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प्रेमचंद को समझने का प्रमाणिक सूत्र है पत्नी शिवरानी देवी की किताब 'प्रेमचंद घर में'

मुंशी प्रेमचंद की एक जीवनी उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने भी लिखी है 'प्रेमचंद घर में'.

मुंशी प्रेमचंद की एक जीवनी उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने भी लिखी है 'प्रेमचंद घर में'.

प्रेमचंद की संगत का ही असर था कि जो शिवरानी पढ़ी भी नहीं के बराबर थीं और जिनकी साहित्य में कोई रुचि भी न थी, वे साहित्य ...अधिक पढ़ें

    महेश दर्पण
    Premchand Ghar Mein: उपन्यास सम्राट प्रेमचंद (Munshi Premchand) के व्यक्तित्व के बारे में तमाम लोगों ने कलम चलाई है. खुद उनके बेटे अमृतराय ने 'कलम का सिपाही' नाम से मुंशी प्रेमचंद की जीवनी लिखी है. लेकिन एक जीवनी उनकी पत्नी शिवरानी देवी (Shivrani Devi) ने भी लिखी है 'प्रेमचंद घर में'. प्रेमचंद के व्यक्तित्व और उनके साहित्य को समझने के लिए यह एक प्रमाणिक सूत्र है. शिवरानी देवी, प्रेमचंद के साथ रहते हुए उनके जीवन की तमाम छोटी-बड़ी घटनाओं की साक्षी रही हैं.

    पत्नी द्वारा लिखी गई प्रेमचंद की जीवनी ‘प्रेमचंद घर में’ (Premchand ki Jivani) का पहली बार प्रकाशन हुआ सन् 1944 में. हिंदुस्तानी पब्लिशिंग हाउस ने सन् 1952 में इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया. आज इसका जो संस्करण उपलब्ध है, उसे रोशनाई प्रकाशन ने सन् 2005 में प्रस्तुत किया था. इसमें वर्तनी में कतिपय संशोधनों के साथ नुक्तों के प्रयोग से भी बचा गया है. इस संस्करण की एक विशेषता यह भी है कि इसमें अपनी नानी शिवरानी के बारे में प्रबोध कुमार ने एक नातिदीर्घ संस्मरण भी दिया है. कई अर्थों में महत्वपूर्ण यह संस्मरण यह जानकारी भी देता है कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण को लाते समय कुछ चीजें जोड़ी-घटाई भी गईं.

    यह काम कैसे और किस प्रक्रिया में हुआ होगा, यह इससे पता चलता है- ‘शिवरानी देवी लगभग रोज अपनी किताब के कुछ पन्ने मुझसे पढ़वातीं और बीच-बीच में टोककर कहीं कोई शब्द तो कहीं दो-एक वाक्य बदलवा देतीं. कभी-कभी ऐसी फेर-बदल इतनी अधिक हो जाती कि मुझे पूरा का पूरा पन्ना अपने हाथ से लिखना पड़ जाता. इस काम में कई महीने लग गए थे.’

    दरअसल, कई प्रकार के गतिरोध आते रहे और शिवरानी जी उनमें व्यस्त हो जायें. खासकर जब कभी उनकी बेटी अर्थात प्रबोध कुमार की मां कमला देवी का जिक्र आता, तो शिवरानी पढ़वाना रोक उन्हें पत्र लिखवाने लगतीं. यह बेटी- कमला उनकी सबसे बड़ी संतान थीं.

    प्रबोध कुमार को यह भी नानी ने ही बताया था कि प्रबोध नाम मुंशी प्रेमचंद का रखा हुआ है. यह वही प्रबोध कुमार हैं, जिनके पिता वासुदेव प्रसाद श्रीवास्तव सन् 1942 के आंदोलन में जेल चले गये तो यह और इनके बड़े भाई विनोद कुमार बनारस में नानी के साथ ही रहने लगे.

    यह संस्मरण बताता है कि महात्मा गांधी की मृत्यु के उपरांत बनारस में एक शोक सभा हुई थी, जिसमें शिवरानी जी के साथ प्रबोध कुमार भी मंच पर ही बैठे थे. वहीं कमलापति त्रिपाठी को शिवरानी देवी ने अभद्र व्यवहार के लिए डांट दिया था. प्रबोध कुमार ने यह भी जाहिर किया है कि शिवरानी अपना लेखकीय नाम शिवरानी देवी प्रेमचंद ही मानती थीं.

