उर्दू के मशहूर लेखक शाहिद साहब देहवी की नज़र से दिल्ली को देखना एक पूरी तारीख के गवाह होने के बराबर है.
रेख़्ता बुक्स और राजकमल प्रकाशन के सहयोग से शाहिद अहमद देहलवी की हास्य रचनाओं का संग्रह ‘दिल्ली के चटखारे’ नाम से प्रकाशित हुआ है. इन कहानियों का संकलन और संपादन शुऐब शाहिद ने किया है. इसका आवरण तैयार किया है विक्रम नायक ने. इस संग्रह में कुल 7 रचनाएं शामिल हैं. सभी रचनाएं दिल्ली खासकर 100 साल पहले की दिल्ली की झलक प्रस्तुत करती हैं. प्रस्तुत है इनमें से एक रचना ‘चटोरपन’-
दिल्ली वाले बड़े चटोरे मशहूर थे. इन्हें जबान के चटखारों ने मार रखा था. कुछ मर्दों ही पर मौकूफ (केंद्रित) नहीं, औरतें भी दिनभर चरती रहती थीं. और कुछ नहीं तो पान की जुगाली ही होती रहती थीं. बंगला पान तो गरीब गुर्बा भी नहीं खाते थे. जब देसी पान इफरात से मिलता तो मोटे पत्ते कौन चबाए? दो-ढाई आने में ढोली मिलती थी. ये बड़े-बड़े पान और ऐसे करारे कि पान अगर हाथ से छूट कर फ़र्श पर गिरे तो इसके चार टुकड़े हो जाएं.
सन् 1946 तक छालिया पुरानी तोल की रुपए की चार सेर आती थी. कत्था कलकत्ता का दो रुपए सेर. चूने की कुलहियां पान वालों के पास रखी रहती थीं. चूने के दाम नहीं लिए जाते थे. पान खरीदिये और चूना मुफ़्त लीजिए. पान वाले गली-गली फिरकर भी पान बेचा करते थे. एक पैसे की छह, एक पैसे की आठ पिटारी हर घर में होती थी. फ़ौरी खातिर पान ही से की जाती थी. पान की थाली में अमूमन कोई शेर कुन्दा होता था. मसलन,
दस्त-ए-नाजुक बढ़ाइये साहब
पान हाजिर है, खाइये साहब
या
वर्ग सब्ज अस्त तोहफ़ा-ए-दरवेश
चे कुनद? वे नवा हमीं दारद
इतने अचानक आ जाने वाला पान खत्म करे, बाजार से मिठाई, कुछ सलोना और मौसम का मेवा आ जाता. फिर मेहमान की खूब खातिर तवाजो की जाती. दिल्ली वाले मुतवाजो भी बहुत थे. कर्ज करें दाम करें, मेहमान पर अपना भ्रम खुलने नहीं देते थे. दिल्ली के गरीब कमाते भी खूब थे मगर अपनी आदतों के पीछे मुहल्ले के बनिए के कर्जदार अक्सर रहते थे. गिरवी गांठा भी यही बनिया करता था. असल चीज इसके पास रखने के बाद फिर हाथ नहीं आती थी. सूद-दर-सूद में बराबर हो जाती थी. ये घूंस अक्सर अमीरों के घरों में भी लगी हुई थी. मुसलमानों की बड़ी-बड़ी हवेलियां बनियों ने चुपचुपाते हड़प कर ली थीं. मगर ख़ुशबाशों और बेफिक्रों को इसकी भी परवाह नहीं थी. हमने अक्सर लाख के घर खाक होते देखे. लाल कुएं पर एक मुसलमान रईस का बेमिस्ल कुतुब-खाना बरसों कौड़ियों के मोल बिकता रहा.
