“मैं शायद दुनिया का पहला इंसान होऊंगा, जो खुद को हरामजादा (बास्टर्ड) साबित करने के लिए कोर्ट में लड़ा.”
- रोहित शेखर (अप्रैल, 2014 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में)
कांग्रेस नेता और राजनीति में बड़े पदों पर रहे एन.डी. तिवारी को अपना जैविक पिता साबित करने के लिए कोर्ट में 7 साल लंबी लड़ाई लड़ने वाले रोहित शेखर की इस जीत के महज पांच साल बाद मौत हो गई. 16 अप्रैल को करीब 4 बजे वो अपने कमरे में मृत पाए गए. नौकर जब उन्हें देखने गया तो मुंह से खून निकल रहा था. फॉरेंसिक रिपोर्ट में गले की दो हड्डियां टूटी बताई गई हैं.
और इसी के साथ उस ट्रेजेडी का अंत हो गया है, जिसका नाम था- रोहित शेखर.
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1979 का साल था. आपातकाल के बाद चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. जनता पार्टी की सरकार बनी और उसी सरकार में मंत्री बने प्रो. शेर सिंह- रोहित के नाना और उनकी मां उज्जवला शर्मा के पिता.
बी.पी. शर्मा के साथ हुई उज्जवला की शादी टूट चुकी थी और वो अपने दो साल के बेटे सिद्धार्थ को लेकर अपने पिता के घर रहने आ गई थीं. यही वो समय था, जब 54 साल के एन.डी. तिवारी उज्जवला की जिंदगी में दाखिल हुए. वो रोहित के नाना के दोस्त थे और अक्सर घर आया करते थे.
जिस साल इमर्जेंसी के बाद नई सरकार बनी थी, उसी साल रोहित का जन्म हुआ. एन.डी. तिवारी ने बच्चे को सार्वजनिक तौर पर अपनाने से इनकार कर दिया. अस्पताल के कागज पर पिता के नाम के आगे लिखा गया- बी.पी. शर्मा, उज्जवला के पहले पति का नाम.
रोहित का बचपन बाकी बच्चों की तरह नहीं था. घर में मां, नाना-नानी, जोजी मां और बड़ा भाई सब थे, लेकिन पिता नहीं थे. कभी चार-छह महीने में गठीले शरीर और रौबीली नाक वाला एक गोरा सा आदमी आता था. वो झक सफेद कपड़ों में होता और उसके हाथ में ढेर सारे उपहार. मां कहती, “पिता के पैर छुओ.” बच्चा खिलौने पाकर खुश होता, लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि पिता जब भी आते तो घर में ऐसी मुर्दनी क्यों छा जाती थी. 2014 में उसी इंटरव्यू में रोहित ने कहा था, “मुझे बस इतना याद है कि मां के कमरे से उनके रोने की आवाज आती. जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने की. मुझे कुछ समझ नहीं आता लेकिन डर लगता था. उनके जाने के बाद मां काफी समय तक उदास रहतीं और अकेले में रोती थीं. कभी परेशान होतीं तो हमें भी पीट देतीं. फिर सब पहले की तरह चलने लगता. कई महीने गुजर जाते. पिता फिर आते. ढेर सारे उपहारों के साथ.”

अपनी मां उज्जवला के साथ रोहित शेखर
कई बार वो मां के साथ उनसे मिलने जाता था. कभी सर्किट हाउस तो कभी किसी घर में. मां-पिता के झगड़े धीरे-धीरे कम होने लगे थे, लेकिन मां की उदासी स्थाई हो गई थी. बचपन में रोहित को कभी समझ में नहीं आया कि जो पिता कमरे में अकेले होने पर उसे गोद में लेते, चूमते, प्यार करते, वो बाहर सबके सामने उसे गोद से उतार क्यों देते थे. अगर वो पार्टी के लोगों के साथ बाहर बैठे हैं और रोहित खेलता हुआ वहां पहुंच जाए और उनकी गोद में चढ़ना चाहे तो उसे डांटकर भगा दिया जाता था.
वक्त गुजरा. एन. डी. तिवारी सियासत में और व्यस्त हो गए. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और आंध्र प्रदेश के गवर्नर. जिंदगी के 60 दशक सत्ता में उंचे पदों पर रहे.