    क्यों लिखी होगी प्रेमचंद की पत्नी ने यह पुस्तक?
    दो शब्द में वह साफ़ कहती हैं- ‘इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य उस महान आत्मा की कीर्ति फैलाना नहीं है. जैसा कि अधिकांश जीवनियों में होता है.’ वह यह भी कहती हैं कि यह पुस्तक साहित्यिक आलोचकों को भी प्रेमचंद-साहित्य समझने में मदद पहुंचायेगी क्योंकि उनकी आदमियत की छाप उनकी एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द पर है.

    कदम-कदम पर रचना-संदर्भ
    आपने यदि प्रेमचंद की रचनाएं पढ़ी हैं, तो इस पुस्तक को पढ़ते हुए आप अनेक रचनाओं की जड़ों तक आसानी से पहुंच सकते हैं. प्रेमचंद ने पत्नी (Premchand wife Shivrani Devi) को अपने बचपन के बारे में खुद काफी कुछ बताया-सुनाया था. प्रेमचंद को कहानियां सुनाने का काम पहलेपहल उनकी दादी ने किया था.

    बचपन में वह गुल्ली डंडा खूब खेलते थे. इस खेल के प्रति उनमें लगाव बहुत बाद तक बना रहा. ज़रा याद कीजिए उनकी कहानी ‘गुल्ली-डंडा’, जिसमें वह इसे सब खेलों का राजा बताते हुए गुल्ली-डंडा बनाने के काम में नज़र आने वाले उत्साह, लगन, खिलाड़ियों के जमघट, पदना और पदाना, लड़ाई-झगड़े और समभाव का अभिमानरहित चेहरा दिखाते हैं.

    ‘हंस’ में ‘गुल्ली-डंडा’ फरवरी 1933 में प्रकाशित हुई हिन्दी में और उर्दू में ‘वारदात’ में इसका प्रकाशन हुआ सन् 1938 में हुआ था.

    गुल्ली-डंडा की ही तरह उन्हें पतंग का भी बड़ा चाव रहता. खुद कहा है उन्होंने- ‘मुझे पतंग उड़ाने का शौक था, मगर पैसे पास न थे. विजय बहादुर और मैं बाले मियां के मैदान की ओर जाते और वहां कनकैयों को देखते रहते. जहां कनकैया गिरी कि टूटी डोर मिल जाती. तब मैं अपना शौक पूरा करता.’

    शिवरानी देवी प्रेमचंद (Shivrani Devi Premchand) की यह विशेषता है कि वह अपनी इस पुस्तक में अनावश्यक विस्तार में कहीं नहीं जातीं. हां, जब-तब रचना संदर्भ के सूत्र जरूर देते चलती हैं. प्रेमचंद के जरिए ही वह जान पाती हैं- ‘मुझे जब छुट्टी मिलती, तंबाकू वाले की दुकान पर चला जाता, क्योंकि घर पर कोई भी दिलचस्पी न थी. वहीं मुझे लिखने का भी शौक हुआ. मैं लिखता और फाड़ता, लिखता और फाड़ता. कभी-कभी मेरे पिताजी हुक्का पीते-पीते मेरी कोठरी में भी आ जाते थे. जो कुछ मैं लिखकर रखता, वे देख लेते और पूछते, ‘नवाब कुछ लिख रहे हो?’ मैं शर्माकर गड़ जाता. मगर इस विषय में पिता जी को कोई दिलचस्पी न थी. क्योंकि एक तो उन्हें काम के मारे छुट्टी न मिलती थी, दूसरे इस विषय के वे जानकार भी न थे. मैं रात को चाहे जहां रहूं, उन्हें इससे कोई बहस नहीं.’ यह विवरण गोरखपुर प्रवास का है.

    रामलीला और जीवन
    प्रेमचंद के पड़ोस में ही रामलीला होती थी. उन्हें रामलीला के राम, सीता, लक्ष्मण बहुत अच्छे लगते थे. बकौल प्रेमचंद- ‘मेरे पास उस समय जो भी चीज़ रहती, मैं राम के लिए लेकर दौड़ता. पैसे भी जो रहते, उन्हीं को दे आता. वे अगर मुझसे बात करते तो मैं सातवें आसमान पर पहुंच जाता. बड़ी खुशी होती थी. मैं भी कैसा भौंदू था. आजकल के बच्चे मुझसे ज्यादा चालाक होते हैं...’

