पेशे से चिकित्सक डॉ. अजय गोयल लंबे समय से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं.
डॉ. अजय गोयल
चिड़ियों की तरह चहकता और झरने जैसा मुस्कराता हुआ, सुबह-सुबह सज़ा-संवरा भव्य दादी की उंगुली थामे घर से निकलता. अस्पताल के गेट से बाहर अपनी स्कूल बस का इंतजार करता,-बस आने तक किसी लय में फुदकता हुआ, कोई पंक्ति कूकता रहता. उस समय उसके साथ पड़ोसी अमित भी रहता, जो उससे दो-तीन साल बड़ा था. साथ-साथ स्कूल बस में जाता था.
अमित व भव्य दोनों डॉक्टर परिवारों से थे. अमित के पिता डॉ. रंजन सर्जन थे. भव्य की मां प्रतिभा स्त्रा रोग विशेषज्ञ थीं, पिता डॉ. आमोद पैथोलोजिस्ट. ट्रस्ट का अस्पताल था. दोनों परिवार डॉक्टर रेजिडेंट कैम्पस में रह रहे थे.
तीन-चार महीने पहले आई थीं दादी मां. कारण भव्य था. उन दिनों भव्य खिलौने तोड़ता, किताबें फाड़ता, नौकरानी इमरती से झगड़ता, स्कूल में साथियों से मारपीट करता. रोकने पर तनकर खड़ा हो जाता और कहता— ‘मैं हूं शक्तिमान.’
मां-बाप से खाली घर में उसके लिए एक टेलिविज़न रह जाता था. रिमोट हाथों में लिए टी.वी. चैनलों को बदलता रहता. बेताल, स्पाइडर मैन या शक्तिमान जैसे सुपर मैन किरदारों में वह हर समय डुबकी लगाए रहता. मां के सामने कभी स्पाइडर मैन की तरह दीवार पर सीधा चढ़ने की कोशिश करता तो कभी कोई चीज़ उछालकर कहता— ‘शक्तिमान भी ऐसे ही फेंकता है न.’
भव्य मां की गोद में बैठकर पढ़ना चाहता. अपनी कॉपियों में अपने द्वारा किए गए अक्षरों के रेखांकन दिखाना चाहता.ल स्कूल की बातों का खजाना बांटना चाहता. लेकिन ट्रस्ट के अस्पताल में मरीजों की बाढ़ संभालते-संभालते प्रतिभा का दमखम लौटते वक़्त तक चुक गया होता. आराम करती प्रतिभा का ध्यान किसी मरीज़ में उलझा रहता. तो कभी अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट के लिए बेचैनी रहती. या मरीज के ऑपरेशन के लिए दुविधा होती. इस बीच अस्पताल से कॉल आ जाती. प्रतिभा सब कुछ इमरती के हवाले कर चल देती. अपमानित भव्य खीजकर रोता रह जाता.
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बीच-बीच में इमरती से झगड़कर भव्य ने अस्पताल जाना शुरू कर दिया. वहां वह मां के चैम्बर में बैठा अपना होमवर्क निपटाता. अपनी दिपदिपाती आंखों से मां को देखता रहता.
‘मम्मी! मरीज़ों के फूले पेट से ही बच्चा निकलता है, ना?’
‘मम्मी! तुम ऑपरेशन क्यों करती हो?’
भव्य के इन प्रश्नों का उत्तर देने के बजाय प्रतिभा ने स्वयं ही प्रश्न कर डाला था— ‘तुम्हें कैसे मालूम?’
भव्य ने सीधा उत्तर दिया कि उसने ऑपरेशन करते हुए देखा था. हरे कपड़े पहनाकर. मरीज़ को मेज़ पर लिटा दिया थां. उसके फूले पेट को काटकर उन्होंने बच्चा निकाल दिया. भव्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह सब उसने ऑपरेशन रूम के बाहर खड़ा होकर शीशे के दरवाज़े से देखा था.
अस्पताल की आया और कम्पाउंडर भव्य को छोटे डॉक्टर साहब कहने लगे थे, जब कभी प्रतिभा किसी काम से चैम्बर से निकलती तो वह मरीज़ों से पूछताछ शुरू कर देता.
