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रामचरितमानस प्रसंग: रावण को विभीषण की कौन-सी बात बुरी लगी, जिसके कारण हुआ लंका से निष्कासन

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥

रामायण में विभीषण एक ऐसा चरित्र है जिनको लेकर कहा जाता है कि विभीषण के सहयोग के बिना भगवान राम युद्ध में रावण को पराजित ...अधिक पढ़ें

Ramcharitmanas Chaupai : गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस के सुंदरकाण्ड में रावण और विभीषण के बीच उस संवाद का उल्लेख किया गया है, जिनसे रुष्ठ होकर लंकानरेश रावण ने विभीषण को लात मारकर लंका से निकाल दिया था. लंका से निष्काषित होने के बाद विभीषण ने राम की शरण ली. विभीषण ने भी राम को वह भेद बताया जिसको जान लेने के बाद ही राम रावण का वध कर पाए.

रामचरित मानस के सुंदरकाण्ड में उस घटना का वर्णन किया गया है जब हनुमान जी लंका में आग लगाकर चले गए थे और उधर, रामजी के सेना रावण से युद्ध की तैयारियों में जुटी हुई थी. लंका में राजा रावण का दरबार लगा हुआ है. रावण मंत्रीगण के साथ बैठकर युद्ध पर मंत्रणा कर रहे हैं. दरबार में सभी मंत्रीगण रावण की शक्तियों का स्तुतिगान कर रहे हैं और बता रहे हैं कि धरती ही नहीं बल्कि तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है जो रावण को युद्ध में परास्त कर सके. उसी सभा में विभीषण में आ पहुंचे हैं और रावण को प्रणाम करके आसन पर बिराज गए हैं. यहां विभीषण से भी युद्ध पर उनकी राय पूछी जाती है.

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥

विभीषण फिर से सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और रावण की अनुमित पाकर बोले- हे कृपाल जब आपने मुझसे मेरी राय पूछी ही है, तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूं.

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥

विभीषण कहते हैं- जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह परनारी के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे.

हमारे यहां चौथ तिथी को चांद को देखना अशुभ माना जाता है. विभीषण कहते हैं कि जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार मनुष्य को परस्त्री का मुख नहीं देखना चाहिए.

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥

यहां विभीषण अपना कथन जारी रखते हुए कहते हैं- चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता. जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ-लालच क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता.

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥

विभीषण हाथ जोड़कर रावण से कहते हैं- हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं. इन सबको छोड़कर श्रीराम जी का स्मरण करें. श्रीरामजी का स्मरण, भजन संत (सत्पुरुष) करते हैं.

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥

रामचंद्रजी के बारे में विभीषण रावण से कहते हैं- हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं. वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं. वे संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य और ज्ञान के भंडार हैं. वे भगवान्‌ हैं, वे निरामय, अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं.

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥

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कृपा के सागर भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गाय और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है. विभीषण कहते हैं- हे भाई! सुनिए, वे (श्रीराम) अपने सहयोगियों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं.

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥

यहां विभीषण अपने भाई को सलाह देते हुए कहते हैं- दुश्मनी छोड़कर उन्हें प्रणाम करें. श्री रघुनाथजी शरण में आए जीव का दुःख नाश करने वाले हैं. हे नाथ! उन प्रभु को सीताजी दे दीजिए और बिना ही कारण प्रेम करने वाले श्री रामजी को स्मरण करें.

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥

गोस्वामीजी लिखते हैं- जिसे पूरी दुनिया से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण में आने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते. जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं. हे रावण! अपने हृदय में यह समझ लीजिए.

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥

विभीषण कहते हैं- हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूं और विनती करता हूं कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्रीरामजी का सुमिरन करें.

विभीषण ने रावण को बताया कि मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के माध्यम से यह बात मुझ तक भेजी है और अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात आप से कह दी.

रावण की सभा में बहुत ही बुद्धिमान मंत्री माल्यवान्‌ ने विभीषण की बातों का समर्थन करते हुए रावण से कहा कि आपके छोटे भाई विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे मान लें. विभीषण और माल्यवान् की बातें सुनकर रावण को क्रोध आ जाता है.

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥

क्रोध में रावण कहता है- ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं. यहां कोई है? इन्हें दूर करो न! रावण का गुस्सा देखकर माल्यवान्‌ तो घर चले जाते हैं. लेकिन विभीषण हाथ जोड़कर फिर से विनय करने लगते हैं.

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

विभीषण करते हैं- वेद-पुराण ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि यानी अच्छे विचार और कुबुद्धि यानी बुरे विचार सबके मने में रहते हैं. जहां सुबुद्धि है, वहां तमाम प्रकार की संपदाएं, सुख, सम्पन्नता रहती है. जहां कुबुद्धि है वहां हमेशा दुःख ही रहते हैं.

 ‘वर दे, वीणावादिनि वर दे’ सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की सरस्वती वंदना

अगली चौपाई में विभीषण कहते हैं कि आपके हृदय में उलटी बुद्धि आ बसी है. आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं. जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि हैं, उन सीता पर आपको प्रेम उमड़ रहा है. यह सुनकर रावण को क्रोध आ जाता है.

बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥

विभीषण ने विद्वानों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत वाणी से नीति बखानकर कही. पर यह सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और विभीषण से बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है.

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥

रावण कहता है-अरे मूर्ख! तू मेरे ही अन्न से पल रहा है पर पक्ष तुझे दुश्मन का ही अच्छा लगता है. अरे दुष्ट! बता न, जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो?

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥

रावण ने कहा- मेरे राज्य में रहकर तपस्वियों से प्रेम करता है. मूर्ख! तू उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता. ऐसा कहकर रावण ने विभीषण को लात मारी. लेकिन छोटे भाई विभीषण ने मारने पर भी बार-बार उसके चरण ही पकड़े.

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

यहां भगवान शिवजी पार्वती जी कहते हैं- हे उमा! संत (श्रेष्ठ मनुष्य) की यही महिमा है कि वे बुराई करने पर भी भलाई ही करते हैं.

लात पड़ने के बाद बी विभीषण ने रावण से कहा- आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा तो अच्छा ही किया. परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है. इस तरह विभीषण रावण से विदा लेकर आकाशमार्ग से अपने कुछ साथियों के साथ भगवान राम के पास चले जाते हैं.

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