गाजियाबाद में हर महीने आयोजित होने वाला कार्यक्रम 'महफ़िल ए बारादरी' देश के नामचीन रचनाकार शिरकत करते हैं.
गाजियाबाद: कवि, कविता और शायरी की महफिल ‘महफ़िल ए बारादरी’ में काव्य के विभिन्न रंग देखने को मिले. देश के नामचीन गजलकार, कवि और साहित्यकार इस महफिल में जुटे.
गाजियाबाद के सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में आयोजित कार्यक्रम में प्रसिद्ध कवयित्री ममता किरण ने कहा कि महफिल के बारादरी जैसे आयोजन ही कविता को जिदा रखते हैं. कविता मोहब्बत की, इंसानियत की, सामाजिकता की बात करती है. नफरत की बात कविता नहीं करती. उन्होंने कहा कि कविता वंचितों, शोषितों की बात करती है. जहां-जहां अन्याय है उसकी बात करती है.
ममता किरण ने कहा कि आज हम जिस माहौल में रह रहे हैं, हमारी संवेदनाएं मर रही है, ऐसे में कविता ही हमें संवेदनशील बनाती है, हमारी संवेदनाओं से हमें जोड़ती है, हमें मनुष्य बनाती है. उन्होंने दोहों के माध्यम से अपनी बात रखी-
बच्चों को पर क्या मिले छोड़ गए वो साथ,
दीवारें ही बच गई जिन से कर लो बात।
बच्चे परदेसी हुए सूने घर संसार,
इंटरनेट पर ही मनें अब सारे त्यौहार।
विज्ञापन में छा रहा रिश्तों का जो जाल,
जीवन में आ जाए तो हो जीवन खुशहाल।
वश में करने जब उसे काम न आए मंत्र,
है गवाह इतिहास तब रचा गया षड्यंत्र।
‘महफ़िल ए बारादरी’ की अध्यक्षता करते हुए ममता किरण ने बेटियों को समर्पित शेर में कहा- “एक निर्णय भी नहीं हाथ में मेरे बेटी, कोख मेरी है मगर कैसे बचा लूं तुमको“
कार्यक्रम की मुख्य अतिथि डॉ. अलका टंडन भटनागर ने कहा कि अदब से उनका नाता बचपन से ही रहा है, लेकिन बारादरी से जुड़ कर उनके भीतर का कलमकार पुनः जीवित हो रहा है. उन्होंने अपने प्रारंभिक दौर की पंक्तियां “क्यों कैद हो औरों के बनाए बंधनों में, मुक्त होकर तलाश करो अपनी राह” पर सराहना बटोरी.
कार्यक्रम के विशेष आमंत्रित अतिथि लक्ष्मी शंकर बाजपेयी ने भी अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कुछ यूं फरमाया-
छुपाए राज कितने ही सभी की ज़िदगानी है,
कोई भी शख्स हो सबकी अलग अपनी कहानी है।
असलियत आदमी की कब पता लगती है चेहरे से,
ज़ुबां फौरन बताती है वो कितना ख़ानदानी है।
वो जब दरिया का हिस्सा था तो दरिया की रवानी था,
जो अब छूटा है दरिया से तो बस ठहरा सा पानी है।
संस्था की संस्थापिका डॉ. माला कपूर ‘गौहर’ की गज़ल खूब सराही गई-
रात भर रात मुख़्तसर न हुई, लाख चाहा मगर सहर न हुई
जिस दुआ में उसे ही मांगा था, वो दुआ मेरी बा-असर न हुई
हाल से मेरे बा-ख़बर सब थे, जाने क्यों उसको ही ख़बर न हुई
उसने ‘गौहर’ मुझे तराशा यूं, मैं ज़माने में दर-ब-दर न हुई।
मासूम गाज़ियाबादी के शेर भी खूब सराहे गए-
वो अपने आपको हर शख़्स से क़ाबिल समझता है,
अजीब इन्सान है नुकसान को हासिल समझता है
जो मुंह पढ़ कर सुब्हो का शाम की नीयत बताता था,
सुना है अब इशारों को भी बा-मुश्किल समझता है
यक़ीं से दूर तक जैसे तआल्लक़ ही नहीं उसका,
दगाबाज़ी में हर इन्सान को शामिल समझता है।
प्रमोद कुमार कुश ‘तन्हा’ ने कहा “इक रौशनी के पीछे चिंगारियां बहुत हैं, इस उम्र के सफर में दुश्वारियां बहुत हैं। देखो न सिर्फ चेहरा अंदाज पर न जाओ, इन्सान की सोच में भी मक्कारियां बहुत हैं.”
डॉ. ईश्वर सिंह तेवतिया ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी-
बोझ समझते हो क्यों हमको,
तथ्यों को स्वीकार करो तुम,
अपने सर से भार उतारो,
फिर हम पर उपकार करो तुम
सब ज़ज़्बात ताक पर रख दो,
आओ चलो व्यापार करो तुम,
छोड़ो फर्ज-वर्ज की बातें,
चुकता सिर्फ उधार करो तुम।
रिंकल शर्मा, अनिल वर्मा ‘मीत’, मृत्युंजय साधक, आशीष मित्तल, कीर्ति रतन, डॉ. वीना मित्तल, ऊषा श्रीवास्तव ‘राज’, राजीव ‘कामिल’, दिलदार देहलवी, डॉ. तारा गुप्ता, नेहा वैद, तरुणा मिश्रा ने अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं.
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