बेढब बनारसी की रचनाओं में केवल हास्य व्यंग्य ही नहीं, जीवन की वास्तविकताएं भी देखने को मिलती हैं.
जीवन में मैं कुछ कर न सका
देखा था उनको गाड़ी में
कुछ नीली नीली साड़ी में
वह स्टेशन पर उतर गईं
मैं उनपे थोड़ा मर न सका
जीवन में मैं कुछ कर न सका।
महिलाओं की थी भीड़ बड़ी
गगरा-गगरी थीं लिए खड़ीं
घंटों मैं नल पर खड़ा रहा
फिर भी पानी मैं भर न सका
जीवन में मैं कुछ कर न सका।
सिनेमा तक उनका साथ किया
मैंने उनका भी टिकट लिया
भागी मेरा भी टिकट लिए
मैं जा सिनेमा भीतर न सका
जीवन में मैं कुछ कर न सका।
वह गोरी थी, मैं काला था
लेकिन उनपर मतवाला था
मैं रोज रगड़ता साबुन
पर, चेहरे का रंग निखर न सका
जीवन में मैं कुछ कर न सका।
अंग्रेजी ड्रेस उनको भाया
इसलिए सूट भी सिलवाया
सब पहन लिया मैंने लेकिन
नेकटाई-नाट संवर न सका
जीवन में मैं कुछ कर न सका।
सीधे रण में बढ़ सकता हूं
फांसीपर मैं चढ़ सकता हूं
पर बेढब तिरछी चितवन के
सम्मुख यह हृदय ठहर न सका
जीवन में मैं कुछ कर न सका।
(बेढब बनारसी यानी कृष्णदेव प्रसाद गौड़ बनारस में एक इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल थे. वे शहर के प्रभावशाली सांस्कृतिक व्यक्ति थे. उनका जन्म बनारस में 11 नवंबर, 1885 को हुआ था. 6 मई, 1968 को उनकी मृत्यु हुई.)
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