डॉ. के. श्रीनिवास राव साहित्य अकादेमी के सचिव हैं और हिंदीतर भाषी होते हुए भी हिंदी साहित्य और भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है.
(डॉ. ओम निश्चल/ Om Nishchal)
अहिंदीभाषी लेखकों को हिंदी में पढ़ना अच्छा लगता है. इससे लगता है वाकई हिंदी हिंदीतर भाषियों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन रही है. यह बोध डॉ. के. श्रीनिवास राव की हाल ही में निबंधों की पुस्तक ‘भारतीय साहित्य और संस्कृति’ को पढ़ते हुए हुआ. उन्हें अनेक अवसरों पर कार्यक्रमों का प्रस्तावन करते हुए सुनता-गुनता रहा हूं. हर बार उन्हें हिंदी में और मंजा हुआ, निथरा हुआ पाता रहा हूं. वे तेलुगूभाषी हैं और हिंदी पर दखल रखते हैं. उन्हें सुनते हुए मुझे तेलुगू के ही प्रसिद्ध अनुवादक और लंबे अरसे तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे डॉ. जे. एल. रेड्डी की याद आती है. उनकी हिंदी इतनी परिमार्जित और व्याकरणनिष्ठ थी कि उनसे बातचीत करते हुए इस बात का पग-पग पर भान होता था. तेलुगू से हिंदी में किए उनके अनुवादों का कहना ही क्या. ‘जिगरी’ जैसे उपन्यास का जितना कुशल अनुवाद उन्होंने किया है उसने उस कृति का जैसे मौलिक आस्वाद पैदा किया है.
साहित्य अकादेमी में रहते हुए मलयालम कवि के. सच्चिदानंदन की हिंदी भी भाषिक अर्थवत्ता और लावण्य से संपन्न हुआ करती थी. वे हिंदी कवियों के नोटेशंस और निर्वचन पर पकड़ रखते थे. यदि अनामिका और मंगलेश डबराल उन्हें कवि के रूप में प्रिय हैं तो उनकी कविताओं का विशेषत्व उनसे अलक्षित नहीं रहता था. एक बार उनसे लंबी बातचीत का अवसर मिला तो यह देख कर सुखद लगा कि मैं जिस गहराई से उनसे हिंदी के लेखकों के बारे में सवाल करता था, उसे पूरी बारीकी से पकड़ते हुए उत्तर देते थे. उच्चारण में दाक्षिणात्य होते हुए भी वे बिल्कुल यह भान नहीं होने देते थे कि हम किसी हिंदीतर भाषी साहित्यकार से बातचीत कर रहे हैं.
बिल्कुल ऐसी ही भाषाई स्वाभाविकता का बोध डॉ. के. श्रीनिवास राव की पुस्तक ‘भारतीय साहित्य और संस्कृति’ पढ़ते हुए होता है. यों वे दक्षता के साथ तेलुगू में लिख सकते हैं, अंग्रेजी में तो वे सिद्ध ही हैं किन्तु अनेक कार्यक्रमों संगोष्ठियों के प्रारंभिक उद्बोधन के लिए उनकी तैयारी इतनी सुगठित हुआ करती है, यह उन्हें बोलते हुए सुनने पर पता चलता है. इसे वे अपने प्रारंभिक वक्तव्य में स्पष्ट भी करते हैं. इसे वे थोड़ी सी लिखत-पढ़त कहते हैं. भाषा की महोदधि के सामने ऐसी विनयशीलता कम लेखकों में देखी जाती है.
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उनकी इस पुस्तक में भाषा, संस्कृति, समकालीन साहित्यिक परिदृश्य, बहुभाषी लेखन, स्त्री और दलित साहित्य, भारतीय स्त्री लेखन, निबंध, संस्कृति की सनातनता, साहित्यिक पत्रकारिता, साहित्येतिहास, पढ़ने की आदत, अनुवाद संस्कृति, हिंदी के वैश्विक स्वरूप और हिंदी के राजभाषा स्वरूप तक तमाम विषयों पर शामिल ये निबंध किसी आपद्धर्म का परिणाम नहीं, बल्कि उनकी अंतश्चेतना का उद्दीप्त कथन लगते हैं. ऐसा लगता है उन्होंने सारे विषयों को आत्मसात किया है, अवगाहित किया है.
