रेख़्ता बुक्स की किताब '100 शायर 100 गज़लें' में पिछले 500 सालों के चुनिंदा 100 शायरों की रचनाओं को पेश किया गया है.
Book Review: शेर, शायरी और गज़लों का शौक रखने वालों के लिए बाजार में एक शानदार किताब आई है. रेख्ता बुक्स ने ‘100 शायर 100 गज़लें’ नाम से यह किताब प्रकाशित की है. इसमें भले ही 100 शायरों की महज 100 गज़लें दी गई हैं लेकिन यह संग्रह आपको उर्दू शायरी के पिछले 500 वर्षों की सैर कराता है. इसमें वे तमाम उम्दा शायर हैं जिनकी गज़लों को आप खूब गाते-गुनगुनाते हैं लेकिन शायर के बारे में नहीं जानते.
गज़लों के इस अनूठे संग्रह को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि इसमें मशहूर शायरों की रचनाएं तो हैं ही साथ में उन गुमनाम या कम मशहूर शायरों की रचनाएं भी हैं. खास बात ये है कि इन रचनाओं से गुजरते हुए ये आपके दिल और दिमाग पर छाप जरूर छोड़ेंगी.
गज़लों का यह सफरनामा शुरू होता है 15वीं सदी के गोलकुंडा (तेलंगाना) के शायर मोहम्मद कुली कुतुब शाह की शायरी से. इन शायर के बारे में बताया गया है कि मोहम्मद कुली कुतुब शाह उर्दू का पहला संग्रह तैयार करने वाले शायर थे. वे 1580 में गोलकुंडा की कुतुबशाही सल्तनत के बादशाह बने. आप भी उनका एक शेर पढ़ें-
अज़ल थे हम तुमन में यारी है ऐ पीर-ए-मयखाना
अजब क्या है छुपाकर देव मय मुंज कूं पियाली दूं
(अज़ल- सृष्टि का प्ररांभ, थे- से, पीर ए मयखाना- मयखाने का मालिक, देव- दे दो)
16वीं सदी में औरंगाबाद, महाराष्ट्र के शायर वली मोहम्मद वली का एक शेर देखिए-
मुझ दिल के कबूतर कूं बांधा है तिरी लट ने
ये काम धरम का है टुक उसको छुड़ाती जा
तुझ मखु की परस्तिश में गई उमर मिरी सारी
ऐ बुत की पुजनहारी टुक उस को पुजाती जा
दिल्ली में उर्दू शायरी की शुरूआत के लिए प्रेरणा स्रोत रहे वली मोहम्मद वली आगे कहते हैं-
तुझ इश्क में जल जल कर सब तन कूं किया काजल
ये रौशनी-अफ्ज़ा है अंखिया को लगाती जा
(रौशनी अफ्जा- रोशनी बढ़ाने वाला)
उर्दू शायरी में हिंदी शब्दों का इस्तेमाल करने वाले और 18वीं सदी के शुरूआत में उर्दू शायरी को स्थापित करने वाले शाह मुबारक आबरू की शायरी सीधे दिल में उतरती है-
लाते नहीं जबान पे आशिक दिलों का भेद
करते हैं अपनी जान की बातें नयन में हम
आती है उस की बू सी मुझे यास्मीं में आज
देखी थी जो अदा कि जन के बदन में हम
(यास्मीं- चमेली का फूल)
यहां आपको शेख जहूरुद्दीन हातिम भी पढ़ने को मिलेंगे. शेख जहूरुद्दीन हातिम के बारे में बताया जाता है कि दिल्ली के शायरों में वे बहुत मशहूर थे. इन्होंने अपनी रचनाओं में हिंदी, उर्दू और फारसी का खूब इस्तेमाल किया है. इसकी बानगी उनके शेरों में देखी जा सकती है-
इस मुंह से कलाम कुछ न निकला
जुज़ तेरा ही नाम कुछ न निकला
(कलाम- बात, जुज़- के अतिरिक्त)
बाजार से आए हाथ खाली
कीसे में से दाम कुछ न निकला
(कीसे- बटुवा)
इस संकलन में आपको मिर्जा मुहम्मद रफी ‘सौदा’ की गज़ल भी पढ़ने को मिलेगी. मुहम्मद रफी ‘सौदा’ (1713–1781) दिल्ली के एक मशहूर शायर थे. ये मीर के समकालीन थे इसलिए इनकी तुलना भी अक्सर मीर से होती है.