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जुज-रस (कंजूस) और कंजूस आदमी को दिल्ली वाले मनहूस समझते थे और उसकी शक्ल तक देखने के रवादार न थे. जो कभी सुबह ही सुबह किसी ऐसे की शक्ल इत्तेफाकन दिखाई दे जाती तो कहते, “ख़ुदा खैर करे, देखिए आज क्या उफ़्ताद पड़ती है.” अक्सर होता भी यही था कि इनके वहम की वजह से कोई न कोई परेशानी पेश आ जाती.
कहते हैं कि बादशाह के जमाने में एक ऐसा ही मनहूस शहर में था जिसके बारे में मशहूर था कि अगर उसकी सूरत देख ली जाए तो दिन भर रोटी नहीं मिलती. शुदा -शुदा (धीरे-धीरे) बादशाह तक इसकी शिकायतें पहुंची तो बादशाह ने कहा, “नहीं जी, कहीं ऐसा भी हो सकता है?” शिकायत करने वाले ने कहा, “हुजूर होता है हाथ कंगन को आरसी क्या, तज्रबा करके देखिए.”
चुनांचे एक दिन सुबह को बादशाह बरामद हुए तो लगाने वालों ने उस शख़्स को बादशाह की नजर से गुजार दिया. अल्लाह की शान उस दिन दो मुकदमे आकर ऐसे अड़े कि दिन का तीसरा पहर हो गया और ख़ासा तनावुल फरमाने का वक्त निकल गया. बादशाह सलामत को जब जताया गया तो उन्होंने फरमाया, “अमां हां, ये शख्स तो वाकई में मनहूस है. पेश करो इसे हमारे हुज़ूर में.” हुक्म की देर थी इस गरीब को असा-बरदारों ने पकड़ा और कुशा-कुशा (खींच-खींच कर) ले आए.
बादशाह ने फ़रमाया, “अमां तुम बड़े मनहूस हो, जो तुम्हें देख लेता है उसे रोटी नहीं मिलती, लिहाजा तुम्हें मौत की सजा दी जाती है.” आदमी था हाजिर जवाब. बोला, “हुजूर वाला मैं तो इतना मनहूस हूं कि मुझे जो देख लेता है उसे रोटी नहीं मिलती. मगर मैंने आज हुज़ूर के दीदार किए तो अपनी जान ही से चला.” बादशाह हंस पड़े और उसकी जान बख़्शी फरमाई.
दिल्ली वालों की एक कहावत थी कि “एक दाढ़ चले, सत्तर बला टले.” खाने का थक जाना ही रोग की जड़ है.
दिल्ली वाले घर में भी अच्छा खाते थे और बाहर भी. गरीबों में तो सभी घरवालियां खुद खाना पकाती थीं. औसत दर्जे के घरों में भी सालन की एक-दो हण्डियां घरवाली बीबी खुद पकाती थीं. अलबत्ता रोटी डालने के लिए मामा रखी जाती थी. बगैर गोश्त के गरीबों के हलक से भी रोटी नहीं उतरती थी और गोश्त ही कौन सा महंगा था? छोटा गोश्त चार आने सेर और बड़ा छह पैसे सेर. जुमा को गोश्त न होने के बाइस दाल पकती तो उसमें भी दो-दो अंगुल घी खड़ा होता. खालिस घी रुपए सेर था. उड़द की दाल और खिचड़ी पर घी का डला रख दिया जाता, सारी तरकारी को हिन्दुओं का खाना बताया जाता.
उस जमाने में दिल्ली में होटलों और चाय-खानों का रिवाज बिल्कुल नहीं था. भटियार खाने अलबत्ता होते थे जिनमें पाये और ओझड़ी पकाई जाती थी. दो पैसे में प्याला भर के ढब- ढब शोरबा मिल जाता था. दो पैसे की दो खमीरी रोटियां लेकर उसमें चूरी जातीं और गरीब मजदूर चार पैसे में अपना पेट भर कर काम पर सिधार जाता. मगर दिल्ली के दस्तकार या मेहनतकश इन चीजों को पसन्द नहीं करते थे. जाटों और रांगड़ों का ये मन भाता खाजा था. दिल्ली के गरीब भी कुछ कम नकचढ़े नहीं थे. पूरियों, कचौरियों, मटरियों, और हलवे माण्डों का नाश्ता करते थे. कहते थे कि, “मियां जब हमारे ही धड़ में कुछ नहीं पड़ेगा तो फिर कमाएगा कौन?”
