‘मेरी दुनिया के ईश्वर’ अरुणाभ सौरभ का चौथा हिंदी कविता संग्रह है.
(आशुतोष नंदन / Ashutosh Nandan)
साहित्य और कला के क्षेत्र में मिथिला की मिट्टी की उर्वरता विश्व-विख्यात है. खासकर हिंदी साहित्य के संवर्धन और परिवर्धन में इस क्षेत्र के रचनाकारों की महत्ती भूमिका रही है. आदिकाल में विद्यापति से लेकर आधुनिक काल में रेणु, दिनकर अथवा नागार्जुन तक इस क्षेत्र के रचनाकारों ने अपनी विशेष पहचान बनाई है. इस परंपरा का निर्वाह करते हुए अरुणाभ सौरभ मिथिला के इसी समृद्ध नैतिक भूगोल की उर्वर साहित्यिक भूमि से उभरे एक प्रतिभा-संपन्न युवा कवि हैं. ‘मेरी दुनिया के ईश्वर’ उनका चौथा हिंदी कविता-संग्रह होने के साथ-साथ छठी प्रकाशित कृति है. कविता के साथ-साथ उनकी कलम आलोचना जैसी विधा में भी लगातार सक्रिय रही है.
अरुणाभ सौरभ का नया कविता संग्रह ‘मेरी दुनिया के ईश्वर’ प्रभाकर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह में कुछ 56 कविताएं हैं. संग्रह में कवि अपनी कविताओं के माध्यम से हँसी, खुशी, चिंता, दुःख, उदासी, अवसाद, आत्मसाक्षात्कार इत्यादि मानवीय गुणों की झीनी रेखाओं का प्रयोग करते हुए वर्तमान संसार का एक ऐसा स्कैच बनाने का प्रयास करता है जो न तो स्याह है न पूरी तरह उज्ज्वल.
अरुणाभ ने कविताओं के माध्यम से अपने स्कैच में जो रंग उभारे हैं वे अधिकांशतः मानवीय जीवन के ग्रे रंग हैं. 152 पृष्ठों वाली इस कविता-संग्रह की शुरुआत होती है ‘बारिश या पुण्यवर्षा’ कविता से जिसमें कवि ने बारिश के बूंदों की तुलना हमारे भीतर बची हुई मनुष्यता से करते हुए करते हैं-‘इसी सहारे/जीते हैं हम/इसे देखकर/जवान होते हैं.’
सरोजनी नायडू के भाई और बावर्ची के ‘खडूस दादुजी’, जिन्होंने रचा कालजयी बाल गीत ‘रेलगाड़ी’
यह लेखक की मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखने वाली पितरों के पुण्य के प्रति अटूट आस्था का उद्घोष है. वहीं संग्रह की अंतिम कविता ‘उस दिन की प्रतीक्षा में’ अरुणाभ प्रश्नवाचक मुद्रा में आकर पूछता है–‘तो साथियों/क्या कोई ऐसा दिन/हमारे हिस्से में आएगा/जिस दिन किसी को/प्रार्थना न करनी पड़े/अपने अपने वास्ते/अपने अपने ईश्वर के आगे/गिड़गिड़ाना न पड़े?’
यही प्रश्नवाचकता यह कुतूहल पैदा करती है कि क्या आज भी कवि की वह अनजान आस्था बनी है? यह सवाल केवल कवि का खुद से पूछा गया सवाल नहीं है वरन पूरी मनुष्यता से पूछा गया सवाल है. इस सवाल का उत्तर लेखक अपनी कविता के माध्यम से अत्यंत सहज भाषा शैली में देता है. कवि के लिए कविता ईश्वर से अधिक आवश्यक है ‘कविता की ज़रूरत’. कविता में कवि कहता है कि ‘हमारी दुनिया को/ईश्वर की नहीं/कविता की ज़रूरत’. ईश्वर की आवश्यकता के नकार में कवि की अनजान आस्था का खंडन प्रतिध्वनित होता है. लेखक अपनी दुनिया में वैसा ईश्वर नहीं चाहता जिससे सवाल न किए जा सकें. सवाल न पूछ पाने पर कवि खींझता हुआ कहता है–‘मुझे ख़ुद पर/भारी खीझ है… इस देश को मेरी ज़रूरत थी/और मैंने कुछ नहीं किया.’ कवि की यह आत्मस्वीकारोक्ति जहां एक तरफ उसके मानसिक उदासी व अवसाद की झीनी रेखा को प्रतिबिंबित करती है वहीं दूसरी ओर उसका यह कहना कि ‘देशभक्ति का सबूत नागरिकों से मांग रहे थे/और मैं चुप था’. उसके जागरूक नागरिक होने किन्तु कर्तव्यों के निर्वहन न कर पाने के दुःख के साथ देश की विद्रुप होती राजनीतिक व्यवस्था पर भी तीखा वार करती है.