के. श्रीनिवास राव इसे भारतीय भाषाओं की विशेषता मानते हैं कि एक ही भाषा की कितनी ही उपभाषाएं व बोलियां हैं. वे सब अपने अपने इलाके में बोली व समझी जाती हैं. पूरे भारत में धार्मिक मान्यताएं, रीति रिवाज, वेशभूषा, भाषा, बोली, साहित्य, प्रथाएं, मत-मतांतर, अनुष्ठान,कर्मकांड, क्षेत्रीयताएं-स्थानीयताएं अलग अलग हैं किन्तु लगता है कि पूरा भारत एक है. इसकी संतानें अपनी आदतों, विशिष्टताओं में अलग अलग होती हुई भी एक भारत माता की कृतियां लगती हैं. वे इसे सुखद मानते हैं कि विश्व के ग्लोबल विलेज बनते जाने के बावजूद भारत की पहचान अमिट है और यह युवाओं के सतत आगे आते लेखन में प्रतिबिम्बित होती है. वे इस बात पर चिंता जरूर व्यक्त करते हैं कि इधर भारतीय आबादी के बीच भारतीय अंग्रेजी में हो रहे लेखन की खपत बढ़ रही है किन्तु इसकी वजह समाज में मातृभाषा के उपयोग में कहीं न कहीं आती जा रही गिरावट है.
भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवास राव इस पहलू को रेखांकित करना नहीं भूलते कि लेखन में युवाओं की संख्या बढ़ रही है. यह लेखन अपनी अपनी सांस्कृतिक विविधताओं के साथ सामने आ रहा है और यह समाज का दर्पण भी है और क्रिटीक भी. दलित, आदिवासी और स्त्री अस्मिताओं में बढ़ते हुए लेखन में समाज में व्याप्त होती जागरूकता और अधिकारचेता नागरिकता के लक्षण सहज ही दीख पड़ते हैं. उन्होंने राजभाषा के रूप में हिंदी के विकास को भी भारतीय संस्कृति की शक्ति से जोड़ कर देखा है.
उनका कहना है कि राजभाषा नीति केवल हिंदी के विकास के लिए नहीं बल्कि संविधान सम्मत सभी प्रादेशिक भाषाओं के विकास के लिए है. संघ की राजभाषा ने किसी प्रदेश के भाषाई अधिकार को अपदस्थ नहीं किया. उनका स्वरूप कायम रखते हुए प्रदेश में राजभाषा का दर्जा दिलाया. यहीं उन्होंने गांधी और राष्ट्रभाषा पर भी अपने विचार रखे हैं. हिंदी के पक्ष में गांधी जी की बातोंको संक्षेप में रखते हुए के. श्रीनिवास राव कहते हैं कि स्वराज, स्वतंत्र, स्वचिंतन और स्वधर्म को गांधी जी महत्व देते थे. यही वास्तव में स्वदेशी चिंतन है तथा गांधी जी के अनुसार हिंदी में यह तत्व और गुण हैं कि वह हमें स्वदेशी चिंतन करने का आधार प्रदान कर सकती है.
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भारतीय संस्कृति के अनूठेपन वैविध्य व गहरी आंतरिकता को लक्षित करने के लिए वे ‘मैला आंचल’ की आंचलिकता का संदर्भ उठाते हैं कि कैसे एक उपन्यास पूर्वांचल की मनोभौगोलिक सत्ता का विधायक हो सकता है. कैसे वह भारतीय जन जीवन का एक प्रातिनिधिक उपन्यास बन गया. क्या समाज, क्या राजनीति, क्या अर्थव्यवस्था, क्या रहन सहन, क्या लोक जीवन, बोलचाल, चाल ढाल, मिथक, रीति रिवाज, अनूठे चरित्र जैसे यह भारतीयता की पूरी रंगशाला है आजादी के बाद के भारत के अभ्युदय और मोहभंग की मिली जुली दास्तान—कहें तो यह साहित्य का अपना समाजशास्त्र है जो ‘मैला आंचल’ के नैरेटिव में पग-पग पर रचा बसा है.