मरीज़ों के सामने भव्य का रहना प्रतिभा को अच्छा नहीं लगता था. एक दिन निर्णायक क्षण आ पहुंचा. छुट्टी का दिन था. जाड़ों के दिनों में धूप स्नान के लिए प्रतिभा छत पर बैठी थी. भव्य की आवाज़़ ने उसका ध्यान खींचा. पलटकर देखा तो भव्य मुंडेर पर चढ़ा था.
‘मैं शक्तिमान की तरह उड़ूंगा, मम्मी!’
शक्तिहीन-सा हो गया था प्रतिभा का जिस्म. मुंडेर से बाहर की ओर वह सड़क पर गिर सकता था. भव्य रोकने से रुकने वाला भी नहीं था. क्षण में उपाय सूझ गया था प्रतिभा को.
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‘शक्तिमान बेल्ट पहनकर ही उड़ पाता है. तुम भी अपनी बेल्ट पहन लो तभी हवा में उड़ सकोगे.’ —प्रतिभा ने कहा.
भव्य मान गया. मुंडेर से नीचे उतर आया. धौंकनी-सी चलती सांसों और डर से शिथिल शरीर होते हुए भी प्रतिभा ने भव्य को गोद में भर लिय. नीचे उतर आई. उस दिन उसने खाना छुआ तक नहीं. क्षोभ में अस्पताल से त्याग-पत्रा लिख डाला था.
अपने जन्मदिन पर परियों के आने के सपने देखने वाले भव्य का कोना-कोना दादी मां ने अपनी गोद में समेट लिया. स्कूल बस से लौटता तो भव्य दादी मां को अपना इंतज़ार करते हुए अस्पताल गेट पर पाता. उनकी उंगुली में अपने को थामकर भव्य सब कुछ भूल जाता. स्कूल में अपने दिन का हिसाब-किताब बताता. दादी के हाथों से खाना खाता. फिर थोड़ा-सा आराम करता. इसके बाद दादी मां उसका होमवर्क करातीं.
एक दिन इमरती ने कह दिया— ‘आज तो दादी जी के पेट में दर्द हुआ था, भव्य.’
सुनकर वह खाना भूल गया. अपना बेबी डॉक्टर का सेट खींच लाया. घोषणा कर दी कि वह दादी मां का पूरा चेकअप करेगा. दादी मां को उसने लिटा लिया. उनकी आंखें देखी. जीभ देखी. कलाई पकड़ी. दायें-बायें पेट देखा. पैर देखे. इसके बाद स्टेथोस्कोप गले में लटका लिया. रंगीन चश्मा आंखों में चढ़ा लिया. हाथ में पेन लेकर बोला— ‘आप में खून की कमी है. खून चढ़ाना पड़ेगा. अल्ट्रासाउंड करना पड़ेगा. मैं ऑपरेशन करूंगा. इस बीच मैं कुछ दवा लिख देता हूं.’
‘तू तो पूरा नकलची बन्दर है. अपनी मां की नकल करता है. बड़ा सयाना हो गया है.’— दादी मां ने उठते हुए कहा. भव्य को उन्होंने चूम भी लिया था.
भव्य के लिए दादी का कन्धा झूला बन चुका था और उनकी गोद पालना. उनकी गोद में दिन को अलविदा कहता. सुबह का स्वागत करता. शाम को उनके साथ चलकर मन्दिर में जाता. रात्रि में उनके साथ टी.वी. पर आने वाले धार्मिक धारावाहिक देखता. मुंह से आग, हवा या पानी बरसाते देवताओं और राक्षसों को देखकर तालियां बजाता. तीर-कमान से लड़ते योद्धाओं को देख अचम्भित रह जाता. भव्य समझ नहीं पाता था, शाप का प्रभाव. धारावाहिकों के किसी प्रसंग में क्रोधित ऋषि शाप देते. शापित आदमी जानवर या कुछ अन्य बन जाता. यह देख, उलझन भव्य के चेहरे से झांकने भी लगती.
दादी मां ने भव्य को समझाया— ‘जो लोग भगवान की ज्यादा पूजा करते हैं, उन्हें इस प्रकार की शक्ति भगवान जी दे देते हैं.’
एक दिन मन्दिर से आते वक़्त भव्य ने दादी मां से पूछ लिया— ‘मुझको कब भगवान जी शक्ति देंगे?’