    शिवरानी ने प्रेमचंद की भाषा को ज्यों का त्यों रखा है यहां. बचपन की ये स्मृतियां इतनी मार्मिक हैं कि बरसों बाद ‘रामलीला’ जैसी कहानी प्रेमचंद ने लिखी. कौन संवेदनशील पाठक होगा जो इस कहानी के अंत तक आते-आते भीग न गया हो. ज़रा इसके वाचक की श्रद्धा तो देखिए- ‘रामचन्द्र पर मेरी कितनी श्रद्धा थी! अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिससे वह फेल न हो जायं. मुझसे उम्र में ज्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे.’ और आकर्षण कैसा था कि नौका पर बैठे रामचन्द्र का मुंह फेरे चले जाना दुख दे जाता था.

    कहानी में वेश्याओं द्वारा महफिल में वसूली के प्रयास का प्रकरण और आबादीजान व चौधरी साहब के संवाद में हिसाबबाजी खुलती है तो दुनियादारी की कलई खुल जाती है. कथा का वाचक अनेक प्रसंगों में अपने पिता की आलोचना भी खूब करता है. जो पिता पुलिस वाला होने के दंभ में आरती में कुछ चढ़ाए बगैर ही आरती उतार लेते हैं, वह आबादीजान को एक अशरफी चढ़ा देते हैं. वाचक उनके घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार पर खुश होने को सहन नहीं कर पाता.

    कहानी रामलीला के बहाने समाज की सम्यक आलोचना करती है. पता चलता है कि चौधरी साहब रामचन्द्र जी को बगैर कुछ दिए ही विदा कर देते हैं- ‘...इस वक्त बचत में रुपये नहीं हैं. फिर आकर ले जाना.’ वाचक और रामचन्द्र का पात्र निभाने वाले कलाकार का संवाद जो सच सामने रखता है, उससे मन खराब हो जाता है. वाचक बताता है- ‘मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लूं. वेश्याओं के लिए रुपये, सवारियां सब कुछ, पर बेचारे रामचन्द्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं!’



    जब प्रेमचंद पर चला मुकदमा
    प्रेमचंद का यह दैनिक व्यवहार ही था कि सुबह उठना, कुछ खा-पीकर साहित्य सेवा करना. बाद में तो वह रात के वक्त भी चुपके से उठकर लिखने लग जाते. पढ़ाई के चलते ही उनका एक छोटा उपन्यास ‘कृष्णा’ प्रयाग से प्रकाशित हो गया था. दूसरा उपन्यास ‘प्रेमा’ जिस वर्ष छपा, यही शिवरानी से विवाह का वर्ष भी था. आगे चलकर इस उपन्यास का शीर्षक ‘विभव’ हो गया. शादी के एक वर्ष बाद ही ‘सोजे़वतन’ का प्रकाशन हुआ, जिस पर मुकदमा चला.

    शिवरानी से हुए संवाद में प्रेमचंद बताते हें- ‘कलेक्टर ने पूछा, यह किताब तुम्हारी लिखी है? मैंने कहा, हां. उसे पढ़कर मैंने सुनाया भी. सुनने के बाद वह बोला- अगर अंग्रेजी राज में तुम न होते तो आज तुम्हारे दोनों हाथ कटवा लिए गए होते. तुम कहानियों द्वारा विद्रोह फैला रहे हो. तुम्हारे पास जितनी कॉपियां हों, उन्हें मेरे पास भेज दो. आइंदा फिर कभी लिखने का नाम भी न लेना.’

    कल्पना कीजिए कि जिस पत्नी की, शादी से पहले साहित्य में रुचि न के बराबर हो, जो उर्दू भी न जानती हो, वह कहे कि ‘आपने कभी सुनाया भी नहीं...’

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    प्रेमचंद पर अनगिनत शोध हुए होंगे, किंतु जितनी प्रामाणिक व सूत्र-शैली में शिवरानी की लेखनी ‘प्रेमचंद घर में’ चली है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यह पुस्तक बताती है कि सन् 1913 के लगभग प्रेमचंद ने हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया. यहीं से कभी उर्दू का हिन्दी में तो कभी हिन्दी का उर्दू में अनुवाद प्रारंभ हुआ. प्रेमचंद का ‘सोजे़वतन’ 1909 में प्रकाशित हुआ था. यदि प्रेमचंद के आत्मकथ्य को आधार माना जाए, तो उनका उपन्यास 1902 में और दूसरा 1904 में प्रकाशित हुआ. इसी वर्ष संभवतः शिवरानी जी से उनका विवाह भी हुआ.