हिंदू हैं बुत-परस्त मुसलमां खुदा-परस्त
पूजूं मैं उस किसी को जो हो आश्ना-परस्त
(परस्त- पूजने वाला) (आश्ना- माशूक)
आवारगी से खुश हूं मैं इतना कि बाद-ए-मर्ग
हर जर्रा मेरी खाक का होगा हवा-परस्त
(बाद-ए-मर्ग= मौत के बाद)
उसी जमाने में दिल्ली के एक और मशहूर शायर हुए थे ख़्वाजा मीर दर्द. वे रहस्यवादी कवि और सूफ़ी संत थे. उन्होंने अपनी रहस्यवाद को कविता में अनुवादित किया है-
हम तुझसे किस हवस की फलक जुस्तुजू करें
दिल ही नहीं रहा है कि कुछ आरजू करें
तर-दामनी पे शेख हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो फरिश्ते वुजू करें
(तर दामनी- शराब से तर कपड़े, शेख- धर्म गुरु)
उर्दू शायरी के सफर पर निकले हैं तो मीर की खुशबू में सराबोर हुए बिना कैसे रह सकते हैं. मोहम्मद तक़ी, जो कि शायरी में मीर तक़ी मीर के नाम से मशहूर हुए, को उर्दू शायरी में ‘खुदा-ए-सुखन’ यानी शायरी का खुदा कहा जाता है. इनकी शायरी में और करुणा की झलक देखने को मिलती है-
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया
(तदबीर- प्रयत्न)
किसका काबा कैसा किब्ला कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने सब को यहीं से सलाम किया
(किब्ला- काबा जिसकी ओर मुंह करके नमाज पढ़ी जाती है)
भारतीय संस्कृति और तीज-त्योहारों को अपनी शायरी में शामिल करने वाले नज़ीर अकबराबादी की नज्मों से गुजरते हुए अगल ही सुकून महसूस किया जाता सकता है-
हंसे रोए फिरे रुस्वा हुए जागे बंधे छूटे
गरज़ हमने भी क्या क्या कुछ मोहब्बत के मजे लूटे
(रुस्वा- बदनाम)
हजारों गालियां दीं फिर ज़रा हंस कर इधर देखा
भला इतनी तसल्ली से फफोले दिल के कब फूटे
हमारी रूह तो फिरती है माशूकों की गलियों में
नजीर अब हम तो मर कर भी न इस जंजाल से छूटे
इस तरह तमाम शायरों की गज़लों से रू-ब-रू कराता यह संकलन निश्चित ही संकलन योग्य है. उर्दू-फारसी शायरी को देवनागरी लिपि में बहुत ही सरल और सुंदर ढंग से पेश किया गया है. कुछ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिए गए हैं. इससे पाठक गज़ल की गहराई तक उतरने में कामयाब हो पाता है.
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इस संकलन में आपको काज़ी मोहम्मद शमशाद नबी (साकी फारुकी), कुंवर अख्लाक मोहम्मद खां (शहरयार), जफर इकबाल, सय्यद हसन रिज्वी (शकेब जलाली), अहमद मुश्ताक, कुंवर अत्हर अली खां (अत्हर नफीस), राजेंद्र मनचंदा बानी, अहमद फराज, जौन एलिया, मुस्तका हुसैन जैदी, मुनीर नियाजी सहित कुल 100 शायरों की चुनिंदा रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी.
‘100 शायर 100 गज़लें’ में इन चुनिंदा गज़लों का संकलन किया है बहराइच, उत्तर प्रदेश के फरहत एहसास ने. फरहतुल्लाह खां के नाम से जाने जाने वाले फरहत एहसास पेशे से लेखक हैं पत्रकार हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से तालीम हासिल करने के बाद आपने दिल्ली से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘हुजूम’ का सह-संपादन किया. ‘हुजूम’ के बाद 1987 में उर्दू दैनिक ‘क़ौमी आवाज़’ दिल्ली से जुड़े. 1998 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से जुड़े. फरहतुल्लाह खां ने ऑल इंडिया रेडियो और बी.बी.सी. उर्दू सर्विस के लिए भी अपनी सेवाएं दीं. आपकी उर्दू के साथ-साथ हिंदी, ब्रज, अवधी और अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी भाषाओं के साहित्य के साथ गहरी दिलचस्पी है. वर्तमान में रेख़्ता फाउंडेशन में संपादक के पद पर कार्यरत हैं.
पुस्तक- 100 शायर 100 गज़लें
संकलन- फरहत एहसास
प्रकाशक- रेख़्ता बुक्स
मूल्य- 199 रुपये
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