राजेश जोशी की कविता में अपने समय की समझ है.
सुधीर रंजन सिंह (Sudhir Ranjan Singh)
Rajesh Joshi Birthday: राजेश जोशी की कविताओं को पढ़ना एक पीढ़ी और उसके समय से दस-पन्द्रह साल पीछे की कविता और उससे जुड़ी बहसों के बारे में सोचना और इतने ही साल आगे की कविता और उसकी मुश्किलों की ओर ताकना है. शायद इतना भर भी पर्याप्त नहीं है. क्योंकि राजेश ने जब कवि-कर्म आरम्भ किया और उसके तीन साल अनन्तर उनकी कविता को अलग पहचान मिली, उस समय तीन-चार पीढ़ियां और उससे कई गुना अधिक साहित्यिक-वैचारिक छवियां काव्य-परिदृश्य में उद्यत थीं.
कुछ थोड़े पुराने और कुछ बिल्कुल नए कवियों (Hindi Kavi) के बीच, उनके थोड़ा साथ होकर और थोड़ा उनसे अलग हटकर, राजेश (Kavi Rajesh Joshi) खड़े देखे गए. कुछ नए कवि पिछले दशक की चेतना से ही आविष्ट थे, तो कुछ राजेश की पहचान के इर्द-गिर्द थे. इनसे अलग के अधिकांश नए बिम्ब, और संवेदना वगैरह की दुनिया में अंधी दौड़ के लिए मजबूर थे. उनमें से शायद ही कोई हिन्दी कविता (Hindi Kavita) में बने रहने की ताकत दिखा सका हो. लेकिन कविता के नव-आगमन में उनकी भी भूमिका थी, इससे आज इनकार नहीं किया जाना चाहिए.
दिलचस्प रूप से राजेश जोशी की पीढ़ी की जिस आठवें दशक पर ख़ास दावेदारी मानी गई, उसमें नई कविता के अज्ञेय, नरेश मेहता, शमशेर, भवानीप्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, प्रगतिवाद के नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और सातवें दशक के नई कविता-अकविता-नक्सल कविता से प्रभावित मलयज, चन्द्रकान्त देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, आलोक धन्वा, कुमार विकल, नीलाभ, लीलाधर जगूड़ी, वेणु गोपाल, विजेन्द्र, ऋतुराज, पंकज सिंह, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल आदि ऐसे कई नाम हैं, जिनका नया या पहला संग्रह प्रकाशित हुआ था.
दो-तीन साल के अन्तर पर कई कवियों के एक से अधिक संग्रह प्रकाशित हए. अधिकांश की पर्याप्त चर्चा हुई. हिन्दी कविता (Hindi Poems) की जैसे आकाशगंगा बन गई थी. उसमें राजेश और उनकी पीढ़ी के तरुण कवि अरुण कमल, उदय प्रकाश, मनमोहन, विष्णु नागर, विजय कुमार, असद जै़दी अपनी जोत दिखा सके, यह एक बड़ी बात थी. आगे के दो दशकों में इनके रास्ते पर चलकर कई कवि आगे आए. उनमें से कुछ ने अपेक्षित स्वीकृति भी अर्जित की. इनके रास्ते से अलग भी कुछ अच्छे कवि आए. ये दोनों प्रकार के कवि राजेश की पीढ़ी की समकालीनता से ही नत्थी करके देखे गए.
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हालांकि कविता के इतिहास की यह कोई नई संवृत्ति नहीं है. आखिर छायावाद की भी तो बढ़त अपने-अपने ढंग से उत्तर छायावाद, प्रगतिवाद और नई कविता में देखी गई थी. नई कविता भी सत्तर के दशक के कई कवियों में विस्तार पाती रही. खुद राजेश जोशी की भी पीढ़ी प्रगतिवाद का उत्तराधिकार पाकर आई थी. यह घोषित रूप से हुआ, लेकिन उसका अघोषित पहलू है कि उसमें नई कविता की आधुनिकता का भी आग्रह रहा है.