    संवाद भर नहीं
    यह पुस्तक ‘मैं बोली-आप बोले’ के संवाद भर नहीं हैं. यहां प्रेमचंद स्वीकार करते दिखते हैं कि ‘अजी तुम्हारे साथ मेरी पहली शादी हुई होती तो मेरा जीवन इससे आगे होता.’ पहले विवाह पर अधिक नहीं, पर प्रेमचंद बहुत साफ कहते हैं- ‘मेरे पिता को मालूम हुआ कि मेरी बीवी बहुत बदसूरत है. बेहयायी की हरकत उन्होंने बाहर ही देख ली. यह मेरी शादी चाची के पिता ने ठीक की थी. पिता जी चाची से बोले- ‘लाला जी ने मेरे बेटे को कुएं में ढकेल दिया. अफसोस, मेरा गुलाब-सा लड़का और उसकी यह स्त्री! मैं तो इसकी शादी दूसरी करूंगा.’ कानपुर में विवाह हुआ था. तब तीस रुपये के मास्टर थे प्रेमचंद, और दस रुपये की ट्यूशन भी कर ली थी. पहली पत्नी के बाद शादी हुई शिवरानी से, जिनका प्रथम विवाह महज़ ग्यारह बरस की उम्र में हो गया था. तीन-चार माह बाद ही वह विधवा हो गई थीं. बाद में पिता ने इश्तहार निकाला, जिसे प्रेमचंद ने भी पढ़ा. उन्होंने शिवरानी के पिता को पत्र लिखा- ‘मैंने यहां तक पढ़ा है और मेरी इतनी आमदनी है...’

    शिवरानी लिखती हैं- ‘मुझे यह भी नहीं मालूम कि मेरी शादी कहां हो रही है. मेरी शादी में आपकी चाची वगैरह किसी की राय नहीं थी. मगर यह आपकी दिलेरी थी. आप समाज का बंधन तोड़ना चाहते थे. यहां तक कि आपने घरवालों को भी खबर नहीं दी.’

    ‘प्रेमचंद घर में’ के अनुसार शिवरानी-प्रेमचंद का विवाह फागुन में हुआ और चैत्र में प्रेमचंद सब डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए. उनकी इच्छा थी कि पत्नी घर की मालकिन बनकर उन पर शासन करें. वह उनसे पर्दा छोड़ने को कहते.

    शिवरानी बताती हैंः प्रेमचंद हरदम काम करते रहते, जैसे काम करने के लिए ही पैदा हुए हों. काम के साथ-साथ ही बस्ती में उन्होंने एफ. ए. पास किया. वह रात-रातभर पढ़ते और जिस वक्त शिवरानी सो ही रही होतीं, उनके कई काम कर डालते. काम की धुन में अंतिम दिनों में भी प्रेमचंद अपने रोग को भुलाए रहते! रोग तो उन्हें मुंबई से ही लग गया था. फिर भी वह बीमारी में कभी बैठे नहीं रहे. खून की कै का सामना करते हुए भी ‘मंगलसूत्र’ लिखने में लगे रहते.

    प्रेमचंद ने अपनी बेटी का नहीं किया कन्यादान
    बेटी के लिए पति की खोज पूरी जिम्मेदारी से की और जब भावी दामाद का पत्र पाया तो खुश हो गए- ‘शादी मुझे मंजूर है. इसका ख्याल रहे कि जिस घर में मेरी शादी हो, वह घर दिवालिया न किया जाए. क्योंकि शादी-ब्याह एक दिन का रिश्ता नहीं.’ बेटी की शादी में प्रेमचंद ने कन्यादान नहीं किया, यह काम शिवरानी को करना पड़ा.

    ‘मैं बोली- अभी कन्यादान तो आपको करना ही होगा. आप बोले- कन्यादान कैसा? बेजान चीज़ दान में दी जाती है. जानदार चीज़ों में तो गौ ही दी जा सकती है. फिर लड़की का दान कैसा? यह मुझे पसंद नहीं. ...तुमको करना हो करो. मैं नहीं करूंगा.’