के. श्रीनिवास राव ने यहां अनेक वरेण्य साहित्यकारों को भी स्मरण किया है जिन्होंने साहित्य की आधारशिला रखी. राजस्थान के कवि कन्हैयालाल सेठिया ऐसे ही कवियों में थे जिनकी सुगंध पूरे मुल्क में फैली. ‘पंख दिए आकाश न दोगे’ जैसी लालित्यपूर्ण रचना करने वाले सेठिया की ‘धरती धोरां री रचना’ तो जैसे अमरता ही पा चुकी है. यह राजस्थान की माटी का अविस्मरणीय गीत है. उनके व्यक्तित्व के अनूठे पहलुओ को याद करते हुए वे यह कहना नहीं भूलते कि कन्हैयालाल सेठिया छंदों के धनी थे. ओज और उदात्त के स्वामी, मातृभाषा के सच्चे कवि सपूत और उनके गीतों का तो कहना ही क्या. यह बात तब और अभिभूत कर गई जब मैंने खुद सेठिया जी के गीत गाए.
राव ने लोकप्रिय शायर मजरूह की रूह में भी प्रवेश किया है और नरेंद्र कोहली के विपुल लेखन के सारतत्व में भी जो परंपराओं की नींव पर खड़ा बहुसांस्कृतिकता का सत्यापन करता है. श्रीनिवास राव ने साहित्य के महत्व पर बहुधा बातें कही हैं. एक जगह वे बालकृष्ण भट्टके इस कथन का उल्लेख करते हैं कि साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है. यानी यह चित्त के चित्रपट की तरह ही गतिशील है. वे हिंदी के विकास में सभी का सामूहिक योगदान मानते हैं. इसका संकेत यह है कि हिंदीतर भाषी इलाकों से नए से नए लेखक सामने आ रहे हैं. उनमें पढ़ने की आदत का विकास हो रहा है. पहले से अधिक पेचीदा और जटिल होती दुनिया को पहचानने की शक्ति उनमें विकसित हो रही है.
हिंदी को लेकर इसके राजभाषा पद को लेकर अनेक स्तरों पर विमर्श और बहसें आज होती हैं. आठवीं अनुसूची में आने के लिए भी अनेक बोलियों और भाषाओं का आंदोलन अरसे से चल रहा है. बेशक उसके पीछे कोई राजनीतिक या लाभ-लोभ की मुहिम हो. पर राव का मानना यह है कि हिंदी अब धीरे धीरे वैश्विक स्वरूप में ढल रही है. भक्ति साहित्य ने अपने आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बनाया था. साधु-संतों भक्ति काल के कवियों ने राष्ट्र को एक कड़ी में पिरोने की मुहिम चलाई थी. हिंदी के ही भाषाई रथ पर सवार होकर संतों ने पूरा देश भ्रमण किया, उनके वचनामृत देश के कोने-कोने में फैले.
कुल मिला कर डॉ. के. श्रीनिवास राव की पुस्तक ‘भारतीय साहित्य और संस्कृति’ उनके समावेशी चिंतन और बहुज्ञता का परिचायक है. वे अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक हैं. तेलुगू तो उनकी मातृभाषा ही है. किन्तु साहित्य अकादेमी में रहते हुए वे भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली हिंदी के हितैषी बन कर एक अच्छे निबंधकार के रूप में उभरे हैं, यह कहने में संशय नहीं. बल्कि इन आलेखों से गुजरते हुए यह बात प्रमाणित होती है कि उन्होंने साहित्य की आत्मा को सही तरीके से समझा और जाना है तथा हर भाषा के साहित्य की श्रेष्ठता की पहचान करने की उनमें भरपूर क्षमता है.
पुस्तकः भारतीय साहित्य और संस्कृति
लेखक: के. श्रीनिवास राव
प्रकाशनः भावना प्रकाशन
मूल्यः 395 रुपये
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Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature
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