इससे अलग, उल्लेखनीय बात है कि सत्तर के दशक तक कविता अनेक आन्दोलनों के नाम से जानी गई, वह बात राजेश की पीढ़ी में आकर समाप्त हो गई. यह पूरा प्रसंग समकालीनता की जटिलता पर विचार के लिए आमंत्रित करता है. सत्तर के दशक में कुछ ऐसी बात पैदा हो गई थी कि उसी समय के प्रचलित पद 'अकविता' से, जिसे कविता का आखिरी आन्दोलन माना गया, 'कविता का अन्त' ध्वनित होता है. 'अन्त' का दूसरा सन्दर्भ नक्सल या अतिवामपन्थी कविता है. तीसरा सन्दर्भ है नई कविता का फैला हुआ रूप, जिसके कवि कायदे से नई कविता का प्रतिनिधित्व करने में असफल थे.
खुद नई कविता के कवि अज्ञेय, शमशेर आदि को 'क्लासिक्स' की कब्रगाह दिखा दी गई थी. यह पूरी स्थिति संक्रमण-सूचक थी, जो उस समय की राजनीतिक दशा के अनुसमर्थन में दिखाई पड़ रही थी. नेहरू युग की समाप्ति, चीन से पराजय के कारण अपनी निर्बलता का अहसास, कांग्रेस का अल्पमत में आ जाना, अतिवामपन्थ का उभार आदि ऐसे तथ्य हैं, जो पिछली कविताओं की दुनिया के शत्रु बनकर उपस्थित हो गए थे.
देश में जब जनतंत्र के बुरे दिन शुरू हुए थे, राजेश जोशी की पीढ़ी ने लिखना शुरू किया था. आपातकाल की भट्ठी में तपकर वह अनुभवतपा हुई. जनतंत्र की पुन: बहाली हुई तो उसमें से पांच-सात पहचाने जाने योग्य वयस्क चेहरे दिखाई पड़े. राजेश उनमें से उम्र के हिसाब से ज़्यादा वयस्क और कविता के हिसाब से ज़्यादा कमसिन लगते थे.
अपने प्रथम संग्रह 'एक दिन बोलेंगे पेड़' में पेड़, बच्चे, गेंद, प्याज, घोड़ा, बाल्टी पर जो उनकी कुछ कविताएं हैं, उसके आधार पर यही बात कही जा सकती थी. हालांकि उस 'कमसिन मासूमियत' के भीतर गहरी परिपक्वता छुपी हुई थी, उसे समझने की ज़रूरत आज भी थोड़ा बनी हुई है.
राजेश जोशी की शब्दावली में 'हारिजेंटल एक्सिस'–एक पसरा हुआ युग! सर्व जनसाधारण से आए चरित्र, मज़दूर, किसान, विद्यार्थी, लेखक, कलाकार-कविता में जीवन-जगत् की मामूली-नामामूली सच्चाइयों का स्वांग भरते हुए! सृजन का एक ऐसा वक्त, जहां समय ठहरने की इच्छा से पहुंचा हो!
राजेश जोशी की 'गेंद' कविता (Rajesh Joshi ki Kavita) की बड़ी गेंद की तरह, जिसे बच्चे ने हवा में उछाल दिया है, और वह एक क्षण के लिए सूरज को चुनौती देती हुई दिखाई पड़ती है.
कवि पूछता है सूरज से सूरज!/तुम्हारी उम्र/क्या रही होगी उस वक्त?
सूरज से गेंद की होड़ है. इसमें रोजमर्रा और उसके नियमों को चुनौती है. बच्चे के हाथ से उछाली हुई गेंद भविष्य का संकेत है. भविष्य कोई दूसरा समय नहीं, हमारी वर्तमान की क्रियाओं में निमग्न चेतना है.
प्रसंगवश यहां सुधीश पचौरी की उस धारणा का उल्लेख ज़रूरी है कि राजेश जोशी और उनकी पीढ़ी की कविता में 'यूटोपिया का अन्त' है. 'आधुनिक विकासवादी' यूटोपिया का अन्त सातवें दशक के 'मोहभंग' के अन्तर्गत हुआ. नक्सल आन्दोलन ने क्रान्तिकारी यूटोपिया को जन्म दिया, जो सुधीश पचौरी के शब्दों में 'अपनी अन्तिम मंजिल पर काव्य के विरोध में जा खड़ा हुआ.' काव्य-विरोधी यूटोपिया! बात सहृदय-जन को मर्माहत करने वाली है, फिर भी उसे ससन्दर्भ मान लेने में हर्ज नहीं है. लेकिन सातवें दशक में आधुनिक विकासवादी यूटोपिया का और आठवें में क्रान्तिकारी यूटोपिया का सचमुच अन्त हो गया–यह बात बहुत कम गले उतरती है.
