हिंदी-भोजपुरी के प्रसिद्ध कवि कैलाश गौतम की रचनाओं में ग्रामीण भारत की संस्कृति की खुशबू है.
भक्ति के रंग में रंगल गांव देखा,
धरम में, करम में, सनल गांव देखा.
अगल में, बगल में सगल गांव देखा,
अमौसा नहाये चलल गांव देखा
(भक्ति के रंग में पूरा गांव रंगा हुआ है, गांव वाले धरम-करम के कामों में जुटे हुए हैं. आस-पड़ौसियों को संग लेकर पूरा गांव अमाव्सय का स्नान करने जा रहा है.)
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा.
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू
(लोगों के हाथों में झोला (समान से भरा हुआ कपड़े का थैला) लगा हुआ है. किसी के कंधे पर तो किसी के सर पर बोरा रखा हुआ है. कोई कथरी तो कोई रजाई ओढ़े अमावस्य के मेले की ओर जा रहा है.)
आजी रंगावत रही गोड़ देखा,
हंसत हंउवे बब्बा, तनी जोड़ देखा
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा
(दादी ने मेले के लिए अपने पैरों पर रंग (महावर) लगाया है, दादा उन्हें देखकर हंस रहे हैं. घूंघट में बहू पूछ रही है कि दादा ने गठरी ने क्या क्या रखा है.)
एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण का लग्गे ह मंड़ुआ के डूंढ़ी.
चाउर आ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे का ओरी
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(गठरी के बारे में बताया जा रहा है कि इधर धोती है, इधर की तरफ पूड़ियां रखी हैं. रामायण भी रखी है और एक तरफ चावल और पोहा है.)
(अपनी-अपनी गठरियों के साथ गांव का आदमी जब रेलवे स्टेशन पर आता है तब क्या स्थिति होती है, स्टेशन का भी कैलाश गौतम ने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है)
मचल हउवे हल्ला, चढ़ावा उतारा,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री-लुर्रा,
आ बीचे में हउव शराफत से बोला
(स्टरेशन पर शोर-शराबा बहुत है. रेलगाड़ी खचाखच भरी हुई है. ट्रेन में चढ़ने के लिए लोग एकदूसरे को धकियाते आगे बढ़ रहे हैं और कह रहे हैं- भाई तमीज से बोलो)
चपायल ह केहु, दबायल ह केहू,
घंटन से उपर टँगायल ह केहू.
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पियर,
केहू फनफनात हउवे जीरा के नियर
(ट्रेन में भीड़ का आलम यह है कि कोई दबा हुआ है कोई आदमियों के बीच पिसा हुआ है. कोई बर्थ पर काफी देर से आधा लटका हुआ है. कोई हक्का-बक्का है तो कोई सांप की तरह फनफना रहा है.)
बप्पा रे बप्पा, आ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देता भईया.
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके
(कोई कह रहा है- बाप रे बाप! जरा हमको भी आगे बढ़ने दो भईया. लेकिन कोई अपनी जगह से हिल तक नहीं रहा है.)
जहां तिल रखने की जगह न हो, वहां भी लोग अब सहज हो चले हैं और अब यह भीड़ एक वैचारिक मंच में तब्दील हो रही है. लोग तरह-तरह की चर्चाओं में मशगूल हो गए हैं-
छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(आपस में सभी बातचीत कर रहे हैं. कोई पढ़ाई-लिखाई की बात कर रहा है तो कोई नाते-रिश्तेदारी की. कोई दबंगई हांक रहा है कि वह दरोगा का तबादला करवा देगा. कोई किसी को औकात दिखा देने की बात कर रहा है.)
(अमावस्या के मेले की भीड़ में एक नया शादी-शुदा जोड़ा भी शामिल है. उसकी क्या स्थिति है, इसकी बानगी देखिए- )
गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे-धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे
सजल देहि जइसे हो गवने के डोली,
हंसी हौ बताशा शहद हउवे बोली
(गब्बन की दुल्हनिया धीरे-धीरे चल रही है, जैसे सवारियों से भरी नाव नदी के किनारे-किनारे चलती है. दुल्हन ऐसी सजी हुई है जैसे बिदाई के लिए डोली सजी हुई हो. उसकी हंसी को कवि ने बताशा और बातों की शहद-सी मीठी बताया है.)
देखैं ली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का.
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के.
(ये दुल्हनिया कहीं ठोकर या धक्का ना लग जाए, इसलिए बच-बचा कर चलती है. वह मन ही मन खुश है और मुस्कुरा-मुस्कुराकर मेले को देख रही है.)
सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियर प नरियर चढ़ावत चलेली
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गांठ जोड़ें कहीं गांठ खोलैं
(मेले का दृश्य बड़ा ही मनोहारी है. दुल्हन अपने सभी देवी-देवताओं को मनाते हुए चल रही है. नारियल चढ़ाती है, किनारे से देखती है, इशारों से बोलती है. कहीं वह मन्नतों की गांठ बांध रही है तो कहीं गांठ खोल रही है.)
बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली
आ दुधै से शिवजी के अरघा भरेली
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छूवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला
(लोग मंदिरों मे दर्शन कर रहे हैं, शिवजी पर दूध चढ़ाया जा रहा है.)
एही में चम्पा-चमेली भेंटइली
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.
(चंपा-चमेली एक ही गांव की दो लड़कियां हैं. उनकी शादी हो चुकी है और वे बाल बच्चेदार हैं. मेले में जब वे कई वर्षों बाद मिलती हैं तो दोनों अपनी-अपनी बातें सुनाती हैं. घर-परिवार,,बाल-बच्चे और गहनों के बारे में चर्चा करती हैं.)
असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अब तक पठवलू
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं
(दोनों आपमें कहती हैं- यह बनवा लिया, वह गढ़वा लिया. तूने अब तक जीजा की फोटो नहीं भेजी. दोनों ना तो एकदूसरे को रोक रही हैं ना टोक रही हैं. दोनों ही अपने-अपने दूल्हों की तारीफ किए जा रही हैं.)
हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जाना
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जाना
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की
(एक लड़की कहती है- मुझे अपनी सास की आंख की पुतली समझो. तो दूसरी कहती है- तू तो मुझे अपने ससुर जी की पगड़ी (शान) समझ. शहर और गांव, दोनों जगह पक्का मकान है. टेंपो भी चल रहे हैं और चक्की भी चल रही है.)
मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(थोड़ी देर में ही दोनों सहेलियां भिड़ जाती हैं. दोनों के मन में एकदूसरे के प्रति इर्ष्या पैदा हो जाती हैं और बात तू-तू, मैं-मैं पर उतर आती है. दोनों झगड़ने लगती हैं. आसपास खड़े साधू-संन्यासी और सिपाही दोनों सहेलियों को ऐसे छुड़ा रहे हैं जैसे हलवाई अपनी कड़ाही को छुड़ाता है.)
(कवि कैलाश गौतम ने इस कविता में उन बातों का भी जिक्र किया है जहां मेलों के दौरान बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं. कई दुर्घटनाओं का कवि खुद साक्षी रहा है. वर्ष 1954 के कुंभ में इलाहाबाद में ही बड़ी संख्या में लोग मारे गए. कवि ने कई छोटी-छोटी घटनाओं को पकड़ा. इनमें जिन्दगी है, मौत नहीं है. हंसी है दुख नहीं है.)
करौता के माई के झोरा हेराइल
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहैं
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहैं
(करौता की मां का झोला कहीं खो गया है. बुद्धू का बड़ा कटोरा नहीं मिल रहा है. टिकुलिया की मां टिकुली का और बिजली की मां बिजली का इंतजार कर रही है.)
मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई
चबैला के बाबू चबैला के माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चले ले
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चले ले
छोटकी बिटउआ के मारत चलेले
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले.
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली
गोबरधन का संगे पंउड़ के नहइली
घरे चलता पाहुन दही गुड़ खिआइब
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब
उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।
(गोबरधन की गंगा किनारे पर सरहज से भेंट होती है. दोनों हाथ पकड़कर गंगा स्नान करते हैं. सरहज कहता है- पाहुन (मेहमान जी) घर चलते तो आपको दही और गुड़ खिलाते. भतीजा हुआ है उससे भी मिलवाते.)
केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे
केहू बस अटैची के ताला मोलावे
केहू चायदानी पियाला मोलावे
सुखौरा के केहू मसाला मोलावे.
(उपरोक्त पंक्तियों में परिवार का मुखिया पूरे परिवार को मेले में किस तरह लेकर के आता है यह दर्द वही जानता है. जाड़े के दिन होते हैं. कोई आलू बेच कर आया है कि गुड़ बेच कर आया है. धान बेच कर आया है, कि कर्ज लेकर आया है. मेला से वापस आया है. सब लोग नहा कर के अपनी जरुरत की चीजें खरीद कर चलते चले आ रहे हैं. परिवार के साथ रहते हुए भी मुखिया अकेला दिखाई दे रहा है. कोई शाल स्वेटर और दुशाला खरीदने के लिए मोल-भाव कर रहा है. कोई अटैची के ताले, कोई चायदानी, कप-प्याले और कोई मसालों का भावतोल कर रहा है.)
नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी
भईया से आगे निकल गइली भउजी
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी
देखते डरामा उछल गइली भउजी.
भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा.
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता.
(भाभी नुमाइश देखते ही बदल गई और भईया से आगे निकल गई है. बेचारे भईया हिसाब-किताब में लगे हुए. मेले में कितना खर्चा हुआ. कल कचहरी जाना है. बहन की बिदाई का समय भी नजदीक है. इन तमाम चिंताओं से घिरे हैं भईया.)
फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता
खलीका में खाली किराया के बूता
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें
कटोरी में सुरती मलत जात हउवें
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.
(भईया का कुर्ता फटा हुआ है, जूता में से कई जगह से उंगलियां बाहर निकल रही हैं. जेब में सिर्फ भाड़े लायक पैसे बचे हैं. वे तंबाकू रिगड़ते हुए भाभी के पीछे-पीछे चले जा रहे हैं. यही है अमावस्या का मैला.)
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