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'ख़्वाब ले लो ख़्वाब', अमृता के नाम शुऐब शाहिद का ख़त

शुऐब शाहिद हिंदी और उर्दू के लेखक हैं. उनके डिजाइन किए गए किताबों के कवर काफी चर्चित रहते हैं.

शुऐब शाहिद हिंदी और उर्दू के लेखक हैं. उनके डिजाइन किए गए किताबों के कवर काफी चर्चित रहते हैं.

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काल्पनिक किरदार को ख़त लिखने के पीछे की वजह पर शुऐब शाहिद बताते हैं कि कभी इंसान किसी करीबी से अपने दिल की बात नहीं कह पाता है. इसकी वजह यह है कि कोई कितना भी करीबी दोस्त हो, व्यक्ति को इस बात का डर रहता है कि अगर वह अपने दिल की बात कहेगा तो उसको जज किया जाएगा. क्योंकि करीबी से करीबी भाई, बहन, दोस्त या अन्य रिश्तेदार को जब आप अपने दिल की बात कहते हैं वह आपको जज करने लगता है. यह इनसान के स्वभाव में है हम सामने वाले को जज करने लगते हैं. इस डर से लोग अपने दिल की बात कह नहीं पाते हैं. अकेलेपन की वजह भी यही है.

हमें चाहिए कि हम एक ख्याली किरदार बनाएं और इस काल्पनिक किरदार से अपने दिल की बात कहनी चाहिए. इस किरदार को ख़त लिखिए.

शुऐब बताते हैं कि उनके ख्याली किरदार का नाम अमृता है जरूर पर वह अमृता प्रीतम नहीं है. लेकिन कुछ लोगों ने इस ख्याली अमृता को महान लेखिका अमृता प्रीतम समझ लिया है. लेकिन इस काल्पनिक किरदार को ख़त लिखने का आइडिया अमृता प्रीतम के यहां से ही आता है. क्योंकि अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब वह छोटी थीं तब उन्होंने इसी तरह एक ख्याली किरदार को खत लिखना शुरू किया. वे राजन नाम के अपने काल्पनिक साथी को ख़त लिखकर दिल की बातें साझा करती थीं.

तो आप भी पढ़ें शुऐब के अपने ख्याली किरदार के नाम लिखे ख़त-

प्यारी अमृता,

बहुत छोटा था जब पहली मर्तबा तुम्हें ख़त लिखा. कई रोज इंतज़ार किया पर कोई जवाब ना पाया. तब से यक-ए-बाद-दीगरे मुसलसल लिखता जाता हूं. मगर इंतज़ार ही इसका हासिल है. अब तो यक़ीन हो चला है कि ये ख़त शायद तुम तक पहुंचते ही ना हों. मगर इस तर्ज़-ए-दीवानगी पे क्या कहिये, कि मुझे बस यूं ही ख़त लिखना ख़ुश आ गया है. “अब तक दिल-ए-ख़ुश फ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें” वाली कैफ़ियत है. अक़्ल कहती है कि इस लिखने का कुछ हासिल नहीं. दिल का मआमला कुछ और है…!

कई मर्तबा सोचता हूं कि तुम्हारे होने के क्या मायने हैं? तुम्हारे नाम के होने का फ़ायदा क्या है? मैं तो चाहता था कि तुम होतीं ज़िंदगी में साथ-साथ. और तुम्हारा होना इस बेरंग ज़िंदगी में रंग भर देता. जब दरिया अपनी तुग़यानी पर हो और रेत से पांव फिसलने लगे तो तुम थामो मेरा हाथ. और इस तरह, कि दरिया चढ़े या उतरे, हम डूबें या पार हो जाएं फ़क़त तुम्हारा साथ मेरा मुक़द्दर हो.

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मैं चाहता था तुम्हारा साथ मयस्सर हो, जब तेज़ हवा सब कुछ उखाड़ फैंके. जब मेरा वजूद रेत के पुतले की तरह बिखर जाए. तब तुम अपने नाज़ुक हाथों से उस रेत को समेट लो. और तख़लीक करो उसको पहले बेहतर शक़्ल में कि वो तुम्हारा ही तो है. मैं चाहता था कि सारे मौसम तुम्हारी नज़रों से देखूं. और मेरी फ़िक्र-ए-अव्वल इसके सिवा कुछ ना हो कि किसी मौसम का एक झोंका भी तुम्हें परेशान ना कर दे. तपते हुए दिनों में मेरा वजूद किसी गहरे समुन्दर की तरह हो. जिसके सीने की वुसअत में जहान भर की ठंडक केवल तुम्हारे लिए है.

