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आंटी! उसकी टांगें तो खूबसूरत हैं, आपके पास क्‍या है दिखाने को ?

एक सहज, निर्दोष इंसानी शरीर  या कोई एसेट?

एक सहज, निर्दोष इंसानी शरीर या कोई एसेट?

उस गुड़गांव वाले वीडियो में स्‍लट शेमिंग कर रही औरत की उल्‍टे शेमिंग करते हुए जब एक महिला ने पूछा, “उसके पास बॉडी है तो ...अधिक पढ़ें

    फ्राइडे की एक शाम दिल्‍ली के हौजखास विलेज में मैंने उन लड़कियों को देखा था.

    फ्राइडे शाम और हौजखास, दोनों को महसूस करने का वो पहला मौका था. लग ही नहीं रहा था कि ये जगह शहर दिल्ली का ही हिस्सा है. अलग ही रौनक थी, अलग ही आबोहवा. ढेर सारे नई उमर के लड़के-लड़कियां खुश और आजाद घूमते हुए. एक कार मेरे सामने आकर रुकी. तीन लड़कियां और तीन लड़के उतरे. लड़के महंगी जींस-टी-शर्ट और जूते में थे. लड़कियों ने सिर्फ एक कपड़ा पहना था, जो कंधे से नीचे से शुरू होता और कमर के बस कुछ ही इंच नीचे जाकर खत्म. तंग इतना कि थोड़ी सी रौशनी में देह की एक-एक हड्डी का आकार दिखाई दे जाए. बाल खुले थे, पैरों में ऊंची एड़ी की सैंडिल. जिस चीज ने सबसे ज्यादा मेरा ध्यान खींचा, वो थी लड़कों की सहजता और सिर्फ चार कदम चलने में लग रही लड़कियों की मेहनत. लड़का तकरीबन उछलते हुए गाड़ी से उतरा था. लड़की बड़ी सावधानी से, धीरे से पैर जमीन पर जमाते हुए. उतरते ही उसने अपने कपड़े को पहले थोड़ा नीचे खींचा, फिर थोड़ा ऊपर खींचा. कभी हाथ पीछे कर पीठ का कोना ठीक किया, कभी बगलों के नीचे से कपड़े को सेट किया. कपड़ा काफी छोटा था और पैर बेहद खूबसूरत.

    तीनों लड़कियों का यही हाल था. लहीम-शहीम, गोरे-चिट्टे, मर्दानगी से लबरेज लड़के उछलते, बतकहियां करते, एक-दूसरे के छेड़ते आराम से चल रहे थे और उनके साथ की तीनों लड़कियां कभी अपना कपड़ा, कभी बाल तो कभी हाई हील संभालती हुई. चलना किसी का सहज नहीं था. तीनों काफी चौकन्नी, कपड़ों की फिक्र में परेशान, फैशन में उलझी हुई. शायद वो ठीक से ये भी नहीं देख रही थीं कि चारों ओर कितना शोर और रौशनी है. हवाओं में कितनी रौनक, मौज में बिखरे लोग. वो तीनों उस शाम अगर वहां मौज के लिए भी आई थीं तो भी मौज कर नहीं रही थीं. उनकी सारी ऊर्जा तो उस बेहद छोटे और बेहद तंग कपड़े को संभालने में खर्च हो रही थी.

    उस शाम हौजखास विलेज ऐसी बहुत सारी लड़कियों और लड़कों से गुलजार था. लड़के झूमते हुए और लड़कियां अपने तंग कपड़े संभालते हुए.
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    अभी चार दिन पहले गुड़गांव के एक रेस्टोरेंट में एक महिला ने एक लड़की की इसलिए स्लट शेमिंग की कि उसने छोटे कपड़े पहने थे और उसकी टांगें दिख रही थीं. महिला ने कहा कि ऐसी लड़कियों का रेप होना चाहिए. ये नए समय की आहट, लड़कियों की बढ़ती चेतना और सोशल मीडिया की ताकत है कि तीन दिन के भीतर उस महिला को पब्लिकली माफी मांगनी पड़ी. उन लड़कियों को सबका समर्थन, सबकी ताकत, सबकी हिम्मत मिली. इस जीत में हम लड़कियों के साथ हैं.