राजेश जोशी के प्रथम संग्रह 'एक दिन बोलेंगे पेड़' में दो लम्बी कविताएं हैं 'सलीम और मैं और उनसठ का साल' नाम से. उनमें उनसठ के दंगे का आख्यान है, जब कवि तेरह-चौदह साल का रहा होगा. सलीम आठवीं जमात का उसका दोस्त. धुलेड़ी का दिन था और वह कोई शुक्रवार था, जिसकी हवा में अचानक डरावनी दुर्गन्ध फैल गई. दोनों दोस्त साथ थे.
–यह कैसी बास आ रही है?/मैंने पूछा था तुमसे/हवाओं में कबूतर मर रहे हैं–यह तुमने कहा था सलीम.
'हवाओं में कबूतर मर रहे हैं'–एक मर्मभेदी उत्तर! एक नेपथ्य की रचना, जो मंच को चीरकर प्रकट होती है–कितनी सारी भीड़/अचानक पैदा हो गई थी वहां/जैसे सड़कें फाड़कर निकल आए हों लोग/एकाएक जैसे फिर से जीवित हो उठी हों दफन सदियां/हवा में रोपती हुई चीखें और विलाप.
भीड़ की दानवी नीचता.
भीड़ और मनुष्य की संवेदना के विरोधाभास का इससे बड़ा उदाहरण कहां मिलेगा-
बच्चे मार डाले गए/फूल मार डाले गए/शब्द मार डाले गए/कि सर्राफा बच गया.
सर्राफा बच गया. कुछ नहीं बचा. आदमी भीड़ के नरक में प्रवेश कर गया. नारकीय गन्ध बच्चों के नथुनों में अफीम के फूलों की सुगन्ध बनकर प्रवेश कर गई. तीन क्रूर सप्ताहों के गुज़र जाने के बाद वही स्कूल, वही आने-जाने के दरवाज़े, वही बेंच; लेकिन सलीम और 'मैं', अब वही नहीं थे.
इस तरह, 'भावनात्मक एकात्मकता' का पाठ पढ़ाने वाले स्कूल में एक दूसरा पाठ शुरू हुआ–हम दो लंगोटिए यार/शहर के दो विपरीत ध्रुवों की ओर चले गए/दो विपरीत अंधेरों की ओर.
राजेश के पांचवें संग्रह 'चांद की वर्तनी' की पहली कविता है 'मैं झुकता हूं'. उसकी अन्तिम पंक्ति है–'कहावतें अर्थ से ज़्यादा अभिप्राय में निवास करती हैं.' इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है–कहावतें विडम्बना में निवास करती हैं. दोनों बातों के सहारे मैं कहना चाहता हूं कि 'अर्थ' राजेश जोशी की कविता में 'वर्तमान' का संकेतक है, 'अभिप्राय' संकेतित भविष्य है.
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हराजेश जोशी के पिछले दो संग्रहों में भाषा और व्याकरण से जुड़ी पहेलियां मुखर हुई हैं. यह बात संग्रहों के नाम से ही प्रकट है–'दो पंक्तियों के बीच', 'चांद की वर्तनी'.
स्वप्न का आकाश रचने की कला राजेश को लोककथाओं, स्मृतियों और शैशव-बिम्बों से मिली है. उनका पहला संग्रह 'एक दिन बोलेंगे पेड़' चर्चित ही इस विशेषता के कारण हुआ था. यह चेतना का स्वभाव है कि वह स्मृति-स्थलियों से पैदा होती है और किसी अनूठे लोक की रचना में भिड़ जाती है. उसके इस कार्य का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है कविता.
'सचमुच की रात', 'आखेट', 'मिट्टी का चेहरा', 'एक बार फिर', 'नींद'–कविता में दु:स्वप्न का सिलसिला. उसी क्रम में अगली कविता है 'उसके स्वप्न में जाने का यात्रा-वृत्तान्त'. इसी की पहले चर्चा करें.
स्वप्न की एक बड़ी उड़ान. पॉलीथिन की थैली में पूरे समुद्र को भरना, नाव को कंधे पर लाद लेना, चांद को कमीज की जेब में और सितारों को पतलून की जेब में रख लेना और कपड़े के जूते समेत स्त्री की नींद में प्रवेश करना; फिर शुरू होती है थैली में उतरकर नौका-यात्रा.
