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पीयूष मिश्रा की कविता- मुम्बई की सुंदर सी-लड़की...

पीयूष मिश्रा जितने शानदार अभिनेता हैं, उतने ही अच्छे गायक और उतने ही बेहतरीन लेखक भी हैं.

पीयूष मिश्रा जितने शानदार अभिनेता हैं, उतने ही अच्छे गायक और उतने ही बेहतरीन लेखक भी हैं.

फिल्मी अभिनेता, रंगमंच कलाकार, संगीत निर्देशक, गायक, गीतकार और पटकथा लेखक पीयूष मिश्रा बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. उन्ह ...अधिक पढ़ें

मुम्बई की सुंदर सी-लड़की…

इस मुंबई नाम के सागर में
एक सुंदर लड़की रहती थी
जो हंसती थोड़ा कम ही थी
बस अक्सर रोती रहती थी…

मैं कभी जो जाता पास तो वो
पत्ते-सी थर-थर कंपती थी
और कभी जो रहता दूर तो
‘आप कहां थे’ रोती कहती थी

जो कभी उसे डांटा तो वो
‘क्यों डांटा’ बोल बिलखती थी
और ना डांटो तो सहम के
‘क्या नाराज हैं’ कह के तकती थी…

मैं कहता ‘देखो बात सुनो’
वो हिरणी नजर उठा देती
मैं कहता ‘ना…कुछ खास नहीं’
वो भीगी पलक झुका देती…

मैं पीठ को थपकी देता तो वो
हिलक-हिलक-सी आती थी
मैं माथे को चूमूं तो वो बस
हिचकी में बंध जाती थी….

वो अक्सर चुप हो गोदी में
इक छोटा तकिया रखती थी
और गुमसुम सुन्न निगाहों से
कमरे का कोना तकती थी…

ठोढ़ी को थामे नरम उंगलियां
और नरम हो आती थीं
और बालों की दो-चार लटें
यूं होंठ कभी छू जाती थीं…

मैं सर पर अपने मार दो हत्थड़
कुछ भी तो कह जाता था
फिर क्या बोलूं क्या समझाऊं
ये सोच के चुप रह जाता था…

अक्सर उन काली आंखों में
घनघोर बवंडर दिखता था
उस चुप्प-चुप्प खामोशी में भी
कुछ-कुछ अंदर दिखता था…

मैं जानूँ था उसके अंदर
झकझोर समंदर बहता है
जो लहर थपेड़ों से जूझे
और लहर थपेड़े सहता है…

अपनी मासूम समझ में उसने
उन पर बांध बनाया था
पर पत्थर गलत लगाए थे
तो खास काम ना आया था…

काश समय की दौड़ में मुझको
थोड़ा पहले मिलती जो
हर मील के पत्थर के आगे को
खड़ा मैं मिलता ‘बोलो तो…’

जिसका ये मतलब कतई नहीं
कि सब कुछ पीछे छूटा हो
ये समय कोई इनसान नहीं
जो बात-बात में रूठा हो…

मैं तुमको थपकी दे सकता
तुम मुझको थपकी दे सकतीं
और इक पल को ब्रह्मांड भूलकर
खुद की झपकी ले सकतीं….

जिसका ये मतलब कभी नहीं कि
अर्थ तुम्हें कुछ और लगे
कि हर साथी की तुलना में ये
साथ तु्म्हें ‘इक और’ लगे…

ये जीवन बस इक दौर सखी
जिससे हर कौम गुजरती है
ये झिलमिल आंसू कहीं ना हों
बस ये ही आस उभरती है….

लंगड़े की दूजी टांग बने
अंधे की दोनों आंख बने
चुम्बन की भाषा लाखों हैं
ये हम पे है किस चुनें

तुम जहां रहो ये सोच रहे
कि और भी कोई रहता है
जो तुम रोतीं वो रोता ना
पर हर इक आंसू सहता है…

जो कभी सिसकतीं तुम तो हर इक
सिसकी का एहसास उसे
अपनी आंखों से गिरे हरेक
आंसू के मानो पास उसे…

और कभी खनकती हंसी में डूबा
एक ठहाका मारो तुम
तो खुश होता वो पगला कर के
मानो या ना मानो तुम….

और मालूम तुम को कि ‘क्यों’ क्योंकिं वो
‘प्यार नाम’ को जाने है
जिस प्यार नाम के लफ्ज से सारे
उतने ही अनजाने हैं….

कुछ को वो दिखता क्षीण कीट में
कुछ को मांसल बांहों में
कुछ को दिखता पुष्ट उरोजों
कुछ वो कदली जांघों में…

मैं हंस पड़ता जब वो कहते
अभिसार बिना है प्यार नहीं
अभिसार प्यार से हो सकता
पर प्यार बिना अभिसार नहीं…

(साभार- कुछ इश्क किया, कुछ काम किया, राजकमल प्रकाशन)

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Literature, Poet

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