वक्त के साथ पिता का आना कम होता गया और वक्त के साथ रोहित के सवाल बढ़ते गए. फिर एक दिन नानी ने उसे सब सच बता दिया. 15 साल की उमर थी. इतनी छोटी भी नहीं कि रिश्ते की ये पहेली समझ न पाए, लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं कि इस पहेली को हल कर पाए.
रोहित ने ये बातें 2014 में दिए अपने कई इंटरव्यूज में कही थीं. अपनी पूरी कहानी नहीं लिखी क्योंकि 30 साल तक जिस तरह की जिंदगी रोहित ने जी, वो निहायत अकेली जिंदगी थी. कोई दोस्त नहीं, कोई गर्लफ्रेंड नहीं. जिस उम्र में लड़के जिंदगी के निषिद्ध इलाकों में घुस रहे होते हैं, उम्मीद और उर्जा के चरम पर होते हैं, रोहित ज्यादातर समय साउथ दिल्ली के अपने उस पॉश घर की पहली मंजिल पर बने कमरे में अकेले ही रहता था- अपनी किताबों के साथ.

अपनी मां उज्जवला और पिता एन.डी. तिवारी के साथ रोहित शेखर
जब 88 साल की उम्र में एन.डी. तिवारी ने उज्जवला से शादी करके उन्हें अपनी पत्नी स्वीकार किया, रोहित उस शादी में भी नहीं गया. वो अपने कमरे में था और सोच रहा था म्यूजिक क्लास ज्वाइन करने के बारे में. उसी दौरान रोहित से बात करने गए ‘द हिंदू’ के एक पत्रकार ने लिखा है कि वो बहुत संभलकर, बहुत इत्मिनानी से बोलने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन मिजाज बार-बार बिगड़ जाता. मूड स्विंग होते और इतनी शिद्दत से होते कि लगे संभालना मुश्किल है. लेकिन फिर वो शांत होते और बात करते.
रोहित तब 16 साल का था. मां उसे लेकर तिवारी से मिलने पहुंचीं, लेकिन सिक्योरिटी गार्ड्स ने उन्हें दरवाजे पर ही रोक दिया. बहुत कोशिशों के बाद भी उन्हें भीतर जाने को नहीं मिला. रोहित को ये बात चुभ गई. पिता ने अब मिलने से भी इनकार कर दिया था. ये वो समय था, जब तिवारी की ब्याहता पत्नी सुशीला तिवारी का निधन हुए 4 साल हो चुके थे.
उसके बाद भी रोहित के पिता से मिलने की उज्जवला की कोशिशें नाकाम रहीं. उन्होंने आना भी बंद कर दिया था. उत्तराखंड राज्य बनने की तैयारी में था और वो वहां का मुख्यमंत्री बनने की आस लगाए अपनी राजनीतिक गोटियां सेट कर रहे थे. जाहिर है, सत्ता और सफलता के सबसे उंचे शिखर पर बैठ उन्हें उस औरत की याद नहीं आई जो उनके बच्चे की मां थी. और जिससे वो दुनिया की नजरों से छिपाकर, बंद कमरे में तो प्यार कर सकते थे, लेकिन दुनिया के सामने स्वीकार नहीं कर सकते थे.
दोहरी नैतिकता और मर्दवाद के मारे मेरे मुल्क की हकीकत किससे छिपी है भला.
जो काम मां नहीं कर पाई, वो बेटे ने करने की कोशिश की. पहले तो प्यार से, अधिकार से ही कहा था तिवारी जी से कि मैं ये बेपहचान की जिंदगी नहीं जी सकता. मुझे चाहिए कि मेरा बाप मुझे उसका बेटा होने का हक दे. मैं नाजायज नहीं कहलाना चाहता. तिवारी जी को न कोई पछतावा था, न पीड़ा. वो आखिरी समय तक सिर्फ इनकार करते रहे. हारकर 2007 में रोहित ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. 7 साल लंबी चली लड़ाई. तिवारी जी उस वक्त आंध्र प्रदेश के गवर्नर थे. बेटा अपने हक के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहा था. 28 साल की उम्र में उसे हार्ट अटैक हो चुका था. और पिता आंध्र प्रदेश के गवर्नर हाउस में तीन औरतों के साथ बिस्तर पर पाए गए थे. राजभवन का ये सेक्स स्कैंडल काफी सुर्खियों में रहा. तिवारी जी ने सार्वजनिक रूप से उसके लिए माफी भी मांगी, लेकिन सार्वजनिक रूप से रोहित को अपना बेटा तब भी नहीं माना.
