राजेन्द्र यादव ने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द द्वारा सन् 1930 में स्थापित साहित्यिक पत्रिका 'हंस' का पुनर्प्रकाशन किया था.
-क्षमा शर्मा
Rajendra Yadav Sansmaran: राजेंद्र यादव जी वर्षों तक मेरे पड़ोसी रहे. मैं हिन्दुस्तान टाइम्स (Hindustan Times) अपार्टमेंट्स के सत्रह ब्लाक में रहती हूं, वह अठारह में रहते थे. इसका किस्सा भी दिलचस्प है. मयूर विहार के डीडीए फ्लैटस (DDA Flats) में वह केदारनाथ सिंह (Kedarnath Singh) के मकान में रहते थे. केदार जी उस मकान को बेचना चाहते थे. वह यादव जी से बार-बार उसे खाली करने को कहते मगर यादव जी थे कि टालते जाते.
एक शाम, शायद इतवार का दिन था, क्योंकि इस समय बाकी दिन मैं दफ्तर में होती थी. तो दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने केदार जी खड़े थे. उनके कंधे पर नीले रंग का एक थैला लटका था. वह आए और सुधीश जी (Sudhish Pachauri) को अपनी परेशानी बताने लगे. मैं भी सुन रही थी. इससे पहले मुझे इस बारे में कुछ मालूम नहीं था. कुछ देर बाद सुधीश जी और केदार जी चले गए. जब सुधीश जी वापस आए तो बोले कि यादव जी का कहना है कि तब उस मकान से जाएंगे, जब पहले उनके लिए मकान का बंदोबस्त कर दिया जाए.
उन दिनों हिन्दुस्तान टाइम्स सोसाइटी नई-नई ही बसी थी. बहुत से फ्लैटस खाली भी थे. मैंने सुधीश जी से कहा कि कोशिश करती हूं. खैर, अगले दिन दफ्तर में बात की और शाम तक फ्लैट की चाबी यादव जी के पास पहुंच गई.
अकसर आते-जाते दिखते, बातें करते
मैं इतने सालों में उनके घर मुश्किल से दो-तीन बार ही गई. कारण था, उनके घर में होने वाली दारू पार्टियां. जो लोग पीते हैं, वह उनका निजी मामला है. लेकिन कई बार लोग पिए हुए का बहाना करके महिलाओं के साथ बहुत बुरा व्यवहार करते हैं, और नशे में थे, कहकर बच जाते हैं. इसलिए अकसर मैं उन लोगों से दूरी बनाकर रखती हूं, जिनकी सुबह शाम-दारू के वगैर नहीं होती. दारू इन दिनों इतनी चलन में है कि बहुतों को मैं पिछड़े विचारों की भी लग सकती हूं, खैर.
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राजेन्द्र यादव जी (Writer Rajendra Yadav) के बारे में सोचती हूं तो सबसे अधिक मुझे उनके फोन याद आते हैं. अकसर मैं जल्दी उठ जाती हूं. हम दोनों सुबह की चाय देर तक पीते हैं. तभी दुनियाभर की बातें होती हैं. तब लैंड लाइन का जमाना था. ऐसे में बिल्कुल सवेरे-सवेरे यादव जी का फोन आता. उन्हीं दिनों कमल हासन की चाची चार सौ बीस फिल्म आई थी.
मैं फोन उठाती तो कहते– ‘चाची चार सौ बीस! ये बताओ कि ये जो महानीच तुम्हारी बगल में बैठा है, एक मोटा डंडा उठाकर इसे सूंत क्यों नहीं देतीं. साला बहुत घमंड में रहता है.‘
मैं जोर-जोर से हंसती तो कहते–’हंसने की बात नहीं है, ये जो रावण है न, जिस पर तुम बहुत प्यार बरसाती हो, इसके दस नहीं, सौ सिर हैं. एक–एक करके काटती जाओ और मुझे सौंपती जाओ.’
मैं हंसते-हंसते पूछती-क्यों, ‘आपको क्यों सौंपूं.’
‘अरे भाई तुम सती-सावित्री नारी हो. क्या पता कटे हुए सिर में भी जान फूंक दो. इसलिए मैं एक–एक सिर को गंदे नाले में फेंकता जाऊंगा, तो साला एक न एक दिन खेत रहेगा. इस हरामखोर, पापी को तुम ही झेल सकती हो. तुम्हारी हिम्मत की दाद देनी पड़ती है. जी करता है तुम्हार पांव छू लूं.’
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ऐसा हंसी–मजाक बहुत देर तक चलता. सुधीश जी उन्हें ‘कंस मामा’ कहते थे और मैं ‘अंकल सैम’.
कई बार वह फोन करते- ‘यार, जरा मिर्च का अचार देकर जाना’. कभी कहते- ‘मेरे लिए कांजी बना दो’. अगर मैं घर में होती तो फौरन कहती कि किशन को भेज दीजिए.
एक बार ऐसे ही किसी काम से मैं उनके यहां गई तो देखते ही बोले- ‘यार, तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो. ये खड़ूस तुम्हारे पल्ले कहां से पड़ गईं.’ उन दिनों यादव जी ‘हंस’ (Hans Magazine) के पन्नों को रात-दिन स्त्री विमर्श से रंग रहे थे. मेरे ऊपर भी फेमिनिज्म का भूत काफी सवार था. बस उनके खूबसूरत कहने की देर थी कि मुझे गुस्सा आ गया. बोली– ‘यही आपका स्त्री विमर्श है कि औरतों को उनकी सुंदरता से नापते हैं, उनके दिमाग से नहीं.’ और फौरन तेहा दिखाते उठकर चली आई. वह पुकारते ही रह गए.
राजेंन्द्र यादव जी (Author Rajendra Yadav) के बारे में ये तो कुछ ही एपिसोड हैं. ऐसी न जाने कितनी बातें हैं. उनकी जिंदादिली, उनका अहंकार रहित व्यवहार, सेंस आफ ह्यूमर उन जैसे बड़े लेखक की खासियत थी जो बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है. उनके जन्मदिन पर मेरा प्रणाम पहुंचे.
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