    गांधीजी का प्रभाव
    जिस काम में मन न होता, उसे न करते. 25 वर्ष की सरकारी नौकरी छोड़ने का फैसला प्रेमचंद ने शिवरानी की सहमति से ही किया था. प्रेमचंद पर तो था ही, शिवरानी पर भी गांधी जी का बड़ा प्रभाव था. जिस वर्ष गांधी जी गोरखपुर आये, उसी वर्ष उन्होंने जेवर न पहनने की कसम खाई तो अंत तक निभाई. प्रेमचंद पर गांधी का प्रभाव वैचारिक तो था ही, वह उनके चर्खा-दर्शन से भी बड़े प्रभावित थे. यही कारण है कि वह पोद्दार जी के साझे में चर्खे की दुकान खोलना तय करते हैं. बाकायदा दस चर्खे लगाकर काम शुरू कया गया. देहात से बनकर चर्खे आते और बेचे भी जाते.

    शिवरानी के साथ प्रेमचंद का बरताव बड़ा दोस्ताना था. वह उनके लिए वह कोई भी काम कर देते, स्त्री-पुरुष का भेद न रखते. देखिए- ‘जब मैं खाना पका चुकती, तो मुझे लिए हुए वे अपने कमरे में जाते. मुझे पढ़ने के लिए कोई अच्छी चीज़ देकर तब आप लिखना शुरू करते...‘लीडर’ रोज़ मुझे पढ़कर सुनाते. हिन्दी में अनुवाद कर मुझे सुनाते जिसमें मैं अंग्रेजी न जानने की चिंता न करूं. ...मैं कभी उर्दू और अंग्रेजी न पढ़ पाने के कष्ट का अनुभव न करती. ...मुझे शहर में ही अगर कहीं जाना होता, तो मेरे साथ वहां तक जाते, दरवाजे तक मुझे पहुंचाकर वापस आ जाते.’

    पत्नी के नाम ‘प्रिय रानी’ संबोधन से लिखे उनके पत्र बड़े सहज हैं. अंत में लिखते- तुम्हारा धनपत (या धनपतराय). अक्सर दोनों के बीच अनेक विषयों पर बातें होतीं, जिनमें शिवरानी कहीं न दबतीं. उनके गुस्से का जवाब प्रेमचंद हंसी से देते. वह उन्हें भोंदू कहतीं तो प्रेमचंद कहते पागल, पागलराम या पगली.

    प्रेमचंद ने बताए अपने राज
    इस पुस्तक में प्रेमचंद का पत्नी से आत्मस्वीकार अद्भुत है जो अंतिम दिनों में किया गया. ‘देखो, तुमसे अपनी एक चोरी का हाल बताऊं’ कहकर बोले- ‘उस बंगाली युवक को तुम्हारी जान में जो दिया था सो तो दिया ही था. अपनी बीवी के जेवर और कपड़े भी उसने मेरी ही जमानत पर लिए थे. उस रुपये को तुम्हारी चोरी से मैंने अदा किया.’ यह रुपये प्रेमचंद ने पत्नी को बगैर बताये जो कहानियां लिखीं, उनके पैसे से अदा किए. यही नहीं, प्रेमचंद ने अपनी एक और चोरी सुनाई- ‘मैंने अपनी पहली स्त्री के जीवन काल में ही एक और स्त्री रख छोड़ी थी. तुम्हारे आने पर भी उससे मेरा संबंध था.’

    बात यहीं तक न थी, शिवरानी को यह मालूम था पर उन्होंने कभी उनसे इसका जिक्र तक न किया. उस रोज जब प्रेमचंद को यह सचाई पता चली, तो कहने लगे, ‘तुम हृदय से सचमुच मुझसे बड़ी हो.’

    ‘हंस’ जब नुकसान अधिक देने लगा, तो उसे ‘हिन्दी परिषद’ को दे दिया गया. महात्मा गांधी के हाथों दस महीने तक रहा और फिर परिषद ने इसे बंद कर दिया. प्रेमचंद को ‘हंस’ का बंद न होना बर्दाश्त न हुआ. उन्होंने शिवरानी से एक हजार जमा करा कर फिर से ‘हंस’ जारी करने को कहा.