किसी भी रचनाकार की मनःस्थिति को समझने का सबसे अच्छा और आसान रास्ता यह होता है कि उसकी रचनाओं में व्यक्त दुःखों को देखा जाए. यह देखा जाए कि कवि उन दुःखों से मुक्ति हेतु क्या करता है? किसकी कामना करता है. देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से उभरा हुआ दुःख अरुणाभ की कविताओं का केन्द्रीय पक्ष है. उसकी मुक्ति के लिए वह भक्तिकालीन कवि की तरह ईश्वर से प्रार्थना करते हुए जनता से यह उपदेश नहीं देता कि ‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए’ बल्कि वह कहता है कि ‘हमें दे दो अनर्थक कर्म/निर्भीक शक्ति से/बोलने की/स्वायत्तता सोचने की/सच्चाई लिखने की/सुनने की’. कवि जानता है कि लोकतंत्र में रचनाकारों/बुद्धिजीवियों का स्वायत्त चिंतन, निर्भीक लेखन कितना आवश्यक है. किंतु क्या जिस शक्तिशाली के खिलाफ यह सोचा या लिखा जाएगा वह उसे स्वायत्त रहने की आजादी देगा या ‘एंटोनियो ग्राम्शी’ की तरह उसे भी खतरनाक दिमाग करार कर कैदखाने में पटक देगा?
रूढ़िवादी चिंतन परंपरा में काम देने वाले मालिक या बॉस को ईश्वर की संज्ञा दी जाती रही है लेकिन हम जानते हैं कि आधुनिक समय में मालिक एवं कामगारों के संबंधों में बदलाव आए हैं. उस बुर्जुआ वर्ग के प्रति वह पुरानी आस्था समाजवादी/मार्क्सवादी सामाजिक-सिद्धांतों के आगमन के पश्चात टूटी है. अब वहां केवल व्यावसायिक संबंध है, भावुकता का कोई आवरण नहीं है. इन बदलते संबंधों के आईने में संग्रह की ‘तुलनात्मक’ कविता दर्शनीय है. कवि शोषक एवं अहंकारी बॉस का बिम्ब बनाते हुए उस ढहते संबंध एवं आस्था का शानदार चित्र प्रस्तुत करता है.
अरुणाभ की कविताओं का लोकेल भले ही बिहार का एक पिछड़ा ग्रामीण या अर्ध-शहरी क्षेत्र हो किन्तु कविताओं में उनकी चिंताएं वैश्विक है. कवि भौगोलिक या भाषिक बंधनों में बंधकर नहीं सोचता है. उसकी चिंता के केंद्र में पूरी मानवता है. गत 100 वर्षों में विश्व भर में जिस प्रकार युद्ध-संस्कृति को बढ़ावा मिला है उसे हम सब जानते हैं. एक तरफ जहां विज्ञान हमारे जीवन को अति सुगम बनाता हुआ हमें उत्तरोत्तर भौतिक प्रगति की ओर ले जा रहा है वहीं परमाणु युद्ध जैसे अभिशापित खतरे से भी हमें अवगत करा चुका है. अरुणाभ इस अभिशाप को ब-ख़ूबी समझते हैं और उस खतरे को न सिर्फ अपनी कविता में लाते हैं बल्कि उसका हल भी तलाशते हैं. वह विज्ञान से केवल युद्ध नहीं प्यार करने प्यार सीखने का आग्रह भी करते हैं-‘वही विज्ञान जो महज युद्ध करना नहीं/प्यार करना भी सिखाता है’.
अल्हड़ बीकानेरी जयंतीः लेता है धरा पे अवतार जाके सदियों में ‘अल्हड़’ सरीखा कोई सन्त मेरे राम जी
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य पर यदि निगाह डाली जाए तो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर के बाद वर्तमान समय अंध-राष्ट्रवाद के चरम उत्कर्ष का समय है. राष्ट्रवाद के बहाने विज्ञान का जैसा दुरुपयोग सत्ताएं कर रहीं हैं वह विज्ञान का निकृष्टतम उपयोग है. कवि अपनी कविता ‘विज्ञान और प्रेम’ में इस ओर इशारा करता है-‘यह राष्ट्रवाद नहीं/विज्ञान का चरम अभिशाप/एटमी युद्ध के बाद/आज जैविक युद्ध/हम अभिशप्त/इस युद्ध में/जाने को’.