‘तुम्हें क्यों चाहिए?’ —उन्हें भव्य में आए परिवर्तनों का अहसास था. मन्दिर वह खुशी-खुशी जाने लगा था. वहां चुपचाप हाथ जोड़े और आंखें बन्द किए खड़ा रहता था.
‘मैं सबको हनुमान जी बना दूंगा. छोटे-छोटे हनुमान जी. फिर सबके साथ खेलूंगा.’
धार्मिक धारावाहिकों में ‘जय हनुमान’ भव्य को सबसे ज्यादा पसन्द था. दादी मां की गोद में बैठकर अन्य धार्मिक कथाओं के साथ ‘रामकथा’ वह सुन चुका था. नायकों में उसे हनुमान सबसे ज्यादा पसन्द आए थे.
‘हनुमान जी तो सबसे अच्छे हैं. उड़ जाते हैं, पहाड़ भी उठा लेते हैं. कभी चींटी तो कभी बहुत बड़े हो जाते हैं. अपनी पूंछ में आग लगाकर सबको जला डालते हैं.’ भव्य दादी माँ से कहता, अब उसे शक्तिमान या बेताल जैसे सुपरमैन मिट्टी के खिलौने लगने लगे थे.
भव्य के संग्रह में हनुमान मुखौटे के साथ दो-तीन बन्दरों के मुखौटे भी थे. इमरती को बन्दर मुखौटा और स्वयं हनुमान मुखौटा पहनकर भव्य प्लास्टिक की गदा कन्धे पर रख लेता. धारावाहिक के गीत गाता— ‘नाद देव की महिमा भारी, संगीतमय है सृष्टि सारी.’
उसके संवाद बोलता— ‘मैं रुद्रावतार हूं.’
जयघोष करता— ‘जय श्रीराम.’
एक बार दादी मां ने पूछ ही लिया— ‘तुम्हारे श्रीराम कहां रहते हैं?’
भव्य घूम गया. बहुत सोचने के बाद बोला— ‘वो तो टी.वी. में रहते हैं. तभी टी.वी. में आते हैं.’
इस उत्तर पर दादी मां बहुत देर तक हंसती रही थीं.
जीन्स की पैंट और जैकेट पहने, हनुमान का मुखौटा लगाए और गदा हाथ में लिए जब कभी भव्य किसी फ़िल्मी धुन पर ब्रेकडान्स जैसी उछल-कूद करता, उस समय दादी मां अपने हाथों में अपना चेहरा छिपा लेतीं.
अमित भव्य को हनुमान कहने लगा था. इस पर वह खुश हो जाता. हनुमान की चाल की नकल करता. अपना सीना फुलाकर अकड़-अकड़कर चलता. दादी-पोते की जुगलबंदी सप्तम् सुर में थी. भव्य उनकी गोद में बैठकर सवाल करता— ‘दादी मां! पापा अपने सीने के बालों को शेव क्यों नहीं करते? हनुमान जी डायनासोर को भी मार सकते हैं न. अमित कह रहा था कि डायनासोर हनुमान जी से भी बड़े होते थे.’
कल होमवर्क करते हुए भव्य ने दादी मां से पूछा— ‘दादी मां! अमित डाकू क्यों बनना चाहता है? डाकू बुरे आदमी होते हैं ना. बुरे आदमी नहीं बनना चाहिए. मैं हनुमान जी बनूंगा. पापा मेरे लिए ड्रेस ले आए हैं. स्कूल में रविवार को हमारा फैन्सी ड्रेस शो है.’ भव्य ने दादी मां से अपनी उलझन कह दी थी.
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अमित अपने पिता डॉ. रंजन के साथ आया था. माथे पर लाल टीका, मुंह पर कपड़ा बांधें और हाथ में खिलौना ए.के.47 लिए. अपनी तेज़ आवाज़़ में बोला— ‘मेरी डकैतियां काकोरी कांड की तरह याद की जाएंगी. मेरे खून वर्ग-संघर्ष के अनुष्ठान समझे जाएंगे. और पुलिस से बचने की दौड़ मेरी दांडी यात्राएं हांगी. जाति से खेलने वाले मेरे आत्म-समर्पण का बहीखाता खुलवाएंगे. इसके बाद थोड़ा मेरा ल प्रवास होगा. फिर राजनीति का खुला मैदान होगा. मुझ पर फिल्म बनेगी. विदेशों तक में मेरे फैन क्लब होंगे.’