शाम होते ही चौक की बहार शुरू हो जाती. जामा मस्जिद के मशरिकी रूख जो सीढ़ियां हैं उन पर और उनके पहलुओं में हर किस्म का सौदा बिकता था. यहीं शाम को चटोरपन भी होता था. सस्ते समय थे, एक पैसे में चार सौदे आते थे. दस्तकार शाम को ढांगियां लेकर आते. धेली पाव ला घर में देते, बाकी अपनी अण्टी में लगाते. कारखाने या काम पर से आने के बाद मैले कपड़े उतारते और नहा-धोकर उजले कपड़े पहनते और छैला बनकर घर से निकलते.
मियां शब्बू की सज-धज तो जरा देखिए! सर पर चुनी हुई दोपल्ली, बालों में चम्बेली का तेल पड़ा हुआ, कान में खस का फोया, बीच की मांग निकली हुई, चिकन का कुर्ता, उसके नीचे गुलाबी बनियान, सीधे बाज़ू पर सुर्ख तावीज़ बंधा हुआ कुर्ते में से झलक रहा है. चुस्त पाजामा, लाहौर का मुल्लाग इज़ारबन्द, ढंका-छिपा होने पर भी अपनी बहार दिखा रहा है.
पांव में अंगूरी बेल की सलीम शाही, ठुमक चाल, अपने डण्ड कब्जों को देखते चले आ रहे हैं. इन्हें देखकर भला कौन कह सकता है कि दिनभर लंगोट कसे हथौड़ा चलाते हैं तो शाम को दो रुपए पाते हैं. मगर निय्यतें अच्छी थीं इसलिए पैसे में भी बरकत थी. शब-ए-बारात पर पैदा हुए थे, यूं नाम शब-ए-बाराती रखा गया था जो मुखफ़्फफ (कम होकर) होकर शब्बू रह गया.
हां, तो मियां शब्बू सलाम झुकाते और सलाम लेते. मियां वालैकुम सलाम. मियां जीते रहिए, मियां सलामत रहिए, कहते सूई वालान से चितली क़ब्र और मटिया महल के बाजार में से निकलते हुए चौक पर पहुंच गए. यहां इनके दो-चार यार मिल गए. इन्हें देखकर इनके चेहरे पर शफक-सी फैल गई बोले, “अबे खूब मिले, मैं तो दिल में कै ही रिया था कि अपना कोई यार मिल जाए तो मज़ा आ जाए.” यारों की टोली हंसती-बोलती आगे बढ़ी तो सामने मियां सुब्हाना कीमे की गोलियां बना बना कर कढ़ाव में ऊपर के रुख से डालते जाते हैं। जब आठ-दस इकट्ठी हो जाती हैं तो एक डंडी से इन्हें आंटते हुए तेल में खिसका देते हैं. यारों ने मियां सुब्हाना साहब सलामत की.
मियां शब्बू ने कहा, “उस्ताद क्या मौके हो रिये हैं?” सुब्हाना बोले, “मियां आओ जी करखन्दार. आज तो कई दिना पीछू तुमने सूरत दिखाई. खैर तो है.” शब्बू बोले, “करखन्दार ने नावां नईं दिया था वरना अब तोड़ी तो तुम्हारे हां के कई फेरे हो जाते. अच्छा लाओ चार दोने तो बना दो.”
“गोलियाँ ही लोगे या कुछ और भी रख दूं?”
“अमां तुम देने पर आओगे तो भला क्या रहने दोगे.”
