अनुपम त्रिपाठी
Book Review: पृष्ठभूमि से समझ आता है कि प्रत्यक्ष ऐसा क्यों है. जो चला आ रहा है, ठहरकर उसे देखना कई बार चुनौतीपूर्ण लगता है. बहुत लंबी यात्रा हमारे साहित्य ने की है और यह भी तय है कि अपने निरंतर बदलते स्वरूप में आगे भी उसकी यात्रा अनवरत जारी ही रहेगी. लेकिन उस चली आ रही परंपरा का अवलोकन करना एक सजग पाठक के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है. इसी तरह का एक सार्थक प्रयास प्रसिद्ध लेखिका सुजाता (Author Sujata) ने अपनी किताब ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ (Alochana Ka Stree Paksha) में किया है. उन्होंने आलोचना की चली आ रही परिपाटी में स्त्री पक्ष पर बहुत ही बारीकी से गौर किया है.
पुस्तक में ‘स्त्रीवाद की अवधारणाएं और साहित्य’, ‘स्त्री-भाषा और स्त्री-पाठ’ ‘स्त्री-भाषा और पुरुष पाठ’, ‘इतिहास के लिए भारी पड़ती है स्त्री की प्रतिभा’, ‘आधुनिक स्त्री कविता’, ‘अनामिका: भाषा से लिया है अपना ब्रह्मास्त्र’ जैसे महत्त्वपूर्ण लेख शामिल हैं.
दरअसल, पुस्तक को तीन भागों में बांटा गया है. पहले भाग (पद्धति) में स्त्रीवाद की अवधारणा, उसकी भाषा, उसके कर्तव्यों पर मुख्य रूप से लिखा गया है. दूसरे भाग (परंपरा) में साहित्येतिहास में विभिन्न दौर के रचनाकारों और उनकी रचनाओं के माध्यम से स्त्री पक्ष को समझने की कोशिश की गयी है और तीसरे भाग (पाठ) में वर्तमान हिंदी साहित्य की कुछ चर्चित कवियों यथा अनामिका, सविता सिंह और निर्मला पुतुल के हवाले से स्त्री-पक्ष पर गौर किया गया है.
इस तरह से लेखिका ने एक त्रिकोणीय समीकरण का प्रयोग करते हुए अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की है. स्त्रीवाद को समझाते हुए वे कहती हैं कि ‘स्त्रीवाद क्या है? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब तलाशे बिना ही अधिकांश लोग अपनी भ्रान्तियों को सच मानकर ऐसे चर्चा करने लगते हैं जैसे स्त्रीवाद से अधिक तिरस्कार योग्य कोई विषय नहीं हो सकता.
हिंदी साहित्य (Hindi Sahitya) की परंपरा को ध्यान में रखते हुए उसमें स्त्रियों की उपस्थिति लगभग नगण्य होने के कारणों की पड़ताल करती हुई लेखिका कहती हैं कि ‘स्त्री-रचनाकारों के पास न साहित्य की शिक्षा के मौक़े थे, न ही अपना साहित्य रचने के लिए कोई आदर्श अतीत, न ऐसे क्लासिक्स जिन्हें स्त्रियों ने रचा और जिन्होंने साहित्य के इतिहास में अमिट जगह बनाई, जिन्होंने साहित्य को नया मोड़, नई दिशा दी.’
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किताब से गुजरते हुए कई तरह के अनुभव हुए. जो सवाल उठाये गए हैं, एकदम जायज हैं. हम चाह कर भी इन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. हिंदी साहित्य में यह कुछ अज़ीब दिखाई पड़ता है कि जब भी विमर्शों की बात होती है, वे चाहे दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श या आदिवासी विमर्श; उनसे जुड़े सवालों को फौरी तौर पर दरकिनार कर दिया जाता है. सुजाता ने इस ओर इंगित करते हुए कहा है कि ‘स्त्री-प्रश्न को चटखारे का विषय बना दिया जाना, एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की बौद्धिकता को कुचलने का यही तरीक़ा है. हिन्दी की दुनिया में अभी ये प्रश्न, प्रश्न ही नहीं हैं.’
एक जगह सुजाता पूछती हैं, ‘जिन्हें स्त्रीवादियों के देह-मुक्ति के प्रश्न पर बात करने से तकलीफ़ है उनसे पूछा जाना चाहिए कि स्त्री के शोषण की कहानी उसकी देह पर नहीं लिखी गई तो कहां लिखी गई?’
किताब पढ़ते हुए मैं यह भी सोच रहा था कि कुछ भूले से भी छोड़ा है? लेकिन नहीं, पूरी तैयारी के साथ लिखी गयी किताब है. कोना-कोना झांक आयी हैं, हर तार को पकड़ कर लिखी गयी किताब है. जिन संदर्भों का प्रयोग किया गया है, उन्हें देखकर हैरत भी होती है.
पुस्तक की जो चीज़ मुझे सबसे अधिक पसंद आई, वह है अपनी हर बात के पीछे रेफरेंस की मज़बूत दीवार खड़ी करना. किताब में सुजाता जी का आक्रोश दिखाई पड़ता है, लेकिन वह बेबुनियाद नहीं है, उसकी बुनियाद बहुत ही सधकर तैयार की गयी है. मेरा अनुमान है, यह किताब आलोचना की ज़मीन में एक मजबूत स्तम्भ की तरह धंसेगी.
हिंदी की जितनी भी बोलियां हैं, सबसे बढ़कर ब्रजभाषा का साहित्य है और सबसे ज्यादा
पुस्तक में ‘स्त्री-भाषा’ जैसी महत्त्वपूर्ण विषय पर भी लिखा गया है जिसकी ओर पाठकों का ध्यान जरूर जाना चाहिए. यह किताब साहित्य में ‘स्त्री-भाषा’ की समझ को विकसित करने में काफी मददगार साबित होगी चूंकि इस विषय पर हिंदी पर कुछ गिनी-चुनी किताबें ही मौजूद हैं.
बहुत सी लेखिकाएं हैं, लिख रही हैं, अच्छा भी लिख रही हैं लेकिन रवैया उनका समझौतावादी लगता है. सवालों से बचती हैं. वे उसी भाषा में बोलती हैं जिसका प्रयोग उनका शोषण करने वाले करते हैं. सुजाता ने इस ओर भी लोगों का ध्यान खींचा है, ‘अक्सर पितृसत्ता बहुत से मर्दों और औरतों के भीतर से बोलती है तो उन्हें ख़ुद को एहसास नहीं होता कि वे कितने स्त्री-द्वेषी हैं.’
स्त्रियों को दबाया जाना आज से नहीं है, उसका लम्बा इतिहास है. यही कारण है उनकी आवाज़ें हम तक पहुंच नहीं पातीं- वाक्य यूं भी कहा जा सकता है कि हम सुनकर बहटिया देते हैं, देखकर मुंह फेरते हैं.
दरअसल इस किताब के माध्यम से लेखिका ने पाठकों से एक अपील की है कि हमें ‘समानता के अधिकार’ पर चलना होगा – ‘बराबरी की कामना से सुन्दर क्या कामना हो सकती है? इस बराबरी के लिए स्त्री का सुना जाना सम्भव करना होगा. वह अब तक सिर्फ़ देखी जाती रही है. वह दृश्य-मात्र नहीं है. जो लिख रही है, उसे पढ़ा जाए, जो कह रही है, उसे सुना जाए ध्यान से.’
यह किताब विमर्श के शोधार्थियों, स्त्री विमर्श को जानने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी.
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Tags: Books
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