    हरदम ‘हंस’ और ‘जागरण’ के काम में व्यस्त रहने वाले प्रेमचंद को यह ख्याल बराबर रहता कि बेटी को आम पसंद हैं. उसके पास मौसम में वह आम पहुंचवाकर ही मानते. अपने और पति के रिश्ते की सहजता को शिवरानी ने बड़ी कुशलता से चित्रित किया है. नई बनियाइन पहनकर अंतिम सलाम करना हो या यह इहलाम हो जाना कि अब जाने का वक्त आ गया है. लिखती हैं- ‘उन्होंने समझा मैं सो गई हूं. उस वक्त एक मिसरा खुद पढ़ रहे थे- खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं.’

    पति के जाने के बाद का अहसास बड़ी मार्मिक भाषा में आता है. यह एक जीवन-साथी की वेदना है- ‘वह महान सबके लिए कुछ भी रहे हों, मेरे तो अपने थे और मैं उनकी थी. हम दोनों के बीच में महानता कहां ठहर सकती है? क्योंकि जहां घनिष्ठता हो जाती है, वहां महानता नहीं रहती, क्योंकि अपनापा उससे भी बड़ी चीज है. इसीलिए वह उसके बीच में रहना नहीं
    चाहती.’

    पति को याद करते हुए शिवरानी जो बातें प्रेमचंद के बारे में, उनके व्यवहार और प्रवृत्ति या विचार के बारे में बताती हैं, उनमें भी उनके कथा-चरित्रों का बीज-व्यवहार खुलता है. जैसे वह चाहते थे कि स्त्री में स्त्रीत्व ही नहीं, बल्कि मातृत्व होना चाहिए. जब तक वह भाव न हो, तब तक किसी से प्यार, पालन कुछ भी संभव नहीं. जब तक इंसान अंधेरी रात न देखे तब तक रोशनी की वकत उसे कैसे मालूम हो. वह जो कुछ कहते, उस पर स्वयं भी अमल करते.

    शिवरानी जी ने एक प्रसंग महोबा का लिखा है- वहां किसी भी अफसर के माथे पर तिलक लगाकर वह रुपया देते हैं. प्रेमचंद उनसे दही-अक्षत तक तो लगवा लेते थे. ‘बस पान उठाकर मुंह में डाला, गले मिले. रुपये के लिए आप कहते थे- मुझे माफ कीजिए. अगर उसने कहा कि यहां का नियम है, तो बड़े ही मीठे शब्दों में कहते थे- नहीं साहब, यह मेरा सिद्धांत नहीं है, इसके लिए आप मुझे क्षमा करें.’

    शिवरानी ने रोज़मर्रा की सहज, सरल, निष्कुंठ बातों के बीच से जैसे प्रेमचंद को साकार कर दिया है. उनका विचारचेता रूप आम बातचीत में भी सामने हो आता है. पत्नी से साफ-साफ कहते नजर आते हैं- ‘तुम सच मानो, जो भी आज धर्म के नाम पर हो रहा है, सब अंधविश्वास है. यह सब मूर्खों को बहकाने के तरीके हैं. तुम खुद सोच सकती हो, यह सब स्त्रियों पर मायाजाल चलता है. इसी का नाम अंधविश्वास है.’

    आंखों देखे व्यवहार प्रेमचंद के लिए प्रायः कहानी के विषय बने. उनकी एक कहानी ‘बेटों वाली विधवा’ का उत्स भी ऐसा ही है. शिवरानी ने अपने बहनोई का जिक्र करते हुए कहा है- ‘मेरे बहनोई ने दूसरी शादी की, उनके यद्यपि पहली बीवी से बच्चे थे. उन्होंने दूसरी शादी कर ली और सारी संपत्ति दूसरी बीवी के नाम कर दी. कोई तीन लाख की संपत्ति उनके पास थी.’

    इस प्रसंग पर शिवरानी और प्रेमचंद में विवाद हुआ. स्वस्थ विवाद रचनात्मक होता है, अतः यह इस कहानी की जमीन बना. जमीन ज़रूर बना, पर इसे और मजबूती एक दूसरी घटना से मिली. हुआ यह कि प्रेमचंद के यहां एक बूढ़ी नौकरानी इसलिए काम करती थी कि उसके चार बेटों और एक बेटी के होते हुए भी कोई उसे खिला न सकता था. महीना पूरा होता और एक लड़का आकर उसकी तनख्वाह ले जाता. प्रेमचंद को यह बुरा लगता.