इस ज़िला जुगत के बाद मियां सुब्हाना ने ढाक के हरे पत्तों के दोने बना-बना कर देने शुरू किए. क़ीमे की गोलियां, मछली के कबाब, लौंग चिड़े, तई के कबाब, पानी की फुल्कियां, उन पर चटनी का छींटा मारा और बोले, “आज बड़ा तोफ़ा माल है, मजा आ जाएगा.” और वाकई में मजा आ गया. आंख और नाक दोनों से पानी सावन-भादों की तरह बहने लगा. शब्बू सी-सी करते हुए बोले, “अमां उस्ताद, आज तो तुमने आग लगा दी. देखते हो क्या हाल हो रिया है?” सुब्हाना ने कहा, “करखन्दार ये नज्ले का पानी है नज्ले का, इसका निकल जाना ही अच्छा, मियां सौ बीमारियों की जड़ है नज्ला.” इतने में सक़्का कटोरा बजाता हुआ आ गया, “मियां आब-ए-हयात पिलाऊं? साबिर साहब के कुएं का है.” सब ने कहा, “भाई अच्छे वखत आ गए, लाओ.” बर्फ जैसा ठण्डा पानी पीतल के मोटे-मोटे कटोरों में डालकर सब को दिया. सब ने डग-डगा कर पिया तो मुंह की आग कुछ बुझी. पैसे दो पैसे सक़्के को देकर आगे बढ़े तो खीर वाला दिखाई दे गया.
इन बड़े मियां की खीर भी सारे शहर में मशहूर है. भई वाह! इनकी तो हर चीज सफेद है! बड़े मियां के बाल, भंवे, पलकें, दाढ़ी, खीर, लगन पोश, सब सफ़द बुर्राक. एक-एक दो-दो प्याले सबने खाए. जो सौंधपन और दाग़ का मजा इनकी खीर में आता है किसी और के हां नहीं आता.
आगे बढ़े तो पहलवान को देखा कि सिंघाड़े के कोने पर एक मोण्ढे पर खुद बैठे हुए हैं और एक छोटे उल्टे मोण्ढे पर एक बड़ा सा हण्डा धरा हुआ है. हण्डे पर लाल खारवा पानी में तर-बतर पड़ा हुआ है और पहलवान आवाज लगा रहे हैं, “आने वाला दो-दो पैसे.”
बहुत बार असफल हो जाना ही बहुत बड़ी सफलता को जन्म दे देता है- लीलाधर जगूड़ी
यारों की टोली इनके पास पहुंची. “क्यों पलवान, क्या सारे गाहकों का मोल दो-दो पैसे लगा दिया है?” पहलवान बोले, “मियां मेरे, मैं तो अपनी कुल्फियों की आवाज लगा रिया हूं, तुम्हारे तईं कुछ नहीं कै रिया.” शब्बू ने कहा, “अमां हम समझे तुमने हमारी सभी की औकात टके की समझ ली.” पहलवान बोले, “जी भला मैं ऐसी गुस्ताख़ी आपकी शान में कर सकता हूं? आओ बैठो, मोण्ढा लो आज मैं तुम्हें पिस्ते की खिलाऊंगा.”
ये कहकर पहलवान ने हण्डे में हाथ डाला और टटोल कर एक बड़ी-सी मिट्टी की कुल्फी निकाली, चक्कू से इसके मुंह पर आटा हटाया और ढकना अलग करके बर्फ में एक चमचा खड़ा कर दिया और बोले, “लो तुम ये अख़ूरा लो.” चारों को उन्होंने अखरे खोल-खोल कर थमा दिए. बोले, “निरे पिस्ते हैं दूध में घुटे हुए.”
बहुत उम्दा बर्फ थीं, सच-मुच होंठ चाटते रह गए सब के सब. चलतियों को जब दाम पूछे तो एक रुपया! शब्बू बोले, “आका ये क्या? तुम तो दो-दो पैसे की आवाज लगा रिये थे?” पहलवान ने कहा, “मियां मेरे, दो पैसे वाली भी है मेरे कने, शरबत की, भला वो तुम्हारे लाहक है? रईसों के खाने की यही पिस्ते की होती है. सारे शहर में हो आओ, जो ऐसी कहीं मिल जाए तो अपने पैसे ले जाना.” शब्बू और उनके यार भला अपने आप को गरीब कैसे तसव्वुर कर लेते? बोले, “पहलवान सच कहते हो तुम जैसा मिजाज़-दान और हम जैसा क़द्र-दान भी कम मिलेगा, लो थामो ये रुपया.” छनकता हुआ रुपया पहलवान की गोद में आ पड़ा.
