नई दिल्ली. हिंदी की वरिष्ठ लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार का मिलना हिंदी साहित्य संसार के लिए बेहद सम्मान की बात है. इससे पहले कई भारतीय लेखकों को यह सम्मान मिल चुका है, लेकिन हिंदी के लिए मिला यह पहला बुकर सम्मान है. इस सम्मान के बाद हिंदी के कई रचनाकारों ने इसे हिंदी के लिए मील का पत्थर बताया.
बता दें कि गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ का अंग्रेजी अनुवाद डेजी रॉकवेल ने ‘टूंब ऑफ सैंड’ के नाम से किया है. बुकर सम्मान के चयन में यह अनिवार्य शर्त है कि वह किताब ब्रिटेन के किसी भी प्रकाशक से प्रकाशित हुई हो. इस पुरस्कार पर प्रतिक्रिया देते वक्त अमूमन सारे लेखकों ने इस बात पर दुख जताया. उनका मानना है कि इस अनिवार्य शर्त का खमियाजा कई लेखकों को भुगतना पड़ा है और भविष्य में भी यह लेखकों के लिए बाधक बनेगा. प्रतिक्रिया देने वालों का कहना है कि हर लेखक की पहुंच ब्रिटिश प्रकाशक तक नहीं होती. ऐसे में इस शर्त का साथ छोड़ देना चाहिए.
उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ की लेखिका महुआ माजी ने कहा ‘हम सभी हिंदीवालों के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. चूंकि अब तक हिंदी की किसी भी लेखिका को, बल्कि कहना चाहिए कि हिंदी की किसी भी रचना को बुकर नहीं मिला था. अंतरराष्ट्रीय बाजार में हिंदी लेखक-लेखिकाओं का सही तरह से जिक्र भी नहीं होता था, मन में यह कचोट रह जाती थी कि अंतरराष्ट्रीय या विश्व साहित्य में हिंदी के लेखक कहां हैं. दूसरी बात कि जिस देश में प्रेमचंद को लोग प्रेमचंद्र बोल देते हैं, ऐसे समय में किसी हिंदी लेखिका को बुकर पुरस्कार से नवाजा जाना सुखद है.’ रेत समाधि पर बात करते हुए महुआ माजी ने प्रकाशकों की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बताया. उन्होंने कहा कि राजकमल ने गीताजंलि श्री पर भरोसा जताया, उन्हें लगातार प्रकाशित किया, यह भी सुखद है. इसके साथ ही उन्होंने बुकर पुरस्कार के लिए किसी किताब का ब्रिटिश पब्लिशर के पास से छपे होने की शर्त पर अफसोस जताया. उन्होंने उम्मीद जताई कि एक न एक दिन यह बाड़बंदी टूटेगी.
भारतीय ज्ञानपीठ से हाल ही में छपकर आए उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ के लेखक रणेंद्र कहते हैं कि बेशक यह हिंदी के लिए सम्मान की बात है. उन्होंने गीतांजलि श्री की भाषा पर चर्चा करते हुए निर्मल वर्मा तक को याद किया. उन्होंने कहा कि किसी भी रचना के लिए भाषा में मेटाफर का इस्तेमाल बहुत मायने रखता है. गीतांजलि श्री ने अपने उपन्यास में ऐसा नहीं कि कोई बेहद नई बात कह दी हो. बात उन्होंने वही कही जो बाकी सब कहते हैं, लेकिन गीतांजलि श्री के बात कहने का अंदाज नया रहा. यह भाषा में रूपकों का ही कमाल होता है कि सुनी-सुनाई बात भी बिल्कुल नई लगती है. सचमुच, ‘रेत समाधि’ को बुकर सम्मान मिलना हिंदी समाज के लिए बहुत गौरव की बात है.
वरिष्ठ लेखक आशुतोष कुमार कहते हैं कि जश्न का बहाना इस उधेड़बुन में नहीं गंवाना चाहिए कि यह भारतीय भाषाओं में लिखा गया सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है या नहीं. बेशक हमारे पास कई बेशकीमती चीजें हैं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि रेत समाधि एक बड़ी किताब है. टूम ऑफ सैंड को मिला यह बुकर जितना लेखिका गीतांजलि श्री का है, उतना ही अनुवादक डेजी रॉकवेल का भी. गीतांजलि श्री के लेखन शैली पर आशुतोष कुमार कहते हैं ‘गीतांजलि श्री एक वाचक की तरह कहानी कहने से परहेज करती हैं. वे चाहती हैं, कहानी खुद को कहे. कहानी जैसे एक जीव हो, जिसको उसका मुकम्मल पर्यावास मिल जाए, तो सहज ही बोलने लग जाए. गीतांजलि उसके समूचे ब्रह्मांड को रचना चाहती हैं. हर कोने को, हर सांस को, फुर्सत से सहेजना चाहती हैं. वे पाठक से पर्याप्त धीरज की मांग करती हैं. लेकिन अगर एकबार पाठक इस वातावरण में रम जाए, वो कहानी की हर धड़कन को बोलते सुन सकता है.
उपन्यास कोठागोई के लेखक और 25 से ज्यादा किताबों का अनुवाद कर चुके प्रभात रंजन कहते हैं ‘हिंदी साहित्य के लिए बहुत बड़ी घटना है ये. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस उपन्यास के जरिए हिंदी को पहचान मिली है. इससे अंतरराष्ट्रीय जगत का ध्यान हिंदी साहित्य की ओर जाएगा. और सबसे बड़ी बात है कि पिछले कुछ सालों से हिंदी को लेकर ऐसा माहौल बनाया जा रहा था जैसे हिंदी सिर्फ लोकप्रिय लेखन की भाषा है, हिंदी में बिकने के आधार पर किताबों को महत्त्व दिया जाने लगा है, ऐसे में इस किताब ने यह ध्यान दिलाया है कि मेहनत और लगन से, धैर्य के साथ जब कोई गंभीर लेखन किया जाता है, तो उसको अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलती है. वाकई ये बड़ी बात है कि हिंदी के गंभीर साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है.’ बुकर पुरस्कार के लिए किताब का ब्रिटेन के प्रकाशक से ही छपे होने की अनिवार्यता पर प्रभात रंजन कहते हैं कि यह मामला लेखकों को आगे बढ़ाने का नहीं, अपने यहां के प्रकाशकों को अवसर देने का है.
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