    बेशक, हर लड़की को हक है अपनी मर्जी से कपड़े पहनने का और किसी मर्द को ये हक नहीं कि वो उसे गंदी नजर से देखे या उसका रेप करे. हम उस जाहिलियत से भी वाकिफ हैं, जो रेप होने पर लड़की के कपड़ों की इंक्वायरी करती है. और इस हकीकत से भी कि 70 साल की महिला और तीन साल की बच्ची का, साड़ी, घूंघट और बुर्के में ढंकी स्त्री का भी रेप होता है. रेप का कपड़ों से कोई संबंध नहीं.

    हमें सच पता है, हमें तथ्य पता है, हमें हक पता है, हमें आजादी पता है.

    हमें सब पता है और हम अपनी मर्जी के कपड़े पहनकर घूम रहे हैं. कितने भी छोटे, कितने भी बड़े. बेहद तंग, बेहद मुश्किल और बेहद आसान.
    “मेरी देह, मेरा हक.”
    “माय बॉडी, माय चॉइस.”



    कितनी सुंदर बात लगती है सुनने में. एक सिहरन सी महसूस होती है कहते हुए, आजादी की सिहरन.
    लेकिन ये कहानी सुनिए. शायद वैसी ही सिहरन इसे सुनते हुए भी महसूस हो.

    अमेरिका की ये घटना तकरीबन 27 साल पुरानी है. एक सिगरेट का विज्ञापन शूट किया जा रहा है. मॉडल ने जींस और लेदर जैकेट पहनी है. फिर वो अपनी जैकेट की फ्रंट जिप खोलना शुरू करती है, धीरे-धीरे, काफी सेंसुअस अंदाज में. जैकेट के भीतर कोई कपड़ा नहीं है. जिप खुलते हुए जब अंत के करीब पहुंचती है तो अंदर से सिगरेट का पैकेट निकलता है, साथ में मॉडल की खुली हुई छातियां भी. सिगरेट तब ज्यादातर मर्द ही पिया करते थे. कंपनी उन्हें सिगरेट के साथ औरत की बॉडी इमेज भी बेचना चाहती थी. फिलहाल कहानी ये है कि उस मॉडल को इस विज्ञापन पर थोड़ी आपत्ति थी. वो जैकेट के नीचे ब्रा पहनना चाहती थी. कंपनी को सिगरेट खरीदने वाले मर्दों को ब्रा नहीं दिखानी थी. वो और ज्यादा ऑफर करना चाहते थे. न कंपनी मानी, न मॉडल. आखिरकार एड उसके हाथ से जाता रहा. बाद में कंपनी ने काफी सिगरेट बेची और उसके साथ दूसरी मॉडल की नग्न छातियां भी. मॉडल को पैसा मिला, काम मिला और एक नया स्लोगन- “माय बॉडी, माय चॉइस.” इस बारे में और जानने के लिए जेन किलबॉर्न की डॉक्यूमेंट्री देखनी चाहिए- “किलिंग अस सॉफ्टली.

    अमेरिका में 70-80 के दशक में मास मीडिया की शुरुआत हुई. बाजार में नए प्रोडक्ट आए और उन्हें बेचने के लिए विज्ञापन. हर विज्ञापन में एक औरत थी. और सिर्फ औरत नहीं, बल्कि एक खास तरह की बॉडी इमेज को बेच रही औरत. सिगरेट के विज्ञापन में खुली छातियां थीं तो मर्दों के अंडरवियर के विज्ञापन में औरत की जांघें. मर्दों के सूट के विज्ञापन में फोकस औरत के नितंबों पर होता, जो ये बताता कि फलाने ब्रांड का सूट पहनने से ऐसे नितंबों वाली औरत मिलती है.

