घटने से रोक सकेगा. अब समलैंगिक होना अपराध नहीं होगा तो किसी को अपनी पहचान छिपानी नहीं पड़ेगी. किसी पुरुष को सिर्फ दुनिया के सामने अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए किसी लड़की से शादी कर उसका जीवन तबाह नहीं करना होगा. वो इज्जत से सिर उठाकर स्वीकार करेगा कि वो क्या है, उसकी पहचान क्या है और इसके लिए उसे जेल में नहीं डाला जाएगा.
कल सुप्रीम कोर्ट में फैसला सुनाते हुए जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि हमें एलजीबीटी समुदाय से ऐतिहासिक रूप से क्षमा मांगनी चाहिए क्योंकि उन्हें एक ऐसी चीज के लिए अब तक अपराधी करार दिया जाता रहा, जो बिलकुल नैसर्गिक है.
एक अमेरिकन ड्रैग क्वीन रू पॉल आंद्रे चार्ल्स ने कभी कहा था कि हम सब एक ही तरीके से पैदा होते हैं- निर्वस्त्र और बाकी सब आवरण है. प्रकृति की इस विविधतापूर्ण संरचना में ढेरों आवरण है. कोई स्त्री की देह में पुरुष की तरह महसूस करता है तो कोई पुरुष की देह में स्त्री है. शरीर और हॉर्मोन की संरचना भी हजार रंगों वाली है. ये समाज या कोई भी कौन होता है ये तय करने वाला कि इसमें कौन सा रंग अच्छा है और कौन सा बुरा. सारे रंग अच्छे हैं, सारे रंग सुंदर. सब रंगों को अपना जीवन अपनी मर्जी से रंगने का मौका मिले, यही इस नई दुनिया, नए समय का तकाजा है.
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Tags: Article 377, Human rights, LGBTQ, LGBTQ rights
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