ठिठुरती हुई रातों में तुम मेरा वजूद किसी अलाव में जलती हुईं उन बे-शजर लकड़ियों की तरह पातीं, कि जो अपनी शाख़ से जुदा होती हैं. रात भर जलते हुए ख़ाक हो जाएं लेकिन अपने मकसद को ना भूलें. कि उनकी तमाम क़ुर्बानी फ़क़त तुम्हारे सुकून पर मुन्हसिर है.

मैं चाहता था कि बारिश हो. बादलों का एक हुजूम मेरे सर के ऊपर साया किए हो और मैं बादलों की उस भीड़ में तुम्हारे और मेरे चेहरे तलाश करूं. समुन्दर भर बारिश हो. सब कुछ धुल जाए. वो तमाम नक़्श भी जो तुम्हारी फुरक़त के थे. वो तमाम सियाह धब्बे जो तुम्हारे नाम वालों ने मेरी मोहब्बत के रौशन चेहरे पर लगाए. और बह जाए दिलों की अना कि जिसकी वजह से इंसानों में पिंदार-ए-ख़ुदाई वरूद पाती है. मेरा वजूद किसी शजर-ए-खमोशां का सा हो, जो सारी रात बारिश में भीगे और सुबह तुम्हारे लिए चंद कलियां खिली हों. जिन्हें देख कर तुम भी महक उठो.

मैं ये सब चाहता था. मगर ये हो ना सका….!!

मैंने मुद्दतों तुम्हें चाहा. तलाश किया. तुम्हें ढूंढते हुए कई उम्रें गुज़री हैं. अलग-अलग दरियाओं के किनारे बसने वाले बहुत से शहरों में तुम्हारा नाम पुकारता रहा हूं. कभी तपते हुए सहराओं में तुम्हें आवाज़ दी. कहीं ना पाया.

हां, बहुत से लोगों ने कहा कि “हम ही तो हैं, तुम्हारी अमृता!” उनमें कोई अमृता ना था. सब झूठ कहते थे. बुरा करते थे. दुनिया में सबसे बुरा होता है किसी ‘अमृता’ के मुतलाशी से झूठ कहना.

मैं जानता हूं कि तुम तो किसी जज़ीरे पर मेरा इंतज़ार करती हो. मैं इस अर्ज़-ए-वीरां पर तुम्हारा इंतज़ार करता हूं. तलाश अब नहीं करता. थक गया हूं शायद. या शायद डर गया हूं कि तलाश के ये तमाम रस्ते किसी गलत मंजिल से जा मिलते हैं. हर बार…

ऐ मेरी हमनफ़स, इन दिनों मेरा हाल ‘नून मीम रशीद’ के उस ‘अंधे कबाड़ी’ का सा है कि जो रोज़ सुबह निकलता है और लगाता है सदा “ख़्वाब ले लो ख़्वाब!” लोग कहते हैं कि हमारे किस काम के ये ख़्वाब? इस अंधे कबाड़ी के ख़्वाबों का हम क्या करें?

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दोपहर होती है. फिर चिल्लाता हूं- “ख़्वाब ले लो ख़्वाब!” “मुफ़्त ले लो ये ख़्वाब! ये सोने के ख़्वाब!”

लोग नहीं लेते. शाम होती है. दिल और बैठता जाता है. सदा देता हूं- “ख़्वाब ले लो. और ले लो इनके दाम भी… ख़्वाब.. मेरे ख़्वाब”

ख़्वाबों को लिए घर लौट आया हूं. रोज़ की तरह. रात गहरी है. तेज़ हवा चलती है. मैं, चराग़-ए-बेनवां सुब्ह का इंतज़ार करता हूं.

मेरी सुबह तुम ही तो हो…!

तुम्हारे ख़याल का अमीन!

शुऐब शाहिद

Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, Literature

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