संवाद अमित ने अच्छी तरह रट लिए थे. अर्थ वह खुद नहीं जानता था. लेकिन भव्य की चिन्ता थी कि अमित मॉर्डन डाकू क्यों बनना चाहता है. प्रतिभा और आमोद ने अमित के पूर्वाभ्यास पर सन्तोष व्यक्त किया था.
कल से हनुमान ड्रेस पहनने की जिद भव्य कर रहा था. स्कूल से लौटने पर दादी मां ने उसे मुकुट पहनाया. मुखौटा लगाया. पूंछ बांधी. लंगोट कसी. खड़ाऊ पहनाई. भव्य बहुत खुश था. नज़र बचाकर वह घर से बाहर निकल आया. अस्पताल पहुंच गया. मरीजों भरी शाम की ओ.पी.डी. थी. हनुमान चाल में चलते हुए भव्य कहने लगा— ‘हनुमान जी बन गया हूं. भगवान जी बन गया हूं.’ मरीज़ों में कौतूहल भर गया था. अपने चैम्बर में ले जाकर प्रतिभा ने भव्य को कसकर डपटा.
रुआंसी आवाज़़ में भव्य ने पूछा— ‘क्या भगवान् अस्पताल नहीं आ सकते?’
‘अस्पताल में मरीज़ आते हैं. डॉक्टर आते हैं.’ —प्रतिभा ने उसे झिड़कते हुए कहा.
भव्य वापस लौट आया. दादी मां की गोद में छिप गया. रोने लगा. दादी मां पुचकारती रहीं.
उस शाम को मन्दिर जाते वक़्त भव्य अस्पताल के सामने रुक गया. बोला— ‘दादी मां! क्या हनुमान जी ऑपरेशन कर सकते हैं? अमित कह रहा था कि हनुमान जी ऑपरेशन नहीं कर सकते.’
‘तेरे पेट में दाढ़ी-मूंछ उग आई हैं.’ —दादी मां ने आश्चर्य में कहा.
‘बेटा! किताबें टाइम मशीन होती हैं, किताबें पढ़कर आदमी क्या से क्या हो जाता है. किताबें कुछ करती हैं क्या? ऐसे ही भगवान जी केवल राह दिखातें हैं.’
अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से भव्य दादी मां को एकटक देखता रहा. लौटते वक़्त उसने दादी मां को बताया कि मंदिर में उसने हनुमान जी से कह दिया है कि कल स्कूल वह उनके साथ जाएगा. उनकी पीठ पर बैठकर और उड़कर बस के समय तक जरूर आ जाएं नहीं तो छुट्टी. क्योंकि अमित पूछ रहा था कि क्या हनुमान जी उसे स्कूल ले जा सकते हैं?
दूसरे दिन भव्य ने स्कूल बस आने तक हनुमान जी का इंतजार किया. बस आने पर दादी मां को देखकर चुपचाप उसमें चढ़ गया. टाटा भी नहीं की. स्कूल से वापस आने पर दादी मां की उंगुली पकड़कर चुपचाप घर लौट आया. उसने मुकुट, मुखौटा और पूंछ उठाकर रख दी. घोषणा कर दी कि फैन्सी ड्रेस शो में वह डॉक्टर बनेगा और ऑपरेशन करेगा.
प्रतिभा और आमोद दोनों ही भव्य को समझाने में हार चुके थे. आखि़र में दादी मां प्लास्टिक ट्रॉली पर लगा उसका ‘बेबी डॉक्टर सेट’ खींच लाई. भव्य की आंखों में हीरे जैसी चमक झांकने लगी थी. उसने अपना रंगीन चश्मा पहना. स्टेथीस्कोप गले में लटकाया. तब तक आमोद एक प्लास्टिक की गुड़िया अपनी कमीज के नीचे छिपा लेट चुका था. प्रतिभा ने भव्य का हाथ पकड़कर बेबी नाइफ़ से कट का इशारा करवाया. अपने दूसरे हाथ से भव्य ने कमीज़ के नीचे छिपी गुड़िया बाहर निकाल ली.
‘ऑपरेशन हो गया.’ भव्य झूमकर बोला था.
दादी मां की यात्रा पूर्ण हो चुकी थी.
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