शब्बू ने आगे बढ़कर कहा, “भई अब मुंह सलोना कर नाचिये.” एक साथी ने कहा, “चिड़िया वाले के हां चलो.” दूसरा बोला, “अमां कल ही तो मैंने विस के हां के तिक्के खाए थे. आज कहीं और चलो.” तीसरे ने कहा, “अच्छा तो चचा के हां चलो.” ये वही चचा हैं जिनका जिक्र ख़ैर हम पहले भी कर चुके हैं. चलिए इन करखन्दारों के साथ भी चल कर देखें इनपर क्या गुजरती है.
चचा कबाबी पाये वालों के रूख जामा मस्जिद की सीढ़ियों के पहलू में अकेले बैठते थे. पुराने ज़माने के आदमी थे, बड़े बदनुमा दाग, मुंहफट, यार लोगों को इन्हें छेड़कर गालियां खाने में बड़ा मज़ा आता था. यारों की चौकड़ी ने उधर का रूख किया. शाम का झुटपुटा हो चुका था. चचा के ठिये पर दोशाखा जल रहा था. चचा सीखें भर-भर कर रखते जा रहे थे और इनका लड़का बिन्दू पंखा झल रहा था. पांच-सात गाहक खड़े तक रहे थे और चचा को टर्वास लगी हुई थी. मियां शब्बू को शरारत सूझी, आगे बढ़कर रुपया झनकाकर चचा की तरफ उछाला, “बड़े मियां एक रुपए के कबाब दे दो, जल्दी से.”
चचा ने इन्हें सर से पांव तक देखा, रुपया उठाया और उसी तरह सड़क पर उछाल दिया. फिर बगैर उनकी तरफ देखे बोले, “मियां भाई, बन्ने, तुम्हें जल्दी है तो कहीं और से लो. मैं तो लम्बर से दूंगा. पहले इन मियां की दोनी आई हुई है, इन्हें न दूं तुम्हें दे दूं? कल भी तुम सरी के एक हरामी आए थे, मैंने वुन से कहा, ‘देखो मियां वुधर मेरा भाई एवज़ बैठता है, वुस से ले लो. सीख भी भारी भरता है, फ़ायदे में रहोगे. बलकन कोई और चीज खा लो बन्ने. ये आग का काम है, गरम चीज़ है तुम्हें नुक्सान करेगी.’ कोई बाहर वाले थे वुन की समझ में आ गई, रुपया उठाकर चल दिए.” शब्बू बोले, “मगर चचा हम तो मरियम तो टलीम नहीं तुम ही से खा के जाएंगे.”
“ऐ मेरे मियां, मैं कब कहता हूं कि जाओ? मगर जरा छुरी तले दम तो लो, तुम तो हवा के घोड़े पर सवार हो और मैं ज़ल्दी का काम करता नहीं, इन गाहकों को पहले भुगता दूं. अबे लमडे कालीन बिछा दे इनके लिए. चैन से बैठो, हमेशा के आने वाले हो फिर भी ऐसी नेदानी की बात करते हो. चलो बैठो.”
लमडे ने छुपे हुए टाट का टुकड़ा चचा के ठिये के पीछे बिछा दिया. टाट मैला और गन्दा था, चारों उसपर उकूड़ू हो बैठे, कुछ देर बाद चचा ने पलट कर उनकी तरफ देखा बोले, “मियां भाइयों, टिक कर बैठो अशराफों की तर यूं-यूं उठाव चूल्हा कब तक बैठोगे? आग लेने आए हो? हां बोलो क्या-क्या दूं?” “चचा तुम तो जानते ही हो, चार आदमियों के लिए बना दो अपना नुस्खा.” “बस तो चार सीखें, चार भेजे और चार घी किए देता हूं. चल बे लमडे दो पैसे की बर्फ़ ले आ लपक के और ला कर बाल्टी में पानी बना दे. अबे आ गया? साले अभी यहीं ऐंड रिया है. अबे तीतरी हो जा.” और बिन्दी सर पर पांव रखकर भागा.