    पिछले 40 सालों से ये विज्ञापन मर्दों के अंडरवियर से लेकर ट्रक के टायर और इंजन ऑइल तक सबमें औरतों का शरीर ही नहीं बेच रहे, वो उस शरीर को एक खास सेक्सुअल प्रोडक्ट की तरह बेच रहे हैं. हर उस इमेज में औरत अपने कपड़े उतार रही है और स्लोगन है- “माय बॉडी, माय चॉइस.” एक सर्वे के मुताबिक एक व्यक्ति औसतन दिन में 3000 विज्ञापन देख रहा है, जिसमें से 96 फीसदी विज्ञापनों में औरत है और 70 फीसदी में बिना कपड़ों वाली औरत की एक खास बॉडी इमेज. इसका मतलब ये है कि एक औसत युवा लड़का और लड़की दिन में तकरीबन 54 मिनट अलग-अलग रूपों में औरत की एक खास बॉडी इमेज देख रहे हैं. यानी साल में 19,710 मिनट. हार्वर्ड की एक रिसर्च कहती है कि साढ़े दस हजार मिनट का विज्ञापन हमें किसी चीज का आदी बनाने के लिए काफी है.

    उस दिन हौजखास विलेज में उन लड़कियों ने और गुड़गांव के उस रेस्टोरेंट में उस लड़की ने अपनी मर्जी, अपनी खुशी से अपनी पसंद के जो कपड़े पहने थे, उसमें कितनी उनकी मर्जी थी और कितना 40 सालों से लगातार दिखाए और बेचे जा रहे विज्ञापनों का असर?



    इंटरनेट पर सैकड़ों आर्टिकल हैं, जो इस बात की तसदीक कर रहे हैं कि शरीर लड़की का है, वो इसे जैसे चाहे रखे, जो चाहे पहने, बुर्का पहने या सिर्फ ब्रा, उसकी बॉडी, उसका हक. लेकिन एक भी आर्टिकल ये सवाल नहीं पूछ रहा कि लड़कियों के ये कपड़े डिजाइन कौन कर रहा है? 700 बिलियन डॉलर की महिलाओं की फैशन इंडस्ट्री की इसमें क्‍या भूमिका है? बाजार औरतों के लिए जितने कपड़े बना रहा है, वो सब एक खास तरह से उसके शरीर को एक्सपोज करने वाले ही क्यों हैं? वो इतने तंग, चुस्त और इतने गैरआरामदायक क्यों हैं? वो ढीले और सहज क्यों नहीं हो सकते? मर्दों के कपड़ों की तरह. औरतों की पूरी पीठ खुली हो, कमर दिख रही हो, जांघें नग्न हों, ऐसे कपड़े कौन डिजाइन कर रहा है? मर्दों के कपड़े न तो बैकलेस होते हैं, न शोल्डरलेस. न उनके पैर दिखते हैं, न पेट, न जांघें. ये सब सिर्फ औरतों का ही क्‍यों दिख रहा है? क्या इसलिए कि स्त्रियां अपनी देह के साथ ज्यादा सहज हैं?

    या इसलिए कि जो बिक रहा है, वो औरत का शरीर है और खरीदार है मर्द.

    इस पूरे तर्क में किसी को नैतिकतावाद की झलक दिख सकती है. इसलिए इसे थोड़ा और तह में जाकर समझते हैं.

    एक जर्मन फिल्म है- बादेर माइनहॉफ कॉम्प्लेक्स. फिल्म शुरू ही एक बीच के दृश्य से होती है, जहां ढेर सारे स्त्री-पुरुष समंदर के किनारे हैं. तकरीबन सभी निर्वस्त्र हैं, स्त्री-पुरुष, बच्चे सब. कैमरा बड़ी सहजता से पैन होता है, न किसी औरत के शरीर को एक खास एंगल से दिखाता है और न किसी आदमी के. ढेर सारे मानव शरीर अपने निहायत आदिम, प्राकृतिक रूप में सामने से गुजरते हैं. तकरीबन 30 सेकेंड के इस दृश्य को देखते हुए हम सिर्फ अपने होने को महसूस करते हैं. बिलकुल वैसे ही, जैसे हम हैं. उसमें न उत्तेजना है, न सेक्स.

    विज्ञापन आदिम नहीं हैं, लेकिन मनुष्य की देह है. उससे ज्यादा निर्मल और निष्पाप कुछ नहीं. देह से जुड़े सारे दोष संस्कृतियों और सभ्यताओं के रचे दोष हैं. देह सबसे निर्दोष है. विज्ञापन सभ्यता की देन है और मनुष्य देह पर पड़ा कपड़ा भी. देह अनादिकाल से है.

    इसलिए सवाल ये है कि क्या उस दृश्य में दिख रहे शरीर और उस अमेरिकन सिगेरट के विज्ञापन वाले शरीर और हौजखास की उन खूबसूरत लड़कियों के बेहद असहज शरीर में कोई फर्क है? क्या हर शरीर अपनी आजादी, अपनी सहजता में है? क्या हर शरीर अपनी छवि, अपना रूप खुद चुन रहा है?

    जवाब है, नहीं. सच तो ये है कि एक अपने आदिम निष्पाप रूप में है और दूसरा बाजार की बनाई और बेची जा रही इमेज का गुलाम. पहली इमेज मनुष्य देह को औरत और आदमी में नहीं बांटती, दूसरी औरत को एक प्रोडक्ट की तरह पेश करती है. वो प्रोडक्ट, जो माय बॉडी, माय चॉइस के नाम पर लड़कियां खरीद रही हैं.

    लड़कियां पूछती हैं तो क्या आप कह रही हैं कि लड़कियों को अपना शरीर ढंककर रखना चाहिए?
    नहीं, बिलकुल नहीं. सवाल ये नहीं है कि शरीर ढंककर, छिपाकर रखना चाहिए. लेकिन सवाल ये है कि कुछ भी पहनने से पहले उन्‍हें खुद से ये सवाल जरूर पूछना चाहिए कि वो खुली जांघों वाले कपड़े पहनकर मॉल में इसलिए गई हैं कि अपनी देह के साथ बहुत सहज हैं या इसलिए कि शायद सहज नहीं हैं.

    उन्हें पूछना चाहिए ये सवाल कि सिगरेट बेचनी थी और औरत की छाती क्यों दिखाई? एक खास ब्रांड का सूट बेचना था और तो औरत के नितंब क्यों बेचे? इंजन ऑइल का औरत की जांघों से क्या रिश्ता था?

    और ये सवाल भी, जो उस गुड़गांव वाले वीडियो में एक महिला ने स्‍लट शेमिंग कर रही औरत की उल्‍टे शेमिंग करते हुए पूछा था. “उसकी बॉडी है तो वो दिखाएगी. तुम्हारे पास क्या है दिखाने को.”

    यही तो कह रहा है न बाजार हमसे, हम लड़कियों से कि तुम्‍हारे पास एसेट है तो तुम उस एसेट को दिखाती क्‍यों नहीं. साल के 19,710 मिनट बाजार ने हमें वो एसेट ही तो दिखाया.

    इसलिए हमने पितृसत्‍ता की मारी उस स्‍त्री की जाहिलियत पर एक दूसरा जाहिल सवाल खींचकर दे मारा. एक गलत का विरोध करते हम देख भी नहीं पा रहे कि किस दूसरे गलत के जाल में फंस रहे हैं.

    इसलिए मैं ये नहीं कह रही कि लड़कियों को अपना शरीर ढंककर रखना चाहिए?
    लेकिन लड़कियों को ये सवाल जरूर पूछना चाहिए कि उनका शरीर सिर्फ एक सहज, सुंदर, निर्दोष इंसानी देह है या कोई एसेट.

     

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