11 अप्रैल को आप क्या कर रही थीं?
11 अप्रैल मतदान का पहला दिन था. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की किस्मत तय करने वाले आम चुनावों का पहला दिन. क्या आपने वोट देने के अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल किया था या कि आप वोट देने सिर्फ इसलिए गई थीं कि क्योंकि आपका पति या पिता या भाई, कोई जा रहा था तो आप भी चली गईं साथ में. जिनके साथ पति, पिता, भाई नहीं थे, क्या उन्होंने भी इतनी जहमत उठाई कि भरी धूप में घर से निकलतीं, लाइन में लगतीं, उस फैसले में अपना हिस्सा देतीं कि कौन आने वाले पांच साल मेरी जिंदगी से जुड़े फैसले लेगा. या कि आपने उस दिन इन झंझटों में पड़ने की बजाय घर पर पैर फैलाकर टीवी देखना और फेशियल करना चुना.
उस दिन आपने जो चुना, क्या आपको पता है कि आने वाले पांच साल अब वो आपकी जिंदगी की छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी बातें चुनने वाला है?
अध्ययन कहते हैं कि स्त्रियां राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेतीं. उन्हें नहीं पता होता कि संसद में कौन उनका प्रतिनिधित्व कर रहा है. कौन उनके नाम पर क्या बोल रहा है, क्या कानून बना रहा है. अभी कल की ही तो बात है. रामपुर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए आजम खान ने जया प्रदा पर अभद्र टिप्पणी कीं और कहा, “जिसे हम उंगली पकड़कर रामपुर लाए, आपने 10 साल जिससे अपना प्रतिनिधित्व कराया... उनकी असलियत समझने में आपको 17 बरस लगे, मैं 17 दिन में पहचान गया कि इनके नीचे का अंडरवियर खाकी रंग का है.”
हम औरतों को वैसे भी नहीं पता कि संसद में 12 साल से लटके हुए महिला आरक्षण बिल पर क्या ज्ञान दे रहा है. कौन बोल रहा है, “इस बिल से सिर्फ पर-कटी औरतों को फायदा पहुंचेगा. परकटी शहरी महिलाएं हमारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करेंगी.” कौन कह रहा है रेपिस्ट लड़कों के बारे में कि “लड़कों से गलती हो जाती है”, कौन भरी सभा में इस देश की औरतों को ललकार कह रहा है कि “चार-चार बच्चे पैदा करो.” कौन अपने साथ की अविवाहित महिला नेता से पूछ रहा है कि बताओ, “वर्जिन हो कि नहीं.” कौन उन्हें “वेश्या” बोल रहा है. छेड़खानी की घटनाओं पर कौन सफाई देता है कि “औरत सीमा रेखा लांघेगी तो रावण उठा ले जाएगा.” रेप पर कौन रेपिस्ट की बजाय लड़की से सवाल पूछ रहा है, “तुमने कौन से कपड़े पहने थे.” कौन पार्टी कार्यक्रम में अपनी सहकर्मी महिला नेता को “टंच माल” बुला रहा है. कौन बोल रहा है, “महिला नेता को आराम दो, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं, हमारे मध्य प्रदेश की बेटी हैं.” कौन वोट की तुलना बेटी की इज्जत से करते हुए कह रहा है, “वोट की इज्जत आपकी बेटी की इज्जत से ज्यादा बड़ी होती है. अगर बेटी की इज्जत गई तो सिर्फ गांव और मोहल्ले की इज्जत जाएगी, लेकिन अगर वोट एक बार बिक गया तो देश और सूबे की इज्जत चली जाएगी.” कौन भरी संसद में औरतों के शरीर की बनावट और उनकी त्वचा के रंग पर टिप्पणियां कर रहा है. कौन कह रहा है, औरत को “50 करोड़ की गर्लफ्रेंड.”

वोट देने के अधिकार के लिए प्रदर्शन करती महिलाएं, अमेरिका, वर्ष 1916
ये सारे महान वचन उन लोगों के हैं, जो हमारे वोट से जीतकर संसद और विधानसभा में पहुंचे हैं और जिनका दावा है कि वो हमारे प्रतिनिधि हैं.
क्या इन बातों से हम औरतों को कोई फर्क पड़ता है या हमने मान ही लिया है कि मर्द तो ऐसे ही होते हैं, चाहे मुहल्ले में हों या संसद में. और अगर मान लिया है कि दुनिया का यही निजाम है तो कोई बात नहीं, और जो मानते हैं कि ये दुनिया बदलती है, दुनिया बदल रही है, हम औरतों के लिए धीरे-धीरे बेहतर हो रही है तो फिर जिंदगी में राजनीति की अहमियत को समझिए. वोट की अहमियत को समझिए.
वरना मर्दों का बनाया निजाम तो ऐसा था कि जहां औरतों को वोट देने का हक भी बहुत लड़ने-झगड़ने के बाद मिला. अमेरिका में 1920 में पहली बार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला. यूरोप के अधिकांश देशों में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद औरतों को सरकार चुनने का अधिकार मिला. दुनिया के तीन-चौथाई हिस्से में औरतों को ये हक मिले अभी 100 साल भी नहीं गुजरे हैं और फर्क हमारे सामने है.
जरा सोचकर देखिए....
1. क्या विशाखा कानून न बना होता तो ये मुमकिन था कि दफ्तरों में होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट के खिलाफ कानूनी ढंग से लड़ा जा सके. काम की जगह भंवरी देवी के साथ रेप हुआ तो बिल पास हुआ, कानून बना. ये नियम बन गया कि हर दफ्तर में एक सेक्सुअल हैरेसमेंट कंम्प्लेन कमेटी बनानी होगी, शिकायत सुननी होगी, न्याय करना होगा.
2. पहले हिंदू उत्तराधिकार कानून कहता था कि पिता की संपत्ति पर बेटे का हक है. सिर्फ 13 साल हुए, जब एक बार फिर संसद में आवाज उठी, बिल पास हुआ और हिंदू उत्तराधिकार कानून बदल दिया गया. अब ये कानून था कि तुम्हारे नाना की सारी प्रॉपर्टी मामा दबाकर नहीं बैठ सकते. मां का बराबर का हिस्सा होगा. पिताओं को देनी होगी, बेटे और बेटी को बराबर संपत्ति, वरना कोर्ट के दरवाजे खुले हैं.

