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Book Review: गांधी के आखिरी आदमी की खरी आवाज़ है "एक देश बारह दुनिया"

यह रिपोर्ताज केवल भूख, प्यास या फिर सुविधाओं के अभाव में पिसता जीवन ही नहीं दिखाता बल्कि, दूरदराज के गांवों की परम्पराओं और जीवनशैली से भी रूबरू करता है.

यह रिपोर्ताज केवल भूख, प्यास या फिर सुविधाओं के अभाव में पिसता जीवन ही नहीं दिखाता बल्कि, दूरदराज के गांवों की परम्पराओं और जीवनशैली से भी रूबरू करता है.

शिरीष खरे ने अपने रिपोर्ताज में महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, बुंदेलखंड और राजस्थान के ...अधिक पढ़ें

Book Review: हमारे देश में ‘भारत’ और ‘इंडिया’ को लेकर की जाने वाली तुलना और ‘भारत’ के साथ किए जाने वाले भेदभाव से जुड़ी बहस लंबे समय से चल रही है. साधन सम्पन्न लोग ‘इंडिया’ और अभावग्रस्त लोग ‘भारत’ में जीते हैं. यह भी सच है कि एक ही देश का समाज दो देशों में बंटता भी नजर आ रहा है, लेकिन क्या असमानता की यह खाई एक ही देश में कई अलग-अलग दुनियाएं भी बना रही हैं? और बना भी रहीं हैं तो कैसे? इसी सवाल की पड़ताल करती नजर आती है शिरीष खरे (Shirish Khare) की किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ (Ek Desh Barah Duniya).

किताब का शीर्षक पढ़ते समय ‘भारत’ और ‘इंडिया’ का विभेद फिर जेहन में उभर आता है. इस किताब का हर अध्याय एक ऐसी दुनिया का दरवाजा खोलता है, जो या तो हाशिये पर छूट गया है या जिन्हें इरादतन अनदेखा किया गया गया है.

पत्रकार शिरीष खरे की यह किताब इन्हीं इलाकों की यात्राओं से जन्मा रिपोर्ताज है, जो सरकारी तंत्र के विकास के दावों की पोल खोलता है. इस किताब में भारत की वह तस्वीर उभरती है, जो न तो कभी टीवी की ब्रेक्रिंग न्यूज बनती है और न ही किसी अखबार के नेशनल पन्ने पर जगह बना पाती है. हां, यथा-कदा ऐसी घटनाएं स्थानीय अखबारों में सीमित जगह पाकर भूला दी जाती हैं.

शिरीष खरे ने अपने रिपोर्ताज में महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, बुंदेलखंड और राजस्थान के थार तथा जनजातीय इलाकों में स्थानीय लोगों के जीवन को जगह दी है. इस तरह उन्होंने एक-दो नहीं, बल्कि एक दशक के दौरान इन इलाकों में की अपनी लंबी यात्राओं और लोगों की बीच बिताए समय में देखी गई भारत के भीतर की अलग-अलग दुनियाओं को सामने लाने की कोशिश की है.

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शिरीष पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, ”पिछले कुछ वर्षों में हमारे शहरों और दूरदराज के गांवों के बीच भौतिक अवरोध तेजी से मिट रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि उतनी ही तेजी से एक सामान्य चेतना में गांव और गरीबों की जगह सिकुड़ती जा रही है.”

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मेरे मन भी दिल्ली-एनसीआर में बनी झुग्गी-झोपड़ियों में डिश एंटीना, एलसीडी टीवी और तमाम सुविधाओं वाली भौतिक सम्पन्नता से जुड़े विचार आने लगते है. इसके आगे जब लेखक कहता है कि सामान्य चेतना में गरीबों की जगह सिकुड़ती जा रही है तो तुरंत ही कुछ सम्पन्न लोगों की यह बात भी मेरे दिमाग में कौंध उठती है, ”यार, इन झुग्गी-झोपड़ियों को शहर के दूर बसाना चाहिए, सोसायटी का पूरा शो ही खराब कर देते हैं और फिर इनसे सुरक्षा का खतरा भी बना रहता है.”

