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माखनलाल चतुर्वेदी की श्रेष्ठ कविताएं 'मैं अपने से डरती हूं सखि'

माखनलाल चतुर्वेदी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए.

माखनलाल चतुर्वेदी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए.

माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाषा' हिंदी साहित्य में एक कालजयी कृति है. यह कविता कई प्रदेशों के पाठ्यक्रमों ...अधिक पढ़ें

    हिन्दी जगत के प्रसिद्ध कवि, लेखक और पत्रकार माखन लाल चतुर्वेदी (Makhanlal Chaturvedi) का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बावई गांव में हुआ था. प्राइमरी शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया.

    सितंबर 1913 में उन्होंने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए. अंग्रेजों की खिलाफ लड़ाई में उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया. उन्होंने प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में अंग्रेजी शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया. अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए नई पीढ़ी का आह्वान किया. असहयोग आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और जेल भी गए.

    उनकी कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ (pushp ki abhilasha) हिंदी साहित्य में एक कालजयी कृति है. यह कविता कई प्रदेशों के पाठ्यक्रमों में शामिल है. 1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ माखनलालजी को ‘हिमकिरीटिनी’ (Himkireetinee) पर दिया गया था.

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    माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य संग्रह ‘हिमतरंगिणी’ (Him Tarangini) के लिए उन्हें 1955 में हिन्दी के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ (Sahitya Akademi) से सम्मानित किया गया. उनकी एक कविता “कैसी है पहचान तुम्हारी” भी काफी चर्चित रही है. भोपाल में उनके नाम से पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी (Makhanlal Chaturvedi University) भी स्थापित की गई है.

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    महाकवि चतुर्वेदी की कविताओं में देशप्रेम, प्रेम और प्रकृति का बड़ी ही खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया है. उनकी मृत्यु 30 जनवरी, 1968 को हुई थी.

    प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएं (Makhan Lal Chaturvedi poems)

    कैसी है पहिचान तुम्हारी

    कैसी है पहिचान तुम्हारी
    राह भूलने पर मिलते हो !

    पथरा चलीं पुतलियां, मैंने
    विविध धुनों में कितना गाया
    दायें-बायें, ऊपर-नीचे
    दूर-पास तुमको कब पाया

    धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
    तुम खिलते हो तो खिलते हो।
    कैसी है पहिचान तुम्हारी
    राह भूलने पर मिलते हो!!

    किरणों प्रकट हुए, सूरज के
    सौ रहस्य तुम खोल उठे से
    किन्तु अंतड़ियों में गरीब की
    कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !

    कांच-कलेजे में भी कस्र्णा
    के डोरे ही से खिलते हो।
    कैसी है पहिचान तुम्हारी
    राह भूलने पर मिलते हो।।

    प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
    मनमोहिनी धरा के बल हैं
    दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
    तेरी ही छाया के छल हैं।

    प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
    जो बलि के फूलों खिलते हो।
    कैसी है पहिचान तुम्हारी
    राह भूलने पर मिलते हो।।

    मैं अपने से डरती हूं सखि

    पल पर पल चढ़ते जाते हैं,
    पद-आहट बिन, रो! चुपचाप
    बिना बुलाए आते हैं दिन,
    मास, वरस ये अपने-आप,
    लोग कहें चढ़ चली उमर में
    पर मैं नित्य उतरती हूं सखिं।
    मैं अपने से डरती हूं सखि।

    मैं बढ़ती हूं? हां- हरि जानें
    यह मेरा अपराध नहीं है
    उतर पड़ूं यौवन के रथ से
    ऐसी मेरी साध नहीं है,
    लोग कहें आंखें भर आयीं,
    मैं नयनों से झरती हूं सखि।
    मैं अपने से डरती हूं सखि।

    किसके पंखों पर, भागी
    जाती हैं मेरी नन्हीं सांसें?
    कौन छिपा जाता है मेरी
    सांसों में अनगिनी उसांसें?
    लोग कहें उन पर मरती है
    मैं लख उन्हें उभरती हूं सखि।
    मैं अपने से डरती हूं सखि।

    सूरज से बेदाग, चांद से
    रहे अछूती, मगल-वेला
    खेला करे वही प्राणों में,
    जो उस दिन प्राणों पर खेला,
    लोग कहें उन आंखों डूबी,
    मैं उन आंखों तरती हूं सखि।
    मैं उनसे डरती हूं सखि।

    जब से बने प्राण के बंधन
    छूट गए गठ-बन्धन रानी,
    लिखने के पहले बन बैठी
    मैं ही उनकी प्रथम कहानी,
    लोग कहें आंखें बहती हैं,
    उनके चरण भिगोने आएं,
    जिस दिन शैल-शिखिरयां उनको
    रजत मुकुट पहनाने आएं,
    लोग कहें, मैं चढ़ न सकूंगी
    बोझीली, प्रण करती हूं सखि।

    मैं नर्मदा बनी उनके,
    प्राणों पर नित्य लहरती हूं सखि।
    मैं अपने से डरती हूं सखि।

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