ढकते चले जाते हैं चुम्बनों से शरीर के सारे अंग. इसी बीच बादल चुरा ले जाते हैं इकट्ठी की गई सारी चीज़ों को. यानी एकाएक स्वर्ग गायब, और धमकी मिलती है झटपट तैयार होकर ऑफिस जाने की–'निकलना खुल्द के आदम का सुनते आए थे लेकिन...'
आदम का स्वर्ग से निष्कासन अ-लगाव (एलियनेशन) को दर्शाता है. राजेश की यह कविता भी भोला-दिल आदम के स्वर्ग में विचरण और उससे निष्कासन की कथा है. भोला-दिल होना 'पूर्णत्व' का सूचक नहीं है. दु:ख, ज्ञान और आत्मचेतना के द्वारा ही पूर्णत्व की दिशा में बढ़ना सम्भव है. आदम ने स्वर्ग-निकाला होने के बाद यही किया, और अधिक उत्कर्ष को प्राप्त किया. इस तरह 'अ-लगाव' का सम्बन्ध अतीत की पूर्णता से नहीं, भविष्य की पूर्णता से है.
अब दु:स्वप्नों की कविताएं. 'सचमुच की रात'.
''सूरज ने स्वप्न में देखा कि वह चांद है,
चांद ने स्वप्न में देखा कि वह करोड़ों तारे हैं;
रोटी हिरन होने के स्वप्न में डूबी है;
किसी चीते ने हिरन को दबोच लिया.
इसके बाद रात हो गई,
और किसी के पास कोई स्वप्न नहीं बचा.''
'आखेट' नाम की कविता. जो आदमी शिकार न खेलने के विचार पर कायम था, वही हिरनों का शिकारी हो गया. स्वप्न लोक की चांदनी रात हिरनों की चीत्कार से भर गई. 'सचमुच की रात' में स्वप्न ही बचा. 'आखेट' में थकान और दिन भर की रुलाई के कारण जो शिकारी नहीं था, उसके रक्त ने शिकारी पैदा किया. घोर अमानवीकरण! लेकिन क्या इसी वर्णन से यूटोपिया खत्म हो जाता है?
' राजेश की कविता–'सचमुच की रात,' जिसमें स्वप्न नहीं बचा, यह कहने में शामिल है कि सपनों को बचाओ–नए सपने पैदा करो. 'आखेट' कविता की अन्तिम पंक्ति–'हां देखी! वह हिरनों की चीत्कार!!' क्या इसका मतलब है आप ऐसी ही चीत्कारें देखने के लिए बचे रहें? ऐसा देखने में आपकी ही मृत्यु शामिल है.
काव्यभाषा ही है यह, जो मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष करती है, उसे अपने आवेग के द्वारा फूंक मारकर उड़ा देती है. चूंकि समाज अपराध में संलिप्तता पर आधारित है, इसलिए काव्य भाषा को ऐसा बार-बार करना पड़ता है.
राजेश जोशी मायकोव्स्की से प्रभावित कवि हैं; लेकिन उनके यहां यह बात नहीं है. उनके यहां तो 'न्यूट्रॉन बम' गिरने के बाद भी 'एक बार फिर' जीवन की खूबसूरती और स्वाद है-
चटनी से आ रही होगी
कैरी और ताजे पुदीने की गन्ध
बेचैन कर देगी जो
आदमी की भूख को
एक बार फिर.
यही 'गन्ध' जीवन में रस पैदा करती है और क्रूरता को नष्ट करने में नि:शब्द सक्रिय रहती है.
'मिट्टी का चेहरा' में पिछले संग्रह की बहुत-सी विशेषताएं मौजूद हैं–पेड़, तितलियां, पकता हुआ शहद.... लेकिन हवा में ऑक्सीजन की कमी हो गई है. भोपाल गैस त्रासदी को याद करें तो यह कमी ऐतिहासिक है. इसलिए करुणा अथवा 'दु:खभारावनता' के लिए स्थान बढ़ गया है तो वह भी ऐतिहासिक है. मैंने कभी पहले संग्रह को आधार बनाकर टिप्पणी की थी कि अकविता और नक्सल आन्दोलन की कविता में जो तोड़-फोड़ और बारूदी धमाका था, उसके बाद राजेश जोशी की कविताएं स्वच्छ ऑक्सीजन की तरह लगीं. जहां तक ऑक्सीजन का प्रसार-क्षेत्र है, उसके भीतर की गति और जीवन और अभिव्यक्ति की कविताएं दिखाई पड़ीं 'एक दिन बोलेंगे पेड़' में. ऑक्सीजन के प्रसार-क्षेत्र के कवि और भोपालवासी राजेश गैस कांड पर सफल शोकगीत नहीं लिखते और उस दौर की उनकी अन्य कविताओं में दु:खभारावनता नहीं दिखाई पड़ती, तो हमें आश्चर्य ज़रूर होता.
