शिरीष खरे पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय हैं.
‘एक देश बारह दुनिया’ की शानदार सफलता के बाद पत्रकार और लेखक शिरीष खरे की एक और पुस्तक ‘नदी सिंदूरी’ रिलीज होने जा रही है. ‘नदी सिंदूरी’ पुस्तक का नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में 26 फरवरी को लोकार्पण किया जाएगा. वर्ल्ड बुक फेयर में प्रगति मैदान के हॉल नंबर 2 में इस पुस्तक का विमोचन होगा और पत्रकार अभय कुमार दुबे तथा पल्लव इस पुस्तक को लेकर लेखक शिरीष खरे से बातचीत करेंगे.
शिरीष खरे एक खोजी पत्रकार हैं और पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय हैं. खोजी पत्रकारिता के लिए शिरीष को भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. खोजी पत्रकारिता पर आधारित ‘तहकीकात’ और प्राथमिक शिक्षा पर ‘उम्मीद की पाठशाला’ पुस्तकें काफी पहले ही आ चुकी हैं.
‘नदी सिंदूरी’ शहर और शहरी सभ्यता से दूर एक गोंड आदिवासी बहुल गांव की कहानी है जिसकी अंदर कई सारी कहानियां हैं. नर्मदा की इस सहायक नदी के किनारे यह गांव है मदनपुर. यह कहानी इसी मदनपुर गांव के इर्द-गिर्द घूमती है.
शिरीष खरे ने बताया कि ‘नदी सिंदूरी’ महज नदी की ही कहानी नहीं है, बल्कि घाट, गांव, गांव-संस्कृति की भी कहानी है. इस स्मृति-कथा में चरित्र प्रधान है और कई सारे चरित्र हैं. जैसे- आदिवासी गायक, ढोलकबाज, साधु, ठग, चोर, नचैया, हिम्मतवाली दलित बस मालकिन, साहसी दलित युवक, उज्जड बस कंडक्टर, जीप ड्राइवर, बांसुरीवादक गड़रिया, फोटोग्राफर, पिछड़ा वर्ग का नेता, प्रगतिशील पुजारी, आदर्शवादी मास्साब, मॉडर्न सैलून वाला, टेलर मास्टर, वीर वीरन कक्का, गोताखोर, गोताखोर की पत्नी, भूत इत्यादि.
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शिरीष बताते हैं कि ‘नदी सिंदूरी’ में कस्बाई आकर्षण है. लेकिन, कस्बाई दबंगई का डर और विरोध भी है. कस्बे की लड़की से जुड़ी एक प्रेम की स्मृति है तो कहीं चोरी-छिपे तो कहीं सतह तक आईं गांव की कुछ दूसरी प्रेम कहानियां भी हैं. सभी जगह पर प्रेम एक स्थायी तत्व है जो परम्परागत संरचना को हिलाती रहती है और उसमें हर बार सिंदूरी की पतली-सी धारा फूटती दिखाई पड़ती है.
शीर्षक के सवाल पर शिरीष बताते हैं कि मध्य-भारत के एक बड़े शहर भोपाल से करीब दो सौ किलोमीटर दूर सिंदूरी के किनारे मदनपुर को सन् 1842 और 1857 के गोंड राजा ढेलन शाह के विद्रोह के कारण इतिहास में मामूली जगह दी गई है. बहादुर शाह जफर ने सन् 1857 में केंद्रीय मंत्रीमंडल बनाया था जिसके प्रधानमंत्री वे खुद थे. उस मंत्रीमंडल में एक नाम ढेलनशाह का भी था.
ढेलन शाह की कहानी तो फिर भी इतिहास में दर्ज हो चुकी है. लेकिन, ‘नदी सिंदूरी’ की कहानी अब दर्ज हुई है. ये संस्मरण, ये कथाएँ सिंदूरी के बीच फेंके गए पत्थर के कारण नदी के शांत जल की तरंगों जैसी हैं.
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शिरीष खरे ने बताया कि नदी सिंदूरी जो अब सूख रही है कभी बारह महीने बहा करती थी. यहां वॉट्सऐप, फेसबुक, ट्वीटर युग की दुनिया से दूर नब्बे के दशक की दुनिया दर्ज हुई है जहां मशीनों से दूर जीवंतता है और जड़ता भी. मानवीयता है तो विद्रूपता दोनों ही. साथ ही कुछ ऐसी ध्वनियां हैं जो लोगों को आपस में एक-दूसरे से बांधती हैं.
वह बताते हैं कि नदी सिर्फ संसाधन नहीं है, न ही बस गांव का भूगोल तय करती है, बल्कि एक समुदाय रचती है. यह है सिंदूरी जैसी छोटी नदी किनारे का समुदाय जो लोकरीति, लोकनीति, किस्से और कहावतों के महीन धागों से बुना हुआ है, जिसमें एक शुद्ध देहात की दुनिया दिखती है, जिसमें नदी को देख रोया, गाया या हंसा जा सकता है.
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