“अगर एक अविवाहित औरत ऐसे पुरुष के लिए अपना दरवाजा खोलती है, जो उसका पति नहीं है, ऐसे मर्दों के साथ जाती है, जिनके साथ उसका कोई संबंध नहीं है. संक्षेप में यह कि अगर वह निर्लज्ज व्यवहार करती है, न सिर्फ उसके रहने, चलने, उठने-बैठने, बल्कि पराए पुरुषों के साथ उसके व्यवहार में निर्लज्जता है तो ऐसी अविवाहित स्त्री वेश्या के समान है.”
- सिसरो, रोमन स्टेट्समैन, वकील और दार्शनिक
(56 ईसा पूर्व में एक पब्लिक ट्रायल के दौरान दिए अपने भाषण में)
आज से दो हजार पचहत्तर साल पहले दुनिया जैसी थी, क्या आज भी वैसी ही है? कितना कुछ बदला है इन दो हजार पचहत्तर सालों में.
इसी बीच ये हुआ कि इंसान चांद पर पहुंच गया, दुनिया के ताकतवर मुल्कों ने दुनिया के जितने कमजोर मुल्कों को अपना उपनिवेश बनाया था, सबने एक-एक कर मालिकों से आजादी हासिल कर ली, दो-दो बार पश्चिम के ताकतवर मुल्क “तू बड़ा कि मैं बड़ा” करते हुए विश्व युद्ध की आग में कूदे, जले और बाहर निकले. इन्हीं दो हजार पचहत्तर सालों में ये हुआ कि पश्चिम में नारीवाद की विचारधारा का उदय हुआ. औरतों ने छोटे-छोटे हक के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं. किताबें लिखीं, फिल्में बनाईं, गीत गाए. दुनिया कहां-से-कहां पहुंच गई, लेकिन एक चीज थी, जो जस की तस है.
“एक चरित्रहीन स्त्री यानी एक स्लट की परिभाषा.”
दो हजार पचहत्तर साल पहले जो औरत स्लट हुआ करती थी, वो आज भी स्लट ही है.
उस दिन पूर्वी दिल्ली से आप की उम्मीदवार आतिशी मार्लेना के खिलाफ बंटवाए गए उस पर्चे जितनी बातें लिखी थीं, सब आतिशी के चरित्र के गिर्द घूम रही थीं. वो बातें लिखने वाले यही साबित करना चाहते थे कि आज से 2075 साल पहले रोमन साम्राज्य में इज्जतदार समाज औरतों को जिस नजर से देखता था, हम आज भी वैसी ही नजर से देखते हैं. आतिशी एक अच्छी उम्मीदवार इसलिए नहीं है क्योंकि वो अपने पति के साथ नहीं रहती; क्योंकि उन्होंने शादी से पहले सेक्स कर लिया था; क्योंकि वो अपने साथी पुरुष नेता की रखैल है; क्योंकि बिना पति शादीशुदा औरत की तरह रहती है, क्योंकि दूसरा आदमी जरूरतें पूरी करता है, वगैरह, वगैरह.
और चूंकि ये सब है, इसलिए वो एक अच्छे चरित्र की औरत नहीं है. वो एक स्लट है.
स्लट.... स्लट.... स्लट....
स्लट कोई इज्जतदार शब्द नहीं है. स्लट गाली है. सिर्फ औरतों को दी जाने वाली गाली. इस शब्द का इस्तेमाल मर्द औरतों को नीचा दिखाने, उन्हें अपमानित करने के लिए करते हैं.

इरम हक की फिल्म ‘व्हॉट पीपल विल से’ का एक दृश्य
अब जरा डिक्शनरी खोलकर इस शब्द का मायने चेक कर लीजिए. डिक्शनरी में स्लट का अर्थ लिखा है- “ऐसी स्त्री जिसके
सेक्सुअल मॉरल्स यानी यौन नैतिकता संदिग्ध है. ऐसी औरत, जिसके एकाधिक पुरुषों के साथ
विवाहेतर यौन संबंध हों.”