अवसरवश यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि राजेश जोशी ने अकविता और नक्सल कविता से अलग सन्दर्भ चुना, अलग भाषा गढ़ी, लेकिन उनके तेवर को नाजायज़ भी नहीं ठहराया. 'एक दिन बोलेंगे पेड़' में एक बारूदी रंग वाली चिडिय़ा है. वह उडऩा सीख गई है. यह बात पर्याप्त नहीं है. उसमें समझ भी होनी चाहिए. जो पिंजरा लाता है, जो जाल बिछाता है, उस पर उसकी नज़र भी होनी चाहिए. और यह भी कि–बारूद के रंग वाली चिड़िया/बारूद का स्वभाव भी सीख/उड़ना-गाना/तो ठीक/लेकिन/ताव खाना भी सीख.
चौथे संग्रह 'दो पंक्तियों के बीच' में एक कविता है 'ऐसा होता तो नहीं'. एक ऐसा समय आया है जिसमें चील पर सांप, शेर पर खरगोश हावी है. आंखवाले अन्धों के करिश्मे में फंस रहे हैं. उल्टी घूम रही हैं घड़ी की सुइयां. अन्त में है–'देश अपनी अस्मिता खो रहा है'. इसे धूमिल की 'पटकथा' की अन्तिम पंक्ति से मिलाकर पढऩे की ज़रूरत है–'...सारा का सारा देश/पहले की तरह आज भी/मेरा कारागार है.'
राजेश जोशी केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और केदारनाथ सिंह की परम्परा के कवि हैं तो यत्किंचित रघुवीर सहाय, धूमिल और आलोकधन्वा की परम्परा के भी कवि हैं. कविता की एक संश्लेषी परम्परा रही है, जिसके भीतर राजेश की सक्रियता देखी जा सकती है. इसी बात ने उन्हें खास पहचान दी और समकालीन कविता को भी. केदारनाथ सिंह का यह कथन बिल्कुल दुरुस्त है कि 'राजेश जोशी आज की कविता के उन थोड़े से महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं, जिनसे समकालीन कविता की पहचान बनी है.'
राजेश जोशी अपने काव्य-कर्म के अन्तर्गत हमेशा समकालीन इसलिए रहे कि उन्होंने इस दौर में ऐतिहासिक कंडीशन को समझने का प्रयास किया और आगे बढ़कर उसका रचनात्मक लाभ उठाया.
राजेश जोशी की कविता में अपने समय की समझ है. यह बात कवि के स्वभाव में जो थोड़ी-सी आवारगी रही है, उससे पैदा हुई है. अपने शहर की गलियों में मटरगश्ती करके अर्जित की गई संवेदना और जो कुछ मूल्यवान है उसे बचाने के विचार भी कविता जैसी विधा में बड़े 'ब्रेक-थ्रू' का कारण बन सकते हैं. इसी से जुड़ी बात है कि कविता के आकाश में सफलतापूर्वक वही उड़ान भर सकता है, जिसके यहां स्थानिकता भी मौजूद हो. राजेश ने यह काम करके दिखाया है.