जस्टिस लोधा मुकदमे के जज थे. उन्होंने डीएनए टेस्ट की मंजूरी दे दी. तिवारी जी चाहते तो नहीं थे, लेकिन उच्चतम न्यायालय का आदेश था. डीएनए टेस्ट ने उनके 35 साल पुराने झूठ की कलई खोल दी. अब कोई चारा नहीं था उनके पास सच को स्वीकारने के अलावा.

35 साल के इनकार के बाद आखिरकार तिवारी ने रोहित को अपना बेटा माना
कोई कहता नहीं ये बातें. लोग भी एन.डी. तिवारी के नाम के साथ वरिष्ठ राजनीतिज्ञ, पूर्व मुख्यमंत्री, गवर्नर यही सब लिखा करते हैं. लेकिन सच तो ये है कि उस दिन कोर्टरूम में और बाहर निकलकर मीडिया के सामने जब उन्होंने रोहित को अपना बेटा स्वीकार किया था, तब भी उनकी आंखों में कोई पश्चाताप नहीं था. 75 साल का पिता तीन लड़कियों के साथ सेक्स स्कैंडल कर रहा था और 28 साल के बेटे को हार्ट अटैक आया था. लेकिन बाप के माथे पर तनिक भी शिकन नहीं, दुख की मामूली सी खरोंच भी नहीं.
रोहित ने जब कोर्ट में ये लड़ाई लड़ी तो तिवारी जी की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मांगा था. ये तिवारी जी की विरासत में हिस्सेदारी की लड़ाई नहीं थी. ये उस हक की लड़ाई थी, जो किसी भी बच्चे का बुनियादी हक है. ये पहचान की लड़ाई थी. मेरा बाप कौन है? संसार में हर बच्चे को हक है ये जानने का कि उसका बाप कौन है. उन बापों के बच्चों को भी, जो चुपके से उन्हें मां की गोद में डालकर चलते बने.
रोहित वो लड़ाई जीत चुके थे. भले एक हार्ट अटैक और एक स्ट्रोक के बाद, जिसने उन्हें आंशिक रूप से पैरलाइज भी कर दिया.
रोहित ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था, “मेरी जिंदगी त्रिशूल फिल्म की कहानी नहीं, जिसमें जब संजीव कुमार को पता चलता है कि अमिताभ बच्चन उसका बेटा है तो वो अपराध बोध में अपना सबकुछ बेटे के नाम कर देता है. मेरे साथ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ.”
रोहित शेखर नाम का वो शख्स, जो बड़े रसूखदार नेता का बेटा था, बेटा, जो सिंदूर और सात फेरों के बंधन से पैदा नहीं हुआ था, बेटा जो दुनिया की नजरों में नाजायज था और जिसके मुकदमे के दौरान कोर्ट में दसियों बार दोहराए गए थे ये शब्द, “बास्टर्ड.... बास्टर्ड.... बास्टर्ड....” और जिसने बड़ी कीमत चुकाकर पहचान की ये लड़ाई जीती थी और हिंदुस्तानी मर्दों की मक्कारी और झूठ पर एक करारा तमाचा रसीद किया था.
वो रोहित शेखर अब इस दुनिया में नहीं है.
हम तथ्य जानते हैं. मुकदमे की तारीखें, फैसला और कागजी कार्रवाइयां. हम उस अकेलेपन को, पहचान की उस पीड़ा को, उस तकलीफ को नहीं जानते, जो सिर्फ उसके हिस्से की थी. इंटरव्यूज की चंद तफसीलों से इतर वो कहानी, जो सुनाई नहीं गई.
काश कि उस कमरे के किसी कोने में संदूक में दबी या मेज़ की दराज़ में छिपी हो रोहित की वो कहानी, जो उसने अब तक किसी को नहीं बताई.
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FIRST PUBLISHED : April 25, 2019, 10:27 IST