    शिवरानी से इस बारे में चर्चा हुई तो उन्होंने पति को ‘बेटों वाली विधवा’ की याद दिला दी. पर प्रेमचंद ने अपनी धारणा और स्पष्ट रखते हुए कहा- ‘मान लो कोई आदमी अपनी स्त्री के रहते दूसरी स्त्री से शादी कर लेता है और पहली की बात तक नहीं पूछता. दिल में यह मानता हो कि मर जाए तो अच्छा है. तुम्हीं बताओ उसके जीवन में क्या है? उसको तुम सुखी समझती हो... मैं उसे ही सुखी समझूंगा जिसका पति मर गया है. कम से कम उसमें जो प्रेम था, अपनापा था, वह तो उसके साथ है.’

    प्रेमचंद मजदूरों के पक्षधर थे. एक बार शिवरानी ने पूछा कि मान लो स्वराज जल्दी ही हो जाए, तब आप किसका साथ देंगे? जानते हैं, उनका जवाब क्या था? उनका कहना था- ‘मजदूरों और काश्तकारों का. मैं पहले ही सबसे कह दूंगा कि मैं तो मजदूर हूं. तुम फावड़ा चलाते हो, मैं कलम चलाता हूं. हम दोनों बराबर ही हैं. उन्हें रूस की स्थिति देख कर खुशी होती थी, जहां गरीबों का आनंद था. वह सोचते थे स्वराज मिलते ही भारत में भी ऐसा ही होगा. उन्हें भरोसा था कि रूस वाले लोगों की शक्ति हम लोगों में आ जाएगी.

    ‘प्रेमचंद घर में’ अनेक प्रसंग ऐसे आते हैं जहां प्रेमचंद को हम मजदूरों के पक्ष में खड़ा पाते हैं.

    शिवरानी इस बात से परेशान थीं कि म्यूनिसपैलिटी से रंडियों को निकाले जाने का प्रस्ताव पास हो गया. वह सोचने लगीं- अब इनका क्या होगा? वह चाहती थीं कि प्रेमचंद उस पर कुछ लिखें. प्रेमचंद ने साफ़ कर दिया- ‘लिखने के मामले में तो मैं कभी पीछे नहीं रहा हूं. इन्हीं की गुत्थियां सुलझाने के लिए तो मैंने ‘सेवा सदन’ लिखा. और भी कहानियां और लेख लिखे हैं. अमल करना न करना तो उन लोगों के हाथ में है.

    शिवरानी देवी की पहली कहानी
    उनकी संगत का ही असर था कि जो शिवरानी पढ़ी भी नहीं के बराबर थीं और जिनकी साहित्य में कोई रुचि भी न थी, वे साहित्य की ओर अग्रसर हुईं. जब भी प्रेमचंद घर पर होते, वह उनसे कुछ पढ़ने का आग्रह करतीं. वह उन्हें पढ़कर सुनाते. धीरे-धीरे शिवरानी का मन भी कहानी लिखने का करने लगा. उनकी पहली कहानी ‘साहस’, ‘चांद’ पत्रिका में प्रकाशित हुई जिसके संपादक आर. सहगल थे. शिवरानी की कोशिश रहती कि उनकी कहानी प्रेमचंद के अनुकरण पर न जाए.

    शिवरानी की कहानियों का अनुवाद होता, तो प्रेमचंद बड़े खुश होते. कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि पति-पत्नी, दोनों से कहानियां प्रकाशनार्थ मांगी जातीं. शिवरानी की एक कहानी ‘कुर्बानी’ की तो खूब प्रशंसा हुई. समय की मांग के अनुरूप शिवरानी सक्रिय आंदोलनकारी बन गईं और जेल पहुंच गईं तो यह सब भी प्रेमचंद का अप्रत्यक्ष प्रभाव ही था.

    ‘प्रेमचंद घर में’ लिखते हुए शिवरानी स्मृति के महत्व को रेखांकित करना नहीं भूलतीं- ‘मेरे स्वामी ने कहा था कि स्थाई चीज़ स्मृति ही होती है और कुछ नहीं होता.’ पुस्तक में दैनिक संवाद से उभरी स्थाई महत्व की बातें इसीलिए कदम-कदम पर उतरती चली गई हैं. चाहे कहानी ‘मोटेराम शास्त्री’ का संदर्भ हो या ‘गोदान’ का प्रकाशन काल.