मर्दों की यौन नैतिकता संदिग्ध हो तो उन्हें स्लट नहीं कहते. डिक्शनरी में उनके लिए कोई दूसरा शब्द भी नहीं है क्योंकि जाहिर है, उनकी यौन नैतिकता कभी संदिग्ध नहीं होती. मर्द जो भी करते हैं, वो दुराचार नहीं, उनका विशेषाधिकार होता है.
इसलिए उस दिन आतिशी को स्लट कहे जाने पर हम औरतों को बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ.
जानते हैं क्यों?
- क्योंकि आज दो हजार पचहत्तर साल बाद भी इस मुल्क में एक ऐसी औरत नहीं कि जिसे ‘स्लट’ कहलाए जाने से डर नहीं लगता?
- एक भी ऐसी औरत नहीं, जिसे जीवन में कभी-न-कभी किसी ने उसके मुंह पर या पीठ पीछे ‘स्लट’ न कहा हो?
- एक भी ऐसी औरत नहीं, जो ‘स्लट’ बुलाए जाने के डर से जो सोचती है, वो कहती नहीं, जो चाहती है, वो करती नहीं.

टर्किश फिल्म ‘मस्तांग’ की पांच विद्रोही लड़कियां
इसलिए हमें आश्चर्य नहीं होता, जब आतिशी के खिलाफ वो पर्चा बंटता है.
हमें आश्चर्य नहीं होता क्योंकि सच तो ये है कि औरतों के लिए पिछले दो हजार पचहत्तर सालों में समाज का नजरिया जरा भी नहीं बदला है.
लेकिन अब ये सवाल इतना मौजूं नहीं रहा कि सिर के ऊपरी हिस्से में अकल की जगह गोबर भरे हुए मर्द क्या सोचते हैं. सवाल ये है कि औरतें क्या सोचती हैं. क्या इतने सालों में औरतें बदली हैं? जो नरेटिव बुन रहा है, उस पर मिट्टी डालिए. ये सोचिए कि जिसके बारे में ये नरेटिव सैकड़ों सालों से बुना जा रहा है, वो अब इस नरेटिव को कैसे देखती है.
1887 में जब तोल्स्तोय ने ‘अन्ना कारेनिना’ की कहानी लिखी तो उसे अपने मन की, देह की राह चुनते तो दिखाया, लेकिन उसे अपराध बोध से मुक्त नहीं कर सके. अन्ना अपने पति को छोड़ उस पुरुष के पास चली जाती है, जिससे प्रेम करती है, लेकिन उसका गिल्ट नहीं जाता. घर छोड़कर जाते हुए वो अपने बेटे से यही कहती है कि तुम्हारे पिता बहुत अच्छे इंसान हैं. मैं उनके लायक नहीं. 20 साल पहले अन्ना कारेनिना की कहानी सुनकर मेरी मां ने कहा था कि वो ट्रेन के नीचे कूदकर इसलिए मर गई क्योंकि उसने गलत काम किया था. समाज के नियम को तोड़ा था.

इरम हक की फिल्म ‘आय एम योर्स’ के एक दृश्य में मीना
लेकिन 2015 में आई टर्किश फिल्म ‘मस्तांग’ की पांचों लड़कियां समाज के नियम तोड़ते हुए कोई गिल्ट नहीं पालतीं. वो गुस्से में हैं. जो काम बताकर नहीं कर सकतीं, वो छिपाकर करती हैं. सबसे बड़ी लड़की जानती है कि शादी के बाद उसका वर्जिनिटी टेस्ट होगा, इसलिए वो शादी के पहले एनल सेक्स करती है ताकि पति की नजर में पवित्र बनी रहे. सबसे छोटी वाली छिपकर फुटबॉल देखने जाती है. और फिर एक दिन पांचों घर से भाग जाती हैं.