इस तरह लगातार सिकुड़ती सामान्य चेतना की वजह भी बताते हुए शिरीष लिखते हैं, ”जब चरमपंथी विविधता के विभिन्न रूपों पर निशाना साधकर भय और नफरत को हवा दे रहे हैं तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान पंक्ति में खड़े गांधी के आखिरी आदमी को ही भुगतना पड़ेगा.” लेखक ने अपनी नजर से ‘गांधी के इस आखिरी आदमी’ की ही दुनिया को देखने और उसे उजागर करने का प्रयास किया गया है.

‘एक देश बारह दुनिया’ की पहली दुनिया है महाराष्ट्र का मेलघाट. ‘वह कल मर गया’ शीर्षक से लेखक ने ऐसी मार्मिक घटना को उजागर किया है, जो हर संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर सकती है.

”वह कल मर गया, तीन महीने भी नहीं जिया.” एक मां के मुंह से सपाट लहजे में अपने मासूम बच्चे की मौत की खबर सुनकर लेखक भीतर तक हिल जाता है.

मेलघाट में उन दिनों (इन दिनों का पता नहीं) कुपोषण से बच्चों की मौत सामान्य घटना थी. इस बारे में एक जगह लेखक लिखते हैं, ”महाराष्ट्र सरकार के पर्यटन विभाग ने बाघ का फोटो दिखाकर जिन हरी-भरी सुंदर पहाड़ियों को राज्य के सबसे सुंदर स्थलों में से एक बताया था, अंदाजा नहीं था कि यहां की माताएं इस हद तक भूखी होंगी कि भूख से बिलबिलाकर दम तोड़ने वाले अपने नवजातों को बस देखती रह जाएंगी.”

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बच्चों की मौत की घटनाएं लेखक को स्तब्ध कर देती हैं. एक क्षण के लिए लेखक भूल जाता है कि वह कौन है और कहां है. इस घटना का उल्लेख करते हुए शिरीष लिखते हैं, ”मैं हूं देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से उत्तर-पश्चिम की तरफ, कोई सात सौ किलोमीटर दूर…पर मैं हूं कौन-सी दुनिया में भाई!”

यह रिपोर्ताज आपको केवल भूख, प्यास या फिर सुविधाओं के अभाव में पिसता जीवन ही नहीं दिखाता, बल्कि दूरदराज के गांवों की परंपराओं और वहां की जीवनशैली से भी रूबरू कराता है. लेखक आपको महाराष्ट्र के ही भीमकुंड सुंदर पर्यटक स्थल के नजदीक बूंद-बूंद पानी को तरसते माखला गांव की ओर ले जाते हैं.

दूसरी तरफ, बागलिंगा गांव में एक नब्बे साल के बुजुर्ग झोलेमुक्का धांडेकर जनजातीय रीति-रिवाज और परंपराओं के बारे में बताते हैं, ‘साल में सब एक बार बैठते थे, भवई (एक त्यौहार) पर। तब साल भर का कामकाज बांटा जाता था, मिलकर कायदा बनाते थे। हां, भवई के दिन महिलाएं भी बराबरी से बैठती थीं, वे अपनी मर्जी से दूसरी, तीसरी या उससे भी अधिक बार शादी कर सकती थीं.’

बागलिंगा करीब आठ सौ लोगों की आबादी वाला गांव है, जो मेलघाट पहाड़ी पर तहसील मुख्यालय चिखलदरा से पैंतीस किलोमीटर दूर है. इस गांव में आपको कोरकू समुदाय की सरल, सहज और समृद्ध जीवनशैली की झलक दिखाई देगी.

लेखक अपनी किताब में विस्थापन का दंश झेल रहे लोगों की व्यथा को कुछ इस तरह बयां करते हैं-

”जो तिनका-तिनका जोड़कर
जिन्दगी बुनते थे
वो बिखर गए.
गांव-गांव टूट-टूटकर
ठांव-ठांव हो गए.
अब उम्मीद से उम्र
और छांव-छांव से पता
पूछना बेकार है.”