बांग्लादेश में एक राजनीतिक प्रदर्शन में शिरकत करती महिलाएं
3. 1971 के पहले इस देश में अबॉर्शन गैरकानूनी था. अनचाही प्रेग्नेंसी हो या औरत की जान को खतरा ही क्यों न हो, गर्भपात की सजा जेल थी. एक बार फिर ये सवाल संसद में ही उठा, बिल पास हुआ और नया कानून आया- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971, जो औरतों को अनचाहे गर्भ से मुक्ति का बुनियादी हक देता था. चाहे कन्या भ्रूण हत्या हो, फैमिली प्लानिंग या बर्थ कंट्रोल, कोई हक राजनीतिक हस्तक्षेप के बगैर नहीं मिला. और ये हस्तक्षेप भी इसलिए हुआ क्योंकि 3 फीसदी ही सही, संसद में महिलाएं पहुंची और उन्होंने अपनी बात कही.
4. अभी डेढ़ साल पहले कामकाजी औरतों के लिए मातृत्व अवकाश जो 3 महीने से बढ़ाकर 6 महीने किया गया, वो भी मेटरनिटी बेनिफिट एमेन्डमेंट एक्ट, 2017 के कारण मुमकिन हुआ.
5. 1976 में बना था, इक्वल रेम्यूनरेशन एक्ट. ऐसा नहीं कि इस कानून के बाद से औरतों को बराबर काम का बराबर पैसा मिलने लगा, लेकिन सुधार आया क्योंकि इसके पहले जेंडर पे गैप बहुत ज्यादा था, संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में.
6. निर्भया केस के बाद रेप कानून इस देश में सख्त हुए. और भी कई ऐसे जरूरी कानून हैं, जो बने ही राजनीतिक पहल की वजह से थे, जैसे नेशनल कमीशन फॉर वीमेन एक्ट, 1990, प्रोटेक्शन ऑफ वीमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट, 2005, डाउरी प्रॉहिबिशन एक्ट, 1961 और सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वीमेन एट वर्कप्लेस प्रिवेंशन, प्रॉहिबिशन एंड रीड्रेसल एक्ट, 2013.

डाउन 5th एवेन्यू, न्यूयॉर्क में महिलाओं की ऐतिहासिक परेड. इसके बाद ही मिला था अमेरिका में महिलाओं को वोट का अधिकार
ये सारी बातें यहां इतने विस्तार से करना इसलिए जरूरी था ताकि हम समझ सकें जिंदगी में राजनीति की अहमियत. इस देश में औरतों के लिए जिंदगी जितनी भी बदली, वो समाज और मर्दों की नेकनियति से नहीं बदली. कानून से बदली. राजनीतिक हस्तक्षेप से बदली. हमारे दिए हर वोट से बदली. हालांकि जितनी बदलनी चाहिए, उसका दस फीसदी भी अभी नहीं बदली है. और ये तभी बदल सकती है, जब हम राजनीति को समझें, उसमें दिलचस्पी लें. घर पर वोट मांगने आए नेता से पूछें, “संसद में महिला रिजर्वेशन बिल पास क्यों नहीं हो रहा?” पार्टियों से पूछें, “आपके मेनिफेस्टो में हमारे बारे में क्या है? हम क्यों वोट दें आपको?”
चाहे जिंदगी हो या सियायत, सारा खेल मोलभाव का है, लेन-देन का. तुम्हें हमारा वोट मिलेगा, लेकिन बदले में हमें क्या मिलेगा? हजारों-लाखों आवाजें संगठित होकर नेताओं से ये सवाल पूछने लगें तो जवाब देने के अलावा चारा क्या होगा नेताजी के पास.
अमेरिका में पहली बार वोटिंग राइट मिलने के 64 साल पहले से औरतें पूछ रही थीं ये सवाल. पहली सफरेज एक्टिविस्ट सूजन बी. एंथनी ने 1856 में पहला संगठन बनाया था. 64 साल बाद ही सही, लेकिन मिला था उन्हें जवाब.
“वोट देने का अधिकार.”
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Tags: Down voting percentage, General Election 2019, Trending news, Voting trends, Women
FIRST PUBLISHED : April 15, 2019, 16:02 IST