अरुणाभ की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता उनकी राजनीतिक जागरूकता है. वह राजनीति के दांवपेंच को अपनी कविता में बखूबी प्रस्तुत करते हैं. किसी व्यक्ति, पार्टी या अन्य स्थितियों को बिम्बित किए बगैर वर्तमान भारतीय राजनीति का खींचा गया यह चित्र दृष्टव्य है–‘कठोरतम तप से/किसी साधक को/मिलने लगेगी सिद्धि/तो आपका स्वर्ग सिंहासन/डोल जाएगा देवराज’.
अगर पाठक को वर्तमान राजनीति की थोड़ी भी समझ होगी तो वह ‘साधक’ और ‘देवराज’ को आसानी से पहचान जाएगा. कवि इन प्रतीकों के चुनाव के लिए मिथकों का सहारा लेता है. ‘नानी की कहानी में देवराज इन्द्र’ कविता में ‘इन्द्र’ के मिथकों के सहारे वह उस सुविधा सम्पन्न राजा को कामचोर, लाचार और मोहग्रस्त पाता है; इतना ही नहीं यहां कवि की बेबाकी भी पाठकों को झकझोरती है वह राजा को चित्रित करते हुए कहते हैं–‘कि जिसके पास/सबसे विशाल/सुंदरतम दुनिया/कठोरतम अस्त्र हो/वह महानतम कायर होता है’. ऐसे समय में जब कि विश्व के अधिकांशतः देशों में लोकतंत्र है, पाठक आसानी से लोकतंत्र में रहने वाले उस राजा का पता लगा सकता है.
जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कवि अगर कुछ चाहता है तो वह है बोलने और लिखने की स्वतंत्रता. लोकतंत्र और राजतंत्र में यही मूलभूत अंतर होता है कि लोकतंत्र में कानून का, संविधान का राज होता है. यही कानून या संविधान नागरिकों को बोलने-लिखने की स्वतंत्रता प्रदान करता है. यही स्वतंत्रता लोगों की आस्था को लोकतंत्र में दृढ़ करती है. अगर लोकतंत्र में भी बोलने-लिखने वालों को सत्ता अदृश्य तरीके से प्रतिबंधित कर दबाना चाहे, कुचलना चाहे या राजतन्त्र के राज्याश्रित कवियों की तरह चरण/भाट बनाना चाहे तो आत्माभिमानी कवि या नागरिक की आस्था स्वतः वैसे शासन तंत्र से टूट जाएगी. फिर वह हर वैसा काम करने को तैयार होता है जिससे उसका जीवन-यापन हो सके किन्तु वह अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाना पसंद नहीं करता. लोकतंत्र के ऐसे बिगड़े स्वरूप को कवि ‘चारण काल’ की संज्ञा देता है.
हिंदी साहित्य के इतिहास का अध्ययन करने वाले पाठक इस तथ्य से भली-भांती परिचित हैं कि विद्वानों ने हिंदी साहित्य के आदिकाल को ‘चारण काल’ की संज्ञा दी है. ‘चारण काल में कविता’ शीर्षक कविता में अरुणाभ लोकतंत्र के उल्टे विकास क्रम की ओर इशारा करते हुए यह ऐलान करते हैं कि-‘चारण न बनूंगा तुम्हरी’. कवि की इस पूरी बेचैनी को हम तर्क-आश्रित अनास्था कह सकते हैं. यह लोकतंत्र के विद्रुप होते रूप के प्रति न सिर्फ कवि के बल्कि हर चिंतनशील नागरिक के मन में उपज रही अनास्था है.
‘मृत्यु’ और ‘रात’ कवि का प्रिय बिम्ब है. वह मन के कई भावों को एक साथ सामने लाता है. रात के सहारे कवि अपने मन के संशयों को भी शब्द देता है. वह कहता है–‘रात सिर्फ/मेरी कमजोरी ही नहीं/ मेरी मजबूती का नाम है/मेरे देवता का नहीं/दुश्मनों का/बसेरा भी/है रात’. इसी प्रकार ‘काली’ कविता में भी कवि की चिंता दर्शनीय है. वह मृत्यु की रात को स्वीकार करता है उससे पलायन नहीं करता है. वह अंतिम इच्छा के रूप में मृत्युंजय का वरदान नहीं मांगता वरन उसकी चिंता–‘भूख से काला पड़कर/सूखकर पपड़ी पड़ चुके होंठों वाले सही चेहरे’ की पहचान एवं उसके लिए अन्न है. मृत्यु का यही सहज स्वीकार कवि की तार्किक अनास्था है। ‘सलाहियत’ कविता का केन्द्रीय कथ्य भी मृत्यु का सर्वनाशी भय है। कवि रवीन्द्रनाथ की तरह मृत्यु को महिमामंडित नहीं करता है. कहीं भी मृत्यु के भय पर अभय प्राप्त करने की मध्यकालीन कोशिश नहीं करता है.
