दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar) ने हिंदी और उर्दू को मिलाकर गज़ल रचना का प्रयोग किया. वे धारण शब्दों में अपनी बात लोगों तक पहुंचाते थे.
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशां हैं वहां पर क्या हुआ होगा।
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हांका हुआ होगा।
कई फ़ाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं हुआ होगा।
यहां तो सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
ख़ुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।
चलो, अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
(अपने मित्र के.पी. शुंगलु को समर्पित, जिसने मतले का विचार दिया)
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इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तो,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर सांझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई हैज जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जो-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
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देख, दहलीज से काई नहीं जाने वाली, ये
ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली।
कितनी अच्छा है कि सांसों की हवा लगती है,
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली।
एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में,
मैं समझता हूं ये खाई नहीं जानेवाली।
चीख़ निकली तो है होंठों से, मगर मद्धम है,
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली।
तू परेशान बहुत है, तू परेशान न हो,
इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली।
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा,
चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली।
(साभार- साये में धूप- राजकमल प्रकाशन)
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