शहर के गली-कूचों का चक्कर लगाता हुआ कवि आसमानी चांद-तारों का विधान खोजने लगता है और उन्हें अपनी दृढ़ कवि-इच्छा से मानव-निर्मितियों में उतार लेता है– चीज़ों का हूबहू दिखना अपनी ही शक्ल में/कविता में मुझे पसन्द नहीं बिल्कुल/मैं चाहता हूं मेरा फटा-पुराना जूता भी दिखे वहां/पूर्णिमा के पूरे चांद की तरह (प्रजापति : नेपथ्य में हंसी)
'दो पंक्तियों के बीच' कविता को देखिए. शब्द में कवि के ब्रह्मांड का एक तिहाई ही प्रकट होता है. दो तिहाई अज्ञात दुनिया भाषा से जो जगह खाली बची है, उसमें छुपी है. इस दुनिया में प्रवेश के बगैर कविता अधूरी है–अधूरी की भी अधूरी. वस्तुत: स्वयं शब्द अथवा भाषा की बनावट में दो दुनिया होती हैं. दो तिहाई छुपी हुई, एक तिहाई प्रकट. छुपी हुई दुनिया दो पंक्तियों के बीच जाकर अटक जाती है. यह काम भी शब्द ही करते हैं अपनी प्रतिध्वनियों के द्वारा. बहरहाल, राजेश कविता को जहाँ जाकर छोड़ते हैं, दो दुनिया का भेद वहां मिट जाता है, कविता की खूबसूरती इसी बात में है-
यहां आने से पहले जूते बाहर उतार कर आना
कि तुम्हारे पैरों की कोई आवाज़ न हो
एक ज़रा सी बाहरी आवाज़ नष्ट कर देगी
मेरे पूरे जादुई तिलिस्म को!
कविता जादू है–जो आवाज़ उठाती है, हस्तक्षेप करती है; लेकिन बाहरी आवाज़ बर्दाश्त नहीं करती है. बाहरी आवाज़ों के आवरण से लिपटी इस सभ्यता का उच्छेदन आज कवि-कर्म का मुख्य दायित्व है. जादू सभ्यता के बचपन की भाषा, धर्म और विज्ञान है, जो वास्तविकता को नियंत्रण में लाने और बदलने का उपक्रम करता है. हमारे बचपन का साथ जादू से बना हुआ है. शैशव-स्वप्न में बदलाव की गम्भीर आकांक्षा होती है. यह आकस्मिक नहीं है कि राजेश जोशी के प्रत्येक संग्रह में बच्चों पर कविताएँ हैं. उनका गहरा सम्बन्ध क्रूर वास्तविकता को बदलने के उपक्रम से है.
कभी हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सोहनलाल द्विवेदी की 'दूध-बताशा' नामक कविता की पुस्तक की समीक्षा करते हुए वर्तमान हिन्दी कविता की उस दशा का उल्लेख किया था जिसमें बच्चे, भाई-बहन और मां-बाप छोड़कर सभी विषय रहे हैं. द्विवेदी जी की इस शिकायत को दूर करने की सबल चेष्टा राजेश जोशी की कविता में दिखाई पड़ती है.
'बच्चे काम पर जा रहे हैं' राजेश जोशी की सर्वाधिक चर्चित कविताओं में से एक है-
बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
सवाल सिर्फ यह नहीं कि बच्चे काम पर जा रहे हैं. स्कूल जाते बच्चे भी बस्तों के बोझ से लद-फद कर जा रहे हैं, वह भी भयानक है. बच्चों को जादुई दुनिया से खींचकर स्वप्नहीन बनाने का काम किया जा रहा है, कवि का सवाल मुख्यत: इस बात से जुड़ा है. इसी सवाल से जुड़ी कविता है 'हमारे समय के बच्चे'. इस कविता के बच्चे काम पर नहीं जा रहे हैं. वे आधुनिक तकनीकों के सारे रहस्य जानते हैं. यह भी स्वप्नहीनता से जुड़ा उपक्रम है. राजेश यथार्थ की इस समझ के कवि हैं.
राजेश जोशी की 'समझ' से समकालीन कविता और उसकी नई पीढ़ी अभिन्न है. नई पीढ़ी के जो कवि मेरी इस समझ से इत्तफाक नहीं रखते, राजेश शायद उनके साथ भी खड़े मिल सकते हैं. क्योंकि जब वे 'चांद' शब्द को लिखकर उसे दो बार लिखना और दो बार पढ़ना मान सकते हैं (देखें, कविता 'चांद की वर्तनी'), तो इत्तफाक नहीं रखने वालों के साथ खड़े होने का हुनर भी गढ़ सकते हैं. कविता की एक संश्लेषी परम्परा, जो पीछे ही नहीं आगे भी जाती है. इसमें प्रतिरोध और प्रतिबद्धता है तो पर्याप्त लोच भी है.(साभार- राजकमल प्रकाशन)
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