लक्ष्मी शंकर बाजपेयी प्रसिद्ध कवि हैं, गज़लकार और प्रखर वक्ता हैं.
हैं रहनुमा तो फर्ज वो अपने निभाएं भी
दें जन्नतों के ख़्वाब, तो कुछ कर दिखाएं भी।
रस्मन तो ख़ूब घर पे बुलाते हैं मुझको आप
घर का पता है क्या ये किसी दिन बताएं भी।
क्या ख़ूब रहनुमाओं ने पाया है ये हुनर
ख़ुद ही लगाएं आग औ ख़ुद ही बुझाएं भी।
कुछ ऐसे मेहरबां भी जिंदगी में हैं मेरी
अपना भी कहें, दिल को मेरे वो दुखाएं भी।
हर रोज़ नई ख़्वाहिशें ऐ ज़िंदगी न रख
दो चार हों तो नाज़ तेरे हम उठाएं भी।
गर ज़ुल्म ढा रही हो हुकूमत अवाम पर
हम ज़ुल्म के खिलाफ सर अपना उठाएं भी।
ईनाम कुछ मिलें न मिलें इतना बहुत है
कुछ लोग मेरे गीत कभी गुनगुनाएं भी।
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जिंदगी से लोग जब बेज़ार होते हैं
फिर ख़ुशी के पल बहुत दुश्वार होते हैं।
ये है मरुथल, रेत की बस आंधियां होंगी
बारिशों के कब यहां आसार होते हैं।
वो जो फैलाते हैं नफरत बस्तियों में
लोग ऐसे, ज़ेहन से बीमार होते हैं।
वो भी दिन थे कांपती थीं उनसे सरकारें
पालतू सत्ता के अब अख़बार होते हैं।
रहनुमा लफ़्फ़ाज़ियों से लाख भरमाएं
उनकी बातों के कहां आधार होते हैं।
बच्चे दूजे देश में बीमार हों अगर
किस कदर मां-बाप तब लाचार होते हैं।
जीत की ज़िद जिंदगी का मंत्र हो जब
स्वप्न मुश्किल हों मगर साकार होते हैं।
कितने ही पूजाघरों में ये ही देखा
हर तरफ फैले हुए बाजार होते हैं।
आदमी से मान ली क्या हार ईश्वर ने
क्यों नहीं धरती पे अब अवतार होते हैं।
आंखें गीली हों मगर आंसू नहीं छलकें
दर्द के शायद वहीं अंबार होते हैं।
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कभी यदि सर को झुक जाना पड़ा है
तो फिर बरसों ही पछताना पड़ा है।
हज़ारों बार गहरे दर्द में भी
मुझे ज़बरन ही मुस्काना पड़ा है।
कुछ ऐसी उलझनें हैं ज़िंदगी में
जिन्हें ताउम्र सुलझाना पड़ा है।
बही ज़ुल्मों की ऐसी लू कि अक्सर
कई कलियों को कुम्हलाना पड़ा है।
हुकूमत कुछ नहीं सुनती किसी की
हमेशा सबको चिल्लाना पड़ा है।
कई सदियां चली जब रूह मेरी
ज़मीं पे आ के सुस्ताना पड़ा है।
मेरे ईमान पे जब डोरे डाले
हवस को आंख दिखलाना पड़ा है।
है अब भी मुल्क में ऐसे करोड़ों
जिन्हें भूखे ही सो जाना पड़ा है।
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नफरत के खौफनाक न शोले जला करें
बस्ती में फूल प्यार के हर पल खिला करें।
ये रहनुमा अवाम पे इतनी दया करें..
लफ़्फ़ाज़ियों से अपनी न हमको छला करें।
नदियों से कह दो खोएं न अपनी मिठास को
सागर में क्यूं वजूद को अपने फ़ना करें।
हैवान बन रहे हैं क्यूं इंसान आज के
इंसां हैं तो इंसानियत का हक़ अदा करें।
भरपूर शोहरतें मिली हैं आपको हुज़ूर
अब आप नस्ल ए नौ के लिए रास्ता करें।
माना बुरी थीं, जो भी थीं, पहले हुकूमतें
फिर आप क्यूं उनके किए का तर्जुमा करें।
मनहूसियत की ज़िंदगी भी ज़िंदगी है क्या
हंसते हंसाते काश ये जीवन जिया करें।
जो बेवफा हैं लाख करें बेवफाइयां
दिल कह रहा है उनसे मगर हम वफ़ा करें।
औरों के वास्ते जिन्हें जीने का है जुनूं
जो हो सके तो अपने भी हक में दुआ करें।
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