चचा के बाप दादा सब इसी जगह बैठते थे. इनके कबाब बादशाह के दस्तरखान पर जाया करते थे. इन्हीं का नुस्खा सीना-ब-सीना चचा को पहुंचा था. क़ीमे में कुछ इस हिसाब से मसाले मिलाते थे कि जो बात इनके कबाबों में होती थी, दिल्ली के किसी और कबाबी के हां नहीं होती थी. चचा ने नुस्खे में ये और इजाफा किया कि जो बैठ कर यहीं खाना चाहें उनके लिए भेजे और घी का इन्तज़ाम भी कर लिया. भेजा बकरी का होता था. सीखें जब सिंक जाती थीं तो उन्हें गौरी में उतार कर उनके डोरे निकाल देते. फिर एक बादिये में चार कटोरियां घी की डालते. जब प्याज सुर्ख हो जाती तो चारों सीखें और चारों भेजे उसमें डालकर घोंट देते. चंगीर में खमीरी रोटियां रख कर कबाबों की गौरी उन्होंने मियां शब्बू को थमा दीं. फिर एक छोटी सी गौरी में प्याज़ का लच्छा, हरी मिर्चे, पुदीना, केरी का लच्छा, अदरक की हवाइयां रख दीं. एक तरफ नीबू और गरम मसाला रख दिया और बोले, “मियां याद करोगे चचा को, हम तो चलनहारों में हैं. एक दिना सुन लोगे कि चचा लद गए. फिर तुम्हारे तईं मालूम होगी क़दर चचा की.”
शब्बू बोले, “चचा ऐसी दिल फटने की बातें मत करा करो.”
चचा ने कहा, “नहीं मियां मैं सच कहता हूं बहुत गई थोड़ी रही. अब तो मेरे मियां चपली कवाब का ज़माना है. कदी नाम भी सुना था उसका? दिल्ली वाले अब गोले के कबाब नहीं जूतियां खाएंगे जूतियां.”
इसके बाद चचा का नारियल चटखा और मुग़ल्लजात का एक दरिया इनके मुंह से रवां हो गया. मियां शब्बू और उनके साथियों ने आपस में इशारे किए और चुपके से वहां से खिसक आए.
शाहिद अहमद देहलवी
उर्दू के मशहूर लेखक शाहिद अहमद देहलवी का जन्म 22 मई, 1906 को दिल्ली में हुआ था. उनके पिता मौलवी बशीरुद्दीन हैदराबाद राज्य में कार्यरत थे. इसलिए शाहिद अहमद की प्राथमिक शिक्षा वहीं हुई लेकिन बाद में वे अलीगढ़ और फिर दिल्ली चले आए. अरबी स्कूल से उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की, फिर लाहौर चले गए. उसके बाद उन्होंने स्टीफ़न कॉलेज से इंग्लिश ऑनर्स किया, लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी से फ़ारसी में एम. ए. किया. संगीत में भी उनकी ख़ासी दिलचस्पी थी. 1930 में उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘साक़ी’ की शुरुआत की जो बहुत लोकप्रिय हुई. इसी नाम का एक बुक डिपो भी खोला.
शाहिद अहमद देहलवी बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए और कराची से अपनी पत्रिका फिर से शुरू की. शाहिद अहमद देहलवी ने पचास से अधिक किताबें लिखी हैं. इनमें ‘देहली की बिप्ता’, ‘गंजीना-ए-गुहर’, और ‘फ़ॉस्ट’ अहम हैं. 27 मई, 1967 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई.
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