पंजाब के एक छोटे से गांव टिब्बा में महिला सशक्तिकरण का एक अनोखा उदाहरण आप दिलीप कौर उर्फ गंडा सिंह के रूप में देख सकते हैं. बचपन में पड़ोस की बहू की पिटाई ने इनके मन पर ऐसा असर डाला कि ये रातोंरात मर्द में 'तब्दील' हो गईं.
सलवार-कुर्ता, कुर्ता-पजामा में बदल गया. दुपट्टे की जगह पगड़ी ने ले ली. अब 70 बरस का गंडा सिंह खेतों में काम करता है, मर्दों के साथ उठता-बैठता, ताश खेलता है. यहां तक कि गंडा सिंह की भाषा के लिंग से लेकर लहजा तक बदल चुका है.
महिला दिवस पर hindi.news18.com ने इनकी जिंदगी को टटोला.
तब मेरी उम्र यही कोई 10 बरस रही होगी. लड़कियों जैसे सारे शौक थे. सजना-संवरना अच्छा लगता. सहेलियों के बीच हंसी-ठट्ठा करती. कमउम्र थी तो घर के कामों का कोई दबाव नहीं था. दिनभर यहां-वहां फिरती. ऐसे ही एक रोज घर के बाहर खेल रही थी, तभी देखा, एक सास अपनी बहू को लाठी से पीट रही थी. बहू, बचाव में हाथ रोकना तो दूर, बस, हाथ रखकर खुद को बचाने की कोशिश कर रही थी. मैं बहू की इस बेचारगी पर हैरान थी. उससे भी ज्यादा हैरानी तब हुई, जब देख रहे किसी आदमी ने सास को रोकने की कोशिश नहीं की.
बहू जाने किस बात पर पिट-पिटकर नीली पड़ी हुई थी. मैं घर आकर रोने लगी. सबने समझाया कि ऐसा तो हर शादीशुदा औरत, बल्कि हर औरत के साथ होता है.
पिटना कोई बड़ी बात नहीं. इसके लिए कोई वजह भी नहीं चाहिए. रोटी कच्ची है तो पिटाई. सब्जी ज्यादा पक गई तो पिटाई. लुगाई बोलती है तो पिटाई. लुगाई चुप है तो पिटाई. प्यार जताए तो पिटाई. दूर रहे तो पिटाई. औरत यानी पिटाई.
बस उस दिन उसने तय किया कि औरत वाली जिंदगी उसे नहीं चाहिए और उस दिन से दिलीप कौर बन गई गंडा सिंह.
घर पर ऐलान कर दिया कि अब से मेरा नाम दिलीप कौर नहीं, गंडा सिंह है. और ये कि मुझे शादी नहीं करनी और मेरे कपड़े भी अब भाइयों जैसे आएं. पहले सब समझाते, फिर मुझसे डरने लगे. शादी की उम्र में लोग रिश्ते लेकर आते. कहते कि फलाने के पास इतनी जमीन और इतने कुएं हैं. मैं कहता- मुझे क्या कुएं में डूबकर मरना है जो कुएं के लिए शादी करूं!
मैं उठते ही सबसे पहले जर्दा खाती हूं. आदत भले जैसी हो लेकिन मैंने आसपास के सारे मर्दों को यही करते देखा. इसके बाद मिलने-मिलाने के लिए घर से बाहर चारपाई पर बैठ जाती हूं. आते-जाते लोग चाचा-ताऊ कहते हुए मेरे हाल-चाल लेते हैं. इसी बीच नाश्ता आ जाता है और फिर मैं बाकी मर्दों के साथ खेतों को निकल जाता हूं. छोटा था तो डंगर चराया करता था, अब खेती करता हूं. दोपहर में सुस्ताते हुए बाकियों के साथ ताश खेलता हूं.
कभी नहीं पकाई रोटियां
गंडा सिंह कभी रसोई के भीतर नहीं गए. उन्हें दाल-सब्जी पकाना या रोटियां उतारना नहीं आता है. जीवन के 70 दशक पूरे कर चुके गंडा सिंह को उनकी भाभी खाना परोसती हैं. भाभी के दिल में इसे लेकर कोई मलाल नहीं, उल्टे वे गंडा सिंह से भाई की तरह लाड जताती हैं. वे बताती हैं कि घर का कोई मसला हो, पति मुझ पर गुस्सा करें तो वे भाई के खिलाफ खड़े हो जाते हैं. गांव भर की औरतों के हक में बोलते हैं. जरूरत पड़ने पर लाठी भी उठा लेते हैं.
जिस दिन से मर्द की जिंदगी जीने की सोची, तब से उनके सारे काम और ढब मर्दाना हो गया. दिलीप कौर ने औरतों वाले सारे सहज सपनों को खुद ही कुचल दिया, इससे पहले कि कोई दूसरा उन्हें कुचले. वो बाहर से तो मर्द बन गया लेकिन भीतर अब भी वही नन्ही बच्ची बसती है, जो सास से पिटती बहू को देखकर रो पड़ी थी. वही बच्ची अपने मर्दाने अवतार में हर बहू-बेटी के हक के लिए लड़ती है.
गांव या पड़ोसी गांवों में गंडा सिंह का रुआब किसी पंच से कम नहीं, जो औरतों के पक्ष में बोलता और यहां तक कि लाठी उठाने को तैयार रहता है.
(इनपुट: संगरूर से रवि शर्मा आजाद)ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी |
Tags: Punjab
FIRST PUBLISHED : March 08, 2018, 13:05 IST