एक और लड़की है मीना. 2013 की नॉर्वेजियन फिल्म ‘आय एम योर्स’ की हिरोइन. उसकी तो मां भी उसे स्लट कहती है. मां को अपने पति से पिटकर रहना गंवारा है, लेकिन मीना का अपने पति को छोड़ देना और अकेली जिंदगी जीना नहीं. मीना का दुख है, अकेलापन है, दुनिया से मिली दुत्कार है, लेकिन मीना का कोई अपराध बोध नहीं. जो मर्दों की बनाई दुनिया के हिसाब की नहीं, दुनिया उसे हर कदम पर गलत साबित करना चाहती है, जैसे व्हॉट पीपल विल से में निशा के मां-बाप, रिश्तेदार करते हैं. पिता अपनी बेटी को कहता है, ‘स्लट.’ मां कहती है, ‘स्लट.’ सब कहते हैं, ‘गंदी, चरित्रहीन लड़की.’ जन्म देने वाले मां-बाप भी निशा को धोखा देते हैं, लेकिन वो खुद को धोखा नहीं देती. एक दिन भाग जाती है. उसे कोई अपराध बोध नहीं.
तमिल लेखिका मीना कंडास्वामी को भी उसके पति ने स्लट कहा था, क्योंकि वो जिस आजादी और बेबाकी से लिखती थी, वो अच्छे चरित्र वाली औरत तो कभी नहीं लिखती. डीपीएस के एमएमएस स्कैंडल के वीडियो में लड़का और लड़की दोनों थे, लेकिन स्कूल में सब लोगों ने उस लड़की को कहा था, ‘स्लट.’ और वैसे भी आज्ञाकारी सुशीलाओं को छोड़ कौन सी ऐसी लड़की है, जो इस देश के इज्जतदार लोगों की नजर में स्लट नहीं है. जो सिगरेट पीती है, वो स्लट है, जो फैशन करती है, वो स्लट है, जो छोटे कपड़े पहनती है, वो स्लट है, अपनी मर्जी से प्यार करती है, सेक्स करती है, वो स्लट है, तो तलाक मांग रही है, वो स्लट है, जिसे अपने मर्द सहकर्मी से ज्यादा इंक्रीमेंट मिला है, वो भी स्लट है.
जो भी इंसान की तरह जीना चाहती है, हर वो लड़की स्लट है.

एडिथ पिआफ : नो, आय रिग्रेट नथिंग
लेकिन इस दौर की स्लट्स का वो गाना है, जो एडिथ पिआफ ने गाया था. एडिथ जब हजारों की भीड़ के सामने गला खोलकर, मुट्ठियां भींचकर, माथे पर बल दिए सबसे उंचे सुर में गाती हैं, “नो, आय रिग्रेट नथिंग,” तो मानो वो पूरी दुनिया की औरतों की आवाज होती है. वो यशपाल के उपन्यास ‘दिव्या’ की नायिका की आवाज है. जब उसने बौद्ध मठ में शरण मांगी तो भिक्षु ने कहा था, “तुम वेश्या हो. वेश्या एक स्वतंत्र स्त्री है. स्वतंत्र स्त्री की मठ में जगह नहीं.”
17 साल की उम्र में पहली बार दिव्या पढ़ते हुए मुझे यही लगा था कि वेश्या स्वतंत्र स्त्री होती है. स्वतंत्र स्त्री होना वेश्या होना होता है. दुनिया में जिस भी स्त्री ने जब भी थोड़ा आजाद होना, थोड़ा अपने मन का होना, थोड़ा इंसान होना चाहा तो दुनिया ने उसे वेश्या कहा. सिसरो ने 2075 साल पहले कहा था. तब से सब यही कहे जा रहे हैं. दुनिया बदली है, लेकिन नरेटिव नहीं.
एक बार कोवलम में मुझे एक इतालवी लड़की मिली. उसने कहा कि उसके देश में भी उसके जैसी लड़कियों को स्लट कहा जाता है. लेकिन उसका काउंटर नरेटिव बड़ा कमाल का था. उसने कहा, “मर्द कहते हैं, ‘यू आर ए स्लट’ और हम डरकर सफाइयां देने लगते हैं. नहीं, नहीं, मैं ऐसी नहीं हूं, मैं अच्छी लड़की हूं, मुझे कॅरियर चाहिए, लेकिन मैं घरेलू भी हूं. मैं संस्कारी भी हूं... ब्ला.. ब्ला.. ब्ला.. क्या हो, अगर ‘यू आर ए स्लट’ के जवाब में हम पलटकर बोलें,
‘येस, आय एम ए स्लट. सो व्हॉट...’
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FIRST PUBLISHED : May 15, 2019, 12:37 IST