    1926 में जब प्रेमचंद की कहानी ‘मोटेराम शास्त्री’, ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुई, तो शास्त्री जी ने दोनों संपादकों (प्रेमचंद व कृष्णबिहारी मिश्र) पर मुकदमा कर दिया. दोनों संपादक बरी हो गए पर ‘माधुरी’ का समूचा अंक बिक गया.

    ‘गोदान’ का प्रकाशन काल था जब 1935 में प्रेमचंद आखिरी बार गांव गए. शिवरानी इस अंतिम गांव जाने का मार्मिक चित्रण करती हैं. कहते हैं, प्रेमचंद को गांव जाने का लोभ अंत तक बना रहा.

    ‘प्रेमचंद घर में’ ऊपर तौर पर भले ही घरेलू संस्मरणों पर आधारित पुस्तक लग सकती है, किंतु यह एक ऐसी प्रामाणिक खिड़की बन गई है जिससे झांककर हम प्रेमचंद को भीतर-बाहर से बखूबी समझ सकते हैं. यहां उनका साहित्यिक व्यक्तित्व तो अपनी पूरी सोच के साथ बड़ी सहजता में उजागर होता ही है, उनकी मानवीय छवि भी पूरे वेग से सामने हो आती है.

    मुझे नहीं लगता कि पूरे भारतीय साहित्य में किसी लेखक की पत्नी ने ऐसी संलग्नता से कोई पुस्तक अपने पति पर या किसी पति ने अपनी लेखिका पत्नी पर लिखी हो. पति-पत्नी की बातचीत में दूसरों का साहित्य भी स्वतः प्रवेश कर जाता था. युवक-युवतियों का आलम देखकर शिवरानी ने जब एक दिन सुदर्शन जी की उस कहानी का प्रसंग छेड़ा जिसमें एक व्यक्ति अपने बेटे को मजदूरी की कीमत समझाने का संदेश देता है, तो उस पर एक अच्छा-खासा संवाद हो जाता है और व्यवस्था बनाए रखने की जरूरत तक बात आ जाती है.

    शिवरानी से बातचीत के दौरान प्रेमचंद अनेक बातें ऐसी कह जाते, जो फिर उनके जे़हन में अटकी रह जातीं. जैसे एक बार उन्होंने कहा- ‘जिसको आदमी कर्तव्य समझ लेता है, उसको करने में आराम या तकलीफ नहीं होती.’ काम में वह व्यक्ति की अपनी खुशी को महत्वपूर्ण बताते थे. वह भाषा को देश के लिए बहुत महत्व का मानते थे. हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तानी और आम आदमी की भाषा का मसला भी पति-पत्नी के बीच सहज बातचीत में ऐसे खुलता है कि प्रेमचंद-विचार का मूल और उनकी सर्वधर्मसमभाव की तहजीब भी जाहिर हो जाती है. दोनों के बीच बाकायदा वाद-विवाद होता और किसी अनसुलझी पहेली का हल निकल आता!

    शिवरानी को इस बात की अखरन बहुत रही थी कि वह उस महान आदमी को पहचान न सकीं. खुद में ही कमी बताते हुए वह कहती हैं- ‘महान आत्माओं को पहचानने के लिए अपने में जोर चाहिए, ताकत चाहिए. ...मैं तो अपने पागलपन में मस्त थी. मैं तो उन्हें अपनी चीज़ समझती थी,..उनके समान भला मैं हो सकती थी!’

    प्रेमचंद के गुज़र जाने के बाद कई मित्रों ने शिवरानी देवी को ‘हंस’ बंद करने की सलाह दे डाली. पर उनका मन न माना. उन्होंने कहा- ‘भाई मैं इसको नहीं छोड़ सकती... मेरे पति पिता होकर ‘हंस’ को न छोड़ सके, तो मैं तो मां हूं. और मां शायद बेकार और निकम्मे बेटे को, फिर ऐसी हालत में जब उसका पिता न हो सबसे ज्यादा प्यार करती है. ...यही हालत मेरी और ‘हंस’ की है. दरअसल, वह प्रेमचंदमय हो चुकी थीं. जीते जी चाहे जो उनसे कहती-लड़ती-विवाद करती रही हों, उनके जाने के बाद और अधिक उनकी हो गईं.

    Mahesh Darpan

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