'परशुराम की प्रतीक्षा' में रामधारी सिंह दिनकर ने तत्कालीन सत्ताधारियों को चीन के हाथों मिली पराजय का जिम्मेदार ठहराया है.
गरदन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहां ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
(‘परशुराम की प्रतीक्षा’ खंड काव्य के माध्यम से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने तिब्बत पर चीन आक्रमण का विरोध नहीं करने और चुप रहने के लिए तत्कालीन भारतीय सत्ताधारियों की कड़ी भर्त्सना की है.)
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