‘एक देश बारह दुनिया’ के माध्यम से लेखक आपको एशिया की सबसे बड़ी देह-मंडी मुंबई के कमाठीपुरा भी ले जाते हैं. जहां वे आपको तंग गलियों में ‘पिंजरेनुमा कोठरियों में जिंदगी’ की अमानवीयता से रूबरू कराते हैं और नेपाल से बहला-फुसलाकर लाई गई ‘बेला’ और उस जैसी अन्य जिंदगियों की सच्ची दस्तानों से साक्षात्कार भी कराते हैं.

”इस पिंजरेनुमा कोठे की सबसे आखिरी कोठरी में रोशनी क्यों नहीं है?” इस सवाल का जवाब जब आठ साल की ‘गोमती’ देती है तो हमारी संवेदनशीलता उसी अंधेरी कोठरी में मुंह छुपा लेती है.

शिरीष खरे ने ‘अपने देश में परदेसी में’ महाराष्ट्र के ही कनाडी बुडरुक गांव ले जाते हैं. इस गांव में घुमंतु जनजाति तिरमली लोग रहते हैं. तिरमली लोग नंदी बैल पर महादेव शंकर की मूर्ति लेकर गांव-गांव, शहर-शहर भटककर अपना पेट पालते हैं. सामाजिक और न्याय तंत्र में इस जनजाति को कोई जगह नहीं मिली है. इसलिए इन्हें सरकार की किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल पाया है.

इस किताब को पढ़ते समय आप भारत की कई दुनियाओं को करीब से देख पाएंगे. ऐसे समय हो सकता है कि इसी तरह के कई दृश्य और प्रसंग आपके आसपास से होकर गुजरे हों, लेकिन आपने उन्हें महसूस नहीं किया हो. ये किताब आपको इन्हीं जिंदगियों को महसूस करने की दृष्टि देगी.

शिरीष मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और तेलंगाना में बसी अनेक दुनियाओं में भी ले जाते हैं और नर्मदा अंचल में एक ऐसा दृश्य खींचते हैं-

काम से लौटी थकी एक गोंडनी मां
अपने चौथे बच्चे को बेधड़क दूध पिला रही है

देवदूत, परियां और उनके किस्से श्लोक, आयतें और आश्वासन
सब झूठे हैं
स्तनों से बहा
खून का स्वाद चोखा है

‘तीस रूपैया’
दिहाडी के साथ मिली ठेकेदार की अश्लील फब्तियों से अनजान है बच्चा
नींद में उसकी मुस्कान
नदी की रेत पर
चांदनी सी पसरी है

धरती पर बैठी देखती मां बेतहाशा चूमती है
उसके सारे दुख और सपने!

जमीनी पत्रकारिता से दूर होती जा रही मुख्यधारा की मीडिया को यदि भारत की वास्तविक तस्वीर देखनी हो तो उन्हें शिरीष की ‘एक देश बारह दुनिया’ जरूर पढ़नी चाहिए.

वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी भी लिखते हैं, ”इक्कीसवीं सदी के मेट्रो-बुलेट ट्रेन के भारत में विभिन्न प्रदेशों के वंचित जनों की ज़िंदगियों के किस्से एक बिल्कुल दूसरे ही हिन्दुस्तान को पेश करते हैं, हिन्दुस्तान जो स्थिर, गतिहीन है और बिल्कुल ठहरा हुआ है.”

लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर भी शिरीष की इस किताब के बारे में लिखते हैं, ”जब मुख्यधारा की मीडिया में अदृश्य संकटग्रस्त क्षेत्रों की जमीनी सच्चाई वाले रिपोर्ताज लगभग गायब हो गए हैं तब इस पुस्तक का संबंध एक बड़ी जनसंख्या को छूते देश के इलाकों से हैं जिसमें गांवों की त्रासदी, उम्मीद और उथल-पुथल की परत-दर-परत पड़ताल की है.”

पुस्तक: एक देश बारह दुनिया
लेखक: शिरीष खरे
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्स
पृष्ठ: 206
मूल्य: 295 रुपए

Shirish Khare

Tags: Books

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