अरुणाभ की कविताएं अनुभव की भट्टी में तपकर ढलती हैं. ‘मेरी दुनिया के ईश्वर’ कविता में कवि का यह कथन–‘है एक ईश्वर/जिनकी उपस्थिति चहुंओर/बताई गई है’-स्पष्ट कर देता है कि उसका यह ज्ञान अपना ज्ञान नहीं है, यह उसे अनुभव से नहीं मिला है बल्कि सिखाया हुआ है, बताया हुआ है. अतः ऐसा लगता है कि ईश्वर की उपस्थिति को वह अनुभव नहीं कर पाता है. वह परमात्मा को समझने की हर संभव कोशिश करता है जो उसकी दुनिया का हर सामान्य नागरिक कर सकता है. वह कर्मकांड, पूजा, अर्चना सबको व्यर्थ पाता है. वह कहता कि शायद ईश्वर पलायन कर गया है और कवि ईश्वर के पलायन का कारण लगभग वही बताता है जो कभी ‘फ्रेंडरिक नीत्शे’ ने बताया था. कवि जब यह कहता है कि–‘मेरी दुनिया के ईश्वर/अब वहां से निकलकर/राजनीति पढ़कर/हमें पढ़ाने निकल पड़े हैं/धर्म और राजनीति का सुंदर पाठ’ तो पाठक को अनायास ही कार्ल मार्क्स का ‘धर्म को अफ़ीम’ बताने वाला वह कालजयी कथन याद आ जाता है. कवि यह साबित करता है कि अफ़ीम युक्त राजनीति का पाठ सिर्फ इसलिए पढ़ाया जाता है ताकि नागरिक को उसके मूल प्रश्नों से भटकाया जा सके. वर्तमान राजनीति की यही सूक्ष्म समझ कवि की बैचेनी का कारण बनती है. वह जन सामान्य की तरह होना चाहता है किन्तु समाज में व्याप्त यह सत्ता-प्रसूत विसंगति उसकी आशा का लगातार खंडन करती है. यह बेचैनी ‘अनात्म’ कविता में भी देखी जा सकती है.
कवि की आस्था विवेकशीलता या तर्क और विज्ञान में विश्वास, मानवतावाद या मनुष्य के प्रति प्रेम एवं मानव की प्रगति करने की क्षमता में है. इसलिए जब भी कवि की इस आस्था को पहुंचती है वह अनास्था की ओर एक तार्किक कदम बढ़ता चलता है.
कवि के जीवन के कुछ सुंदर साल भागलपुर शहर में बीते थे. वह अपने प्यारे ‘शहर भागलपुर के नाम एक कविता’ लिखते हैं, जो शहर कवि के संवेदनशील हृदय के इतने करीब हो उस पर राजनीति प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों के घाव उनकी आस्था को खंडित नहीं तो और क्या करते? कविता की एक-एक पंक्ति उस घटना से उपजी अनास्था को, जो दो धर्मों के अनुयायियों के कारण हुई थी, बड़े ही मार्मिक स्वर में व्यक्त करती है. किसी समाज में उपजी ऐसी जुगुप्सा को कवि ‘शहर नहीं किसी भागी लड़की का पुराना पता’ कहकर संबोधित करता है.
तमाम आस्था तथा अनास्था के द्वन्दों के बीच कवि के हृदय की आस्था वहीं है जहां संसार के हर प्राणी की होनी चाहिए. कवि भी ‘एक प्यारी लड़की के हाथों में/रख देता गुलमोहर के लाल फूल’ कहकर अपनी आकांक्षा को शब्द देता है. यह कवि के द्वारा इस बात का उद्घोष है कि तमाम आस्था एवं अनास्था के क्रम में अगर कोई सत्ता है जो मानवता के सबसे निकट है एवं जिसकी मानवता को सर्वाधिक आवश्यकता है तो वह केवल और केवल प्रेम की सत्ता है.
पुस्तक: मेरी दुनिया के ईश्वर (कविता संग्रह)
लेखक: अरुणाभ सौरभ
प्रकाशक: प्रभाकर प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ: 